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जनज्वार विशेष

उत्तराखण्ड में बन गया यह कानून तो वहां के जंगल और जमीन पर हो जाएगा माफियाओं का राज?

Prema Negi
17 Dec 2019 4:19 AM GMT
उत्तराखण्ड में बन गया यह कानून तो वहां के जंगल और जमीन पर हो जाएगा माफियाओं का राज?
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उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों में मात्र 6% के आसपास कृषि भूमि है और पिछले 60 वर्षों से बंदोबस्ती ना हो पाने के कारण यह आंकड़ा सही नहीं है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में विकास कार्यों के लिए कृषि भूमि का ही उपयोग किया गया है....

तरुण जोशी, उत्तराखण्ड वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष

त्तराखंड वन एवं पर्यावरण विभाग के सचिव द्वारा दिनांक 21-11-2019 को डीम्ड फॉरेस्ट के बारे के बारे में जारी किये गये एक कार्यालयी आदेश के पश्चात उत्तराखंड में वनों के संरक्षण के संबंध में एक व्यापक बहस छिड़ गई है। ऐसी धारणा बनाई जा रही है जैसे कि इस आदेश से उत्तराखंड के जंगलों में भू माफिया ओर बिल्डर्स का कब्जा हो जाएगा तथा उत्तराखंड में जंगल समाप्त हो जाएंगे।

स चिंता के कारण इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती भी दी जा चुकी है और केंद्र सरकार का वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इस आदेश को खारिज भी कर चुका है। केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास इस आदेश को खारिज करने का अधिकार है भी या नहीं यह तो स्पष्ट नहीं है, परंतु अंतिम रूप से इस आदेश के लागू होने या ना होने के बारे मे उच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात ही अंतिम निर्णय होगा।

तनी हलचल पैदा करने वाले डीम्ड वन हैं क्या, इसे समझना आवश्यक है। वर्ष 1996 में गोदावर्मन वाद में 12 दिसम्बर को दिए गए एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वन संरक्षण अधिनियम 1980 के संदर्भ मे वन शब्द किन भूमियों पर पर लागू होगा उन्हें स्पष्ट किया गया था जिसके अंतर्गत...

A- किसी भी वन कानून के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र जैसे कि सुरक्षित वन, संरक्षित वन, ग्राम वन।

B- सरकारी दस्तावेजों में वन के नाम से दर्ज किए गए भूखंड पर, चाहे उनका स्वामित्व राजस्व विभाग के पास हो या अन्य किसी के भी पास। इसमें झाड़ी वाले क्षेत्र भी शामिल हैं।

C- कोई ऐसा भूखंड चाहे उस पर स्वामित्व किसी का भी हो और जो उपरोक्त दोनों परिभाषा में नहीं आता हो परंतु शब्दकोश के अर्थ में जंगल हो डीम्ड फॉरेस्ट कहलाएगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को यह निर्देशित भी किया कि वह अपने यहां ऐसे वनों को चिन्हित करें और इनके लिए एक निश्चित समय में मानदंड तैयार कर डीम्ड फॉरेस्ट की घोषणा करें।

र्ष 2014 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा पौड़ी के कांडाखाल और गतौली खाल गांव के जंगल के बारे में जानकारी मांगी गई कि उपरोक्त क्षेत्र डीम्ड फारेस्ट हें अथवा नहीं, जिसके पश्चात वन विभाग द्वारा डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा तय करने हेतु एक ड्राफ्ट तैयार किया गया और इसे विभिन्न विभागों को प्रतिक्रिया जानने हेतु भेजा गया। यह ड्राफ्ट वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार को भी भेजा गया। तब से यह ड्राफ्ट वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास वर्ष 2019 तब तक लंबित रहा, जब तक कि डीम्ड फारेस्ट की परिभाषा तय करने की यह प्रक्रिया एक बार पुनः आरंभ नही हुई।

र्ष 2019 मे सुप्रीम कोर्ट द्वारा वीरेंद्र सिंह बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार तथा अन्य के वाद में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार से पूछा गया कि उन्होंने उत्तराखंड के द्वारा डीम्ड फारेस्ट के संबंध में भेजे गए ड्राफ्ट पर क्या कार्रवाई की है। मंत्रालय द्वारा 21अप्रैल 2019 को सुप्रीम कोर्ट को यह सूचित किया गया कि राज्य द्वारा भेजा गया ड्राफ्ट डीम्ड फॉरेस्ट के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहता है, इस पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 7 मई 2019 को पुनः एक आदेश जारी किया गया जिसमे कहा गया कि उत्तराखंड सरकार 6 सप्ताह की अवधि में आवश्यकीय प्रस्ताव तैयार कर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजे तथा मंत्रालय उस पर 8 सप्ताह के भीतर आवश्यक कार्यवाही करे।

स संबंध में फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने 26 सितंबर 2019 को की गई बैठक में विचार विमर्श किया और यह निर्णय लिया कि डीम्ड फारेस्ट के लिए मानदंड स्थापित करने के लिए राज्यों को विशेषज्ञ समिति स्थापित करनी है। कई राज्यों द्वारा यह प्रक्रिया पूरी कर सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दाखिल किए जा चुके हैं। ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो कि कहता हो कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को राज्य वार देश के लिए मानदंड बनाने हैं।

साथ ही डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा निश्चित करने के लिए पूरे देश के लिए एक मानदंड स्थापित करना गलत होगा, क्योंकि अलग अलग राज्यो में वनों की स्थिति अलग अलग है। इसके अतिरिक्त माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यों को अपने डीम्ड फारेस्ट की पहचान करने के लिए कहा गया है और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के मुकाबले में राज्यों के पास बेहतर स्थापित वन विभाग हैं, जो कि अपने जंगलों और आवश्यकताओं को बेहतर तरीके से समझ कर डीम्ड फॉरेस्ट के संबंध में मानदंड स्थापित कर सकते हैं।

फारेस्ट एडवाइजरी कमिटी ने कुछ बिंदुओं जैसे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश, राष्ट्रीय वन नीति, वनों की उपयोगिता, प्रजाति आदि को ध्यान में रखने का आग्रह किया तथा यह भी स्पष्ट किया कि जो भी मानदंड राज्य के द्वारा डीम्ड फॉरेस्ट के संबंध में निश्चित किए जाएंगे वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति के अधीन नहीं होंगे।

त्तराखंड सरकार के द्वारा डीम्ड फारेस्ट को परिभाषित करते हुए दिनांक 21 नवंबर 2019 को एक आदेश जारी किया गया जिसके अंतर्गत डीम्ड फॉरेस्ट की श्रेणी में उन वनो को रखा गया जो कि राजस्व रिकॉर्ड में वन के रूप में अभिलिखित हो तथा 10 हेक्टेयर और 60% से अधिक कैनोपी के वन क्षेत्र हो। साथ ही 75% से अधिक देशी वृक्ष प्रजातियों ओर 60% से अधिक कैनोपी के 10 हैक्टेयर से अधिक क्षेत्र के उन बनो को भी शामिल किया जाएगा जिन पर किसी का भी स्वामित्व हो, अर्थात राजस्व के रिकार्ड में दर्ज कृषि भूमि यदि 10 हैक्टेयर से अधिक और 75% से अधिक देशी वृक्ष प्रजातियों ओर 60% से अधिक कैनोपी को धारित करती है तो वह डीम्ड फारेस्ट के अंतर्गत आएगी और उस पर वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्राविधान लागू होंगे।

उत्तराखंड राज्य में वर्तमान में विधिक दृष्टि से पाँच प्रकार के वन हैं —

1-आरक्षित वन- 26,547.00 वर्ग किलोमीटर

2-संरक्षित वन -154.02 वर्ग किलोमीटर

3-सिविल एव सोयम वन –

a- वन पंचायत - 4961 वर्ग किलोमीटर - जो कि अब ग्राम वन की परिभाषा में आ चुकी है

b- राजस्व विभाग के अधीन- 4768.704 वर्ग किलोमीटर

4-निजी वन- 123 वर्ग किलोमीटर - जो कि नगर पालिका एवं अन्य सरकारी विभागों के अधीन है

5- अवर्गीकृत वन -1444.51 वर्ग किलोमीटर

परोक्त वर्गीकरण और राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए आदेश को मिलाकर देखा जाए तो उपरोक्त सभी प्रकार के वनों में वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधान लागू होते हैं। अतः यह सब सरकारी आदेश के प्रस्ताव क में आते हैं जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि वन से उत्तराखंड राज्य में लागू राज्य या केंद्र की वर्तमान विधि के अंतर्गत वन के रूप में अधिसूचित समस्त क्षेत्र अभिप्रेत है।

हां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि अवर्गीकृत वन यद्यपि आरक्षित या संरक्षित किसी श्रेणी में नहीं डाले गए है परंतु इनमें से 53.03 वर्ग किलोमीटर अवर्गीकृत वन जो कि राज्य बनने के पूर्व संरक्षित वन की श्रेणी में थे राज्य बनने के पश्चात आरक्षित वन में बदले जा चुके हैं। 1444.51 अवर्गीकृत वन राज्य बनने के पश्चात अन्य अवर्गीकृत वन की श्रेणी में डाले गए हैं परंतु इनमें भी वर्ष 1893 में लागू शासनादेश के प्रविधान लागू होंगे, अर्थात वन संरक्षण अधिनियम 1980 इन वनो पर भी प्रभावी होगा।

नों के पश्चात राज्य में राजस्व विभाग में दर्ज नाप और और बेनाप भूमि आती है। इसमें से भी बेनाप भूमि पर वर्ष 1893 में लागू शासनादेश के प्रविधान लागू हैं और यह भी जारी शासनादेश के प्रस्ताव क के अंतर्गत आती है। ऐसे में जो एकमात्र भूमि डीम्ड फारेस्ट के अंतर्गत आएगी वह लोगों की नाप कृषि भूमि है। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक होगा कि राज्य के पर्वतीय जिलों में मात्र 6% के आसपास कृषि भूमि है और पिछले 60 वर्षों से बंदोबस्ती ना हो पाने के कारण यह आंकड़ा सही नहीं है, क्योंकि पिछले वर्षो में विकास कार्यों के लिए कृषि भूमि का ही उपयोग किया गया है। वास्तविकता में यह 6% से कम है।

स संबंध में अंतरिक्ष उपयोग केंद्र उत्तराखंड का एक शोध-अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिसके अंतर्गत यूसेक की टीम ने पर्वतीय क्षेत्रों के विभिन्न गांवों का दौरा कर इन गांवों से जानकारी एकत्र की है। इस शोध से यह निष्कर्ष निकल कर आया कि लगभग हर जिले में 10 से 15 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ऐसा है, जिसमें चीड़ के जंगल उग गए हैं।

यूसेक का अनुमान है कि लगभग 180 वर्ग किलोमीटर कृषि भूमि डीम्ड फारेस्ट की श्रेणी में आ चुकी है। यूसेक के निदेशक प्रोफेसर एम.पी.एस बिष्ट कहते हैं, 'उत्तराखंड के गांव में जो खेत हैं वह 1000 साल से भी पुराने हैं। पुरखों ने इन खेतों को बड़ी मेहनत से काटकर सीढ़ीदार बनाया और इसमें खेती की, मगर अब इनमें जंगल उग आया है।' वह यह भी कहते हैं कि हम इस शोध के माध्यम से ऐसे परिवारों को जागरूक करना चाहते हैं कि वह अपने खेतों की सुध ले नहीं तो आने वाले वक्त में वह इनका उपयोग नहीं कर पाएंगे।

स रिपोर्ट के जारी होने के पश्चात वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने बैठक कर सरकार को ज्ञापन दिया था कि कृषि भूमि को डीम्ड फारेस्ट घोषित होने से बचाने के लिए पहल की जाए, जिसके लिए वन अधिकार कानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। प्रवासी लोगों से भी अपील की गई थी कि वह इस संबंध में सरकार के संपर्क करें ताकि जब कभी भी वापस लौट कर आए तो उन्हें अपनी जमीन वापस मिल सके।

स संबंध में पिछले 20 से भी अधिक वर्षों से वनों के मुद्दे पर कार्य कर रहे ईश्वर जोशी का मानना है, यूसेक की रिपोर्ट एक चेतावनी है। वास्तविक रूप में उनके क्षेत्र में लगभग सभी गांवों में पलायन हुआ है, कुछ गांव पूर्ण रूप से खाली है और इनमें चीड़ के वृक्ष उग गए हैं।

हीं किसान संघटन से जुड़े वन और भूमि मुद्दों पर कार्यरत पुरुषोत्तम शर्मा का मानना है कि वास्तविक रूप में जब डीम्ड फारेस्ट को परिभाषित किया जाएगा तो लोगों की 40% से अधिक भूमि इसके अंतर्गत आ जाएगी।

न चेतावनियों को अगर वर्तमान आदेश के संदर्भ में देखा जाए तो यदि आदेश अपने वर्तमान रूप में लागू होता है तो लोगों की कृषि भूमि डीम्ड फारेस्ट बनने से बच जाएगी, क्योंकि अधिकांशतया लोगों के पास औसतन 1 हैक्टेयर से कम भूमि है और लोग जब भी अपने गांव वापस लौटेंगे तो अपनी कृषि भूमि का उपयोग कर पाएंगे।

रंतु जारी आदेश समस्या का हल नहीं है। वन संरक्षण अधिनियम 1980 के कारण उत्तराखंड में लगभग डेढ़ हजार विकास परियोजनाओं पर रोक लग गयी थी। केंद्र सरकार ने पहले उत्तराखंड को दिये गए चार हैक्टेयर वन भूमि हस्तांतरण के अधिकार को घटाकर एक हैक्टेयर कर दिया। इसके बाद एक हैक्टेयर के आदेश को भी रिन्यू नहीं किया। इसमें करीब 1000 योजनाएं छोटी बड़ी सड़कों की हैं। अन्य योजनाएं पुल, पार्क और शैक्षणिक संस्थानों की हैं।

ब एक हैक्टेयर वन भूमि हस्तांतरण का अधिकार पुनः मिला है, परन्तु प्रदेश को यह अधिकार सिर्फ 21 दिसंबर 2020 तक के लिए दिया गया है। कई योजनायें वर्षों से अनुमति की राह देख रही हैं। ऐसे में अगर कृषि भूमि पर भी वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रविधान लागू हो गए तो पर्वतीय क्षेत्र में लोगों का रहना दूभर हो जाएगा।

डीम्ड फारेस्ट के इस आदेश के संबंध में अधिकारियों ने भी अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त की हैं। यूसेक की रिपोर्ट जारी होने के पश्चात पूर्व सचिव आनंद वर्धन का मानना था कि सुप्रीम कोर्ट ने हमसे डीम्ड फारेस्ट को परिभाषित करने को कहा था, हमने यह किया और जिस खेत या खाली जमीन में जंगल उगेगा, वह डीम्ड फोरेस्ट कहलाएगा।

र्तमान प्रमुख वन संरक्षक उत्तराखंड का कहना है कि हमारे पास पहले से 71% वन है और इस आदेश के माध्यम से हम जंगल में और वृद्धि करने जा रहे हैं।

न विभाग से जुड़े पूर्व अधिकारी विनोद पांडे इस आदेश को जंगल की जमीन इस्तेमाल करने के लिए तैयार की गई परिभाषा मानते हैं और इस मुद्दे पर जनहित याचिका भी उच्च न्यायालय में दाखिल कर चुके हैं।

न विभाग से जुड़े पूर्व अधिकारी आईडी पांडे सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि पहाड़ में अधिकांश जंगल 60% से कम केनोपी के हैं तो क्या सरकार उन्हें जंगल नहीं मानेगी।

डीम्ड फोरेस्ट से जुड़े कई वाद भी राज्य में चल रहै हैं। इनमें से एक वाद नरेंद्र नगर टिहरी में चंद्र प्रकाश बूढ़ाकोटी बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार के बीच में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में चला था। वाद के अंतर्गत महाराजा यजुवेंद्र साह से महानंद शर्मा एवं उनकी कंपनी द्वारा खसरा नंबर 512 और 513 में 6.68 और खसरा नंबर 605 में 18.02 हैक्टेयर राजस्व भूमि खरीदी गई, जिसमें उनके द्वारा होटल एवं अन्य निर्माण किए गए।

रित प्राधिकरण में किए गए वाद में आवेदक का कहना था कि उपरोक्त भूमि राजस्व विभाग की भूमि में दर्ज है, परंतु खसरा नंबर 512 ओर 513 खसरे में निजी वन के रूप में दर्ज है और खसरा नंबर 605 जो कि इनके साथ लगा हुआ है बंजर के रूप में दर्ज है। उसमें भी पर्याप्त रूप से हरियाली और छोटे वृक्ष हैं, इस कारण इस भूमि को वन के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए तथा वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रविधान इस भूमि पर लागू होने चाहिए।

file photo

न विभाग द्वारा निर्माण कर्ता महानंदा स्पा प्राइवेट लिमिटेड को वन संरक्षण अधिनियम के तहत केंद्र सरकार की अनुमति दिखाने और तब तक तक कार्य ना करने के लिए कहा गया था। अपने जवाब में महानंदा स्पा प्राइवेट लिमिटेड और इसके स्वामी द्वारा कहा गया कि वह इस भूमि में भूमिधर है और यह भूमि ना तो रिजर्व फॉरेस्ट है और न वन विभाग के किसी रिकॉर्ड में दर्ज है।

परोक्त तथ्यों को देखते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने आदेश पारित किया कि खसरा नंबर 512 और 513 चूंकि राजस्व रिकॉर्ड में निजी वन के रूप में दर्ज है तो उन पर वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधानों लागू होंगे तथा खसरा नंबर 605 को वन विभाग द्वारा डीम्ड फोरेस्ट घोषित नहीं किया गया है अतः वर्तमान हरियाली के बावजूद इसमें वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधान लागू नहीं होंगे।

परोक्त वाद से स्पष्ट है कि डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा निश्चित करते वक्त निजी भूमि धारकों के हितों को ध्यान में रखना आवश्यक होगा अन्यथा यह भविष्य में उत्तराखंड के निवासियों के लिए एक बहुत बड़ी आपदा साबित हो सकता है।

हां पर यह भी उल्लेखनीय हैं कि वर्ष 2006 में पारित वन अधिकार कानून के लागू होने के पश्चात देश में वनों की परिभाषा बिलकुल बदल चुकी है। ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने के लिए लाये गए इस कानून को अगर इसके वास्तविक अर्थों में उत्तराखंड में लागू किया जाय तो ना सिर्फ साल अस्सी की सीमा के भीतर लोगों के वन ओर भूमि हक बहाल होंगे, बल्कि 1893 के आदेश, वन संरक्षण अधिनियम 1976,वन पंचायतों की स्वायत्तता और वर्ष 1961 के गोपनीय आदेश के तहत जन अधिकार के वनों को आरक्षित वनों में बदलने सहित पार्कों, अभ्यारणों सहित वन गाँव में लोगों के अधिकारों की बहाली हो सकेगी।

सके पश्चात राज्य किसी भी वन या भूमि को डीम्ड फॉरेस्ट में बदलने के लिए विचार कर सकता है और वनों की नई परिभाषा गढ़ सकता है।

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