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झोला छाप डॉक्टर जैसा है हमारे देश का केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
सीपीसीबी का रवैया किसी वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान जैसा नहीं, बल्कि झोलाछाप डॉक्टर जैसा है, जिसे न तो रोगों का ज्ञान है और न ही इलाज का, देश में वायु प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता गया, पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी फलते-फूलते रहे और लोग प्रदूषण से मरते...
महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक
डॉक्टर रोगों का इलाज करता है और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना प्रदूषण के इलाज के लिए की गयी थी। एक डॉक्टर वह होता है जो केवल आपकी नाड़ी पर हाथ रखता है और बिना रोग जाने दवा दे देता है, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) भी ठीक यही काम करता है। इसे भी नाड़ी, यानी पार्टिकुलेट मैटर पीएम10 और पीएम2.5, के अतिरिक्त हवा में प्रदूषण फैलाता और कुछ नहीं दिखता है।
इसी सीपीसीबी ने नवम्बर 2009 में वायु गुणवत्ता मानक को अधिसूचित किया था, जिसमें 12 पैरामीटर सम्मिलित थे – पीएम10, पीएम2.5, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, ओजोन, अमोनिया, लेड, बेंजीन, बेन्ज़ोपाइरीन, आर्सेनिक और निकल। दस वर्ष बीतने के बाद भी सीपीसीबी इन सभी पैरामीटरों को देश भर में मापने में नाकामयाब रहा है और न ही भविष्य में इसके आसार दिखते हैं। वायु गुणवत्ता मानक के कुल 12 पैरामीटर में से सीपीसीबी केवल पीएम को ही देशभर में मापता है और इसीलिए वायु प्रदूषण केवल पीएम पर ही सिमट कर रह गया है।
हैरानी की बात है कि सीपीसीबी एक वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान होने का दावा करता है, और बिना देशभर में वायु प्रदूषण का बारीकी से अध्ययन किये ही देश भर के लिए मानक अधिसूचित कर देता है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता कार्यक्रम के अधीन कुल 312 शहरों और कस्बों में वायु गुणवत्ता को मापा जाता है। इसके अंतर्गत केवल चार पैरामीटर – पीएम10, पीएम2.5, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का परिमापन किया जाता है।
इस कार्यक्रम का उद्देश्य उन जगहों पर ध्यान देना है, जहां वायु गुणवत्ता मानकों का उल्लंघन करता है। इस सन्दर्भ में एक सवाल सहज तौर पर उठता है कि वायु गुणवत्ता मानकों का उल्लंघन आप किसे मानेंगे? जाहिर है आपका जवाब होगा, मानकों के सभी पैरामीटरों के परिमापन के बाद जिस भी पैरामीटर का वास्तविक मान मानक से अधिक होगा। इसके लिए सभी पैरामीटरों का परिमापन आवश्यक है, पर मानकों को निर्धारित करने वाला संस्थान स्वयं ऐसा नहीं कर रहा है।
जाहिर है, देशभर में जो वायु गुणवत्ता का परिमापन किया जा रहा है, वह अधूरा है। जैसे कोई डॉक्टर केवल मस्तिष्क और ह्रदय का परीक्षण कर यह नहीं बता सकता कि आदमी स्वस्थ्य है या बीमार, ठीक उसी तरह केवल चार पैरामीटर से कोई यह नहीं बता सकता कि वायु प्रदूषण कितना है, पर सीपीसीबी यही काम वर्षों से कर रहा है। एयर क्वालिटी इंडेक्स का खूब जोर शोर से प्रचार किया जाता है। यह इंडेक्स भी केवल टीम पैरामीटर से तैयार किया जाता है, हालाँकि कहा जाता है कि इसके लिए आठ पैरामीटर के आंकड़ों की जरूरत है।
सीपीसीबी ने हाल में ही एक प्रश्न के जवाब में बताया कि इस इंडेक्स को केवल उन शहरों के लिए निर्धारित किया जाता है जहां ऑटोमेटिक मोनिटोरिंग उपकरण स्थापित किये गए हैं और इन उपकरणों से केवल सात पैरामीटर का ही परिमापन किया जा सकता है। इससे तो स्पष्ट है कि जैसा सीपीसीबी कहता है वैसा कुछ भी नहीं होता और पूरे आठ पैरामीटर के साथ कहीं भी इंडेक्स निर्धारित नहीं किया जाता।
इसी पत्र के अनुसार सीपीसीबी तो अभी योजना बना रहा है कि हरेक वे शहर जहां की आबादी एक लाख या इससे ऊपर है वहाँ मानकों में जिन 12 पैरामीटरों का उल्लेख किया गया है, वे सभी पैरामीटर मापे जा सकें। इस बीच बहुचर्चित योजना, नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम, में बताया गया है कि वायु गुणवत्ता का परिमापन ग्रामीण क्षेत्रों तक भी ले जाया जाएगा। अब जरा सोचिये, जब शहरों में इसका परिमापन नहीं किया जा रहा है तो गाँव का जिक्र भी बेमानी है।
कुल मिलाकर प्रदूषण नियंत्रण के सन्दर्भ में सीपीसीबी का रवैया किसी वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान जैसा नहीं, बल्कि एक झोलाछाप डॉक्टर जैसा है, जिसे न तो रोगों का ज्ञान है और न ही इलाज का। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि 1981 में वायु प्रदूषण अधिनियम के बाद से देश में वायु प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता गया, पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी फलते-फूलते रहे और लोग प्रदूषण से मरते रहे।