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राजनीति

धर्म के नाम पर मांगे थे वोट इसलिए कोर्ट ने रद्द की विधायक की सदस्यता

Prema Negi
9 Nov 2018 2:52 PM GMT
धर्म के नाम पर मांगे थे वोट इसलिए कोर्ट ने रद्द की विधायक की सदस्यता
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उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के अजिकोडे में विधायक द्वारा चुनावों में सांप्रदायिक कार्ड खेलने का हवाला देते हुए हाईकोर्ट में चुनाव याचिका की गई थी दायर....

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

जनज्वार। चुनावी राजनीती में धर्म का घालमेल केरल के मुस्लिम लीग के विधायक केएम शाजी को बहुत भारी पड गया और केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार 9 नवंबर को विधायक केएम शाजी की सदस्यता धर्म के आधार वोट मांगने के आरोप में रद्द कर दी है।

वर्ष 2016 विधानसभा चुनावों में सांप्रदायिक कारणों पर वोट मांगने पर हाईकोर्ट ने उन्हें अयोग्य घोषित किया। उनके प्रतिद्वंद्वी एमवी निकेश कुमार (सीपीएम) ने विधायक द्वारा चुनावों में सांप्रदायिक कार्ड खेलने का हवाला देते हुए हाईकोर्ट में चुनाव याचिका दायर की थी। निकेश कुमार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के अजिकोडे में शाजी से चुनाव हार गए थे।

कुमार का आरोप था कि शाजी ने उनके खिलाफ वोट न करने के लिए पर्चे बांटे थे। कुमार ने अपनी याचिका में कहा कि शाजी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया है। केरल हाईकोर्ट की जस्टिस पी डी राजन की एकल पीठ ने विधायक को अयोग्य घोषित करने के अलावा चुनाव आयोग को नए चुनाव कराने का निर्देश दिया। इतना ही नहीं, शाजी को पराजित उम्मीदवार को 50,000 रुपये के अदालत शुल्क का भुगतान करने के लिए भी कहा गया है।

एकल पीठ ने कहा है कि इंडियन मुस्लिम लीग के विधायक के एम शाजी ने धर्म के नाम पर वोट मांगकर तथा विपक्षी प्रत्याशी के आचरण के सम्बंध में झूठी बातें फैलाकर जन प्रतिनिधित्व की धारा 123 (3)और 123(4) के तहत भ्रष्ट आचरण किया है, इसलिए इंडियन मुस्लिम लीग के विधायक के एम शाजी का चुनाव धारा 98 के तहत मिले अधिकारों के अनुपालन में धारा 100 (डी) (ii) के तहत शून्य घोषित किया जाता है।

धर्म-जाति‍ के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी

गौरतलब है कि इसके पहले वर्ष 1917 में उच्चतम न्यायालय के सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने एक अहम फैसले में व्यवस्था दिया था कि प्रत्याशी या उसके समर्थकों के धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। इस आधार पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है। जन प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए।

उच्चतम न्यायालय में इस संबंध में एक याचिका दाखिल की गई थी, इसके तहत सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत करप्ट प्रैक्टिस है या नहीं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) के तहत 'उसके' धर्म की बात है और इस मामले में उच्चतम न्यायालय को व्यातख्याी करनी थी कि 'उसके' धर्म का दायरा क्या है? प्रत्याशी का या उसके एजेंट का भी।

उच्चतम न्यायालय में 7 जजों की पीठ ने बहुमत के आधार पर अपने इस फैसले में कहा कि चुनाव में कोई भी प्रत्याशी या उसके समर्थक धर्म, जाति‍, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट मांगते हैं, तो यह गैरकानूनी होगा और इसे भ्रष्ट आचरण जैसा माना जाएगा।

उच्चतम न्यायालय में इस निर्णय के पक्ष में चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर, जस्टिस एमबी लोकुर, एलएन राव, एसए बोबडे का था, जबकि जस्टिस यूयू ललित, एके गोयल और डीवाई चंद्रचूड की राय इससे अलग थी। उच्चतम न्यायालय का कहना है कि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है और इसे धर्मनिरपेक्ष तरीके से ही होना चाहिए। न्यायालय ने कहा था कि आदमी और भगवान के बीच का संबध उसकी व्यक्तिगत पसंद है और राज्य को लोगों के व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप की इजाजत नहीं है।

दरअसल, 1995 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि 'हिंदुत्व' धर्म नहीं, जीवन शैली है। उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि 'हिंदुत्व' के नाम पर वोट मांगने से किसी उम्मीदवार को कोई फायदा नहीं होता है। उस वक्त उच्चतम न्यायालय ने हिंदुत्व को 'वे ऑफ लाइफ' यानी जीवन जीने का एक तरीका और विचार बताया था।

मामला ' उसके 'धर्म की व्याख्या का

मामले की सुनवाई के दौरान मसला ये आया कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत 'उसकी' क्या व्याख्या होगी। इसके तहत धर्म के नाम पर वोट न मांगने की बात है। कानून के तहत उसके धर्म (हिज रिलीजन) की बात है। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले में सुनवाई के दौरान जनप्रतिनिधित्व कानून के दायरे को व्यापक करते हुए कहा था कि हम ये जानना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर वोट मांगने के लिए अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात है?

प्रत्याशी के धर्म की बात है या एजेंट के धर्म की बात है या फिर तीसरी पार्टी के धर्म की बात है जो वोट मांगता है या फिर वोटर के धर्म की बात है। पहले इस मामले में आए जजमेंट में कहा गया था कि जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा-123 (3) के तहत धर्म के मामले में व्याख्या की गई है कि उसके धर्म यानी कैंडिडेट के धर्म की बात है।

हिंदुत्व के मामले में दिए जजमेंट पर पुनर्विचार नहीं

उच्चतम न्यायालय के सात जजों की पीठ ने एक बार फिर साफ किया था कि वह हिंदुत्व के मामले में दिए गए 1995 के फैसले को दोबारा पुनर्विचार नहीं करने जा रहे। 1995 के दिसंबर में जस्टिस जेएस वर्मा की पीठ ने फैसला दिया था कि हिंदुत्व शब्द भारतीय लोगों की जीवन शैली की ओर इंगित करता है। हिंदुत्व शब्द को सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता।

उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो 1995 में फैसला दिया था वह उस पर पुनर्विचार नहीं करेगा और न ही उसका दोबारा परीक्षण करेगा।

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