"फैशन परेड की तरह आयोजित किए जा रहे हैं लिटरेचर फेस्टिवल"
4 से 10 नवंबर के बीच आईसेक्ट यूनिवर्सिटी और उससे जुड़े अन्य विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक केंद्रों और सृजन पीठ के इस संयुक्त आयोजन में 30 देशों के करीब 500 लेखक भागीदारी करेंगे...
भोपाल से सचिन श्रीवास्तव की रिपोर्ट
भोपाल। साहित्य और आयोजन का रिश्ता बेहद गहरा रहा है। साहित्यिक हलके में आयोजन, आयोजन की रूपरेखा, सत्ता से उसका रिश्ता और आयोजकों की भूमिका के विषयों पर संदेह, सवाल और शंकाओं के साथ प्रशंसा, उपलब्धि, महत्व पर चर्चाओं का भी अपना इतिहास-वर्तमान है।
इस रिश्ते का हासिल कहें या उलटबांसी, बीते कुछ सालों से साहित्यिक आयोजनों में कॉर्पोरेट पूंजी के मेल पर भी खासी बहसें हुई हैं। इसकी शुरुआत 2006 के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से तेज हुई और आजतक व अन्य कॉर्पोरेट के लिटरेचर फेस्टिवलों से बहस का बाजार गर्म हुआ। 2018 के बाद कार्पोरेट पूंजी से होने वाले आयोजनों के विरोध में जयपुर में समांतर लिटरेचर फेस्टिवल और फिर दिल्ली में दलित साहित्य महोत्सव जैसे मानीखेज आयोजन भी हुए, जो लेखक संगठनों एवं कुछ संस्थाओं के सामूहिक प्रयासों का नतीजा थे।
यह बहस भोपाल में महाकवि टैगोर की स्मृति में हो रहे विश्वरंग आयोजन के जरिये एक बार फिर ताजा हो गई है। साथ ही कई सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। जैसे यह आयोजन अन्य लिटरेचर फेस्टिवल से अलग किन अर्थों में है? आयोजन में शामिल हो रहे लेखकों में कई स्थापित वामपंथी और दक्षिणपंथी लेखकों में से वे लेखक भी शामिल हैं, जो विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े रहे हैं।
विश्वरंग भोपाल को लेकर सोशल मीडिया पर इस तरह उठने लगे हैं सवाल
आसान लफ्जों में कहें तो सत्ता के कथित निशाने पर रहे लेखक और सत्ता के पक्ष में खड़े लेखक इस आयोजन में एक साथ, एक ही समय में मंचों पर आसीन होंगे। ऐसा मौका अपनी पक्षधरता के लिए पहचाने जाने वाले वामपंथी लेखकों के लिए क्या यह दुविधा का क्षण होगा, या फिर वे आयोजन के महत्व के लिए प्रतिबद्धता को कुछ देर के लिए विराम देंगे? यह देखना दिलचस्प होगा।
कुलाधिपति स्वयं हैं राष्ट्रवादी लेखक
हाल ही में जनज्वार में प्रकाशित एक रिपोर्ट 'भोपाल में टैगोर महोत्सव का उदघाटन वे लेखक करेंगे जिन्हें नफरत की राजनीति है प्यारी' में इस आयोजन पर कई जरूरी सवाल खड़े किए गए थे। जैसे टैगोर की सोच दक्षिणपंथ के आसपास भी नहीं थी, लेकिन इस आयोजन में दक्षिणपंथी लेखकों की भूमिका अहम है। जहां मोदीभक्त लेखक और तथाकथित राष्ट्रवादी लेखक चित्रा मुद्गल से भव्य विश्व रंग समारोह का उद्घाटन कराया जा रहा है, वहीं दक्षिणपंथी रुझान के रमेश चंद्र शाह भी इस आयोजन के उद्धाटनकर्ताओं में शामिल हैं।
मोदी के मन की बात का सम्पादन करने वाले लेखक कमल किशोर गोयनका भी इस आयोजन में एक वक्ता होंगे, जबकि टैगोर की सोच दक्षिणपंथियों के आसपास भी नहीं टिकती। हालांकि टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति संतोष चौबे इस बात के जवाब में खुद अपने आपको राष्ट्रवादी लेखक बताते हैं। जुदा बात है कि इससे पहले वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे हैं।
सवाल आयोजन के हासिल पर भी है, जो आईसेक्ट समेत पांचों यूनिवर्सिटीज की ब्रांडिंग और इनके कुलाधिपति संतोष चौबे की साहित्यिक छवि को निखारने से जुड़ा है। 10 अक्टूबर को दिल्ली में आयोजन पर बातचीत के लिए लंच पर कुछ लेखकों-पत्रकारों बुलाया था। उस वक्त वरिष्ठ कवि और पत्रकार विमल कुमार और संजय कुंदन ने कुछ तीखे सवाल पूछे थे। इस दौरान संतोष चौबे ने खुद को राष्ट्रवादी लेखक बताते हुए कहा था कि वे टैगोर की तरह अंतरराष्ट्रीयता में यकीन करते हैं। उन्होंने दक्षिणपंथी और वामपंथी लेखकों की एक साथ मौजूदगी को समन्वय स्थापित करने का प्रयास बताया। साहित्यकार व पत्रकार संजय कुंदन ने आयोजन की चयन प्रक्रिया का सवाल उठाया था, लेकिन इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है।
वैसे 4 से 10 नवंबर के बीच आईसेक्ट यूनिवर्सिटी और उससे जुड़े अन्य विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक केंद्रों और सृजन पीठ के इस संयुक्त आयोजन में 30 देशों के करीब 500 लेखक भागीदारी करेंगे। लेखकों की सूची आदि को आयोजन से जुड़ी वेबसाइट पर देखा जा सकता है।
चयन के आधार पर सवाल
आयोजकों में शामिल मुकेश वर्मा इस आयोजन के महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि आमतौर पर लिटरेचर फेस्टिवल बड़ी कंपनियों और सरकार के पैसे पर आयोजित किए जाते है, जबकि भोपाल का विश्वरंग आयोजन पांच यूनिवर्सिटीज के शैक्षणिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के आवंटन वाले पैसे के संयोग से संभव हो रहा है। हालांकि इस बीच वे यह नहीं बताते हैं कि वे पांचों यूनिवर्सिटीज प्राइवेट हैं और एक ही परिवार की कंपनियों के अंतर्गत संचालित की जाती हैं। यानी कॉर्पोरेट तो यह भी है।
इस आयोजन में 500 से अधिक लेखकों की शिरकत का दावा किया जा रहा है, लेकिन यह साफ नहीं है कि लेखकों के चयन का आधार क्या है। सूची में भोपाल शहर के साथ मध्य प्रदेश और हिंदी के कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों के नाम नहीं हैं! यह जानकारी हासिल नहीं हो सकी है कि इन लेखकों ने खुद ही आयोजन से दूरी बनाई है अथवा आयोजकों ने इन्हें विश्वरंग के लिए उपर्युक्त नहीं पाया।
विश्वरंग में भारतीय भाषाओं को दी जाएगी प्राथमिकता : मुकेश वर्मा
विश्वरंग की दूसरी खासियत बताते हुए आयोजक मुकेश वर्मा कहते हैं कि यह पहली बार है जब इतने बड़े आयोजन में भारतीय भाषाओं और हिंदी को प्रमुखता दी जा रही है। आमतौर पर बड़े साहित्यिक फेस्टिवल में अंग्रेजी का दबदबा रहता है। साथ ही वे बताते हैं कि इस आयोजन में प्रवासी रचनाकारों और थर्ड जेंडर के लिए भी अलग से सत्र आयोजित किए गए हैं।
इस विश्वरंग में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के विरोध में समांतर लिटरेचर फेस्टिवल करने वाले आयोजकों में शामिल साहित्यकार ईश मधु तलवार कहते हैं कि 'रचनाकारों को उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण अछूत नहीं बनाया जा सकता है। साथ ही भोपाल के विश्व रंग के आयोजन से लीलाधर मंडलोई जैसे विश्वसनीय रचनाकार जुड़े हुए हैं, इसलिए इस आयोजन के बारे में किसी किस्म का संदेह नहीं किया जाना चाहिए।'
सवालों के घेरे में विश्वरंग
233—34 साहित्यिक जलसे हो रहे हैं देशभर में : कृष्ण कल्पित
इस तरह के साहित्यिक आयोजन के बारे में हमेशा तल्ख रहे कवि कृष्ण कल्पित इस तरह के सभी आयोजनों पर सवाल उठाते हुए इन्हें फैशन परेड की संज्ञा देते हैं। वे कहते हैं कि भोपाल में हो रहे आयोजन के बारे में उन्हें अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन लिटरेचर फेस्टिवल और फैशन परेड में कोई फर्क नहीं है। एक समय था जब देश में सौंदर्य प्रतियोगिताओं की बाढ़ आई हुई थी। इसी तर्ज पर आज देश भर में करीब 233 या 234 लिटरेचर फेस्टिवल हो आयोजित किए जा रहे हैं। जाहिर है इनमें लेखक 2—4 ही होते हैं। मुख्यत: इसमें सेलिब्रिटी, आईएएस और कुछ अन्य प्रकार के लोग होते हैं।
कृष्ण कल्पित खुद भी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के विरोध में समांतर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन कर चुके हैं। इस संबंध में वे बताते हैं कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का विरोध मुख्यत: दो बिंदुओं पर था— पहला इस तरह के आयोजन में कॉरपोरेट का पैसा और दूसरा अंग्रेजी भाषाओं का वर्चस्व। वे कहते हैं कि हमारा अंग्रेजी भाषा से विरोध नहीं है, लेकिन अंग्रेजी संस्कृति के जरिये स्थानीय भाषाओं, संस्कृति और साहित्यकारों का ऐसे आयोजन में अपमान किया जाता है।
उन्होंने बताया कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल करीब 300 करोड़ रुपए की पूंजी से संचालित होता है और इसके बरअक्स हमने साहित्यिक मित्रों आदि से 10—10, 5—5 हजार का चंदा लेकर आयोजन किया था।
सवाल तो बाकी हैं!
बहरहाल, आयोजन की सफलता और असफलता के मानक पहले से तय नहीं किए जा सकत हैं लेकिन यह सवाल तो बनता ही है कि आखिर विश्वरंग के नाम से हो रहे जलसे का हासिल क्या होगा! साथ ही इस आयोजन में आ रहे लेखकों से यह सवाल भी पूछे जाने चाहिए कि—
1. आजतक और जयपुर लिट् फेस्ट से यह आयोजन अलग कैसे है?
2. साहित्य के कॉरपोरेटीकरण का खुलकर विरोध करने वाले लेखक संस्कृतिकर्मियों, सत्ता के साथ सुरक्षित दूरी रखने वाले और मौजूदा सत्ता के पक्ष खड़े लेखकों की एक साथ मौजूदगी के क्या संकेत हैं?
3. क्या साहित्य की जमीन पर विचार की प्रतिबद्धता पीछे छूट गई है?
4. अशोक वाजपेयी के आयोजन का विरोध और इस आयोजन में भागीदारी, आखिर इसमें पॉलिटिक्स क्या है?
5. क्या एक ही परिवार की विभिन्न कंपनियों और संस्थाओं की निजी यूनिवर्सिटीज के पैसे को एक साथ पूल किया जाना और उससे आयोजन करना साहित्य में कॉर्पोरेट पूंजी की घुसपैठ का एक और रास्ता नहीं है?