- Home
- /
- जनज्वार विशेष
- /
- EXclusive : आपकी शादी...
EXclusive : आपकी शादी से लेकर ससुराल जाने तक पर निगरानी रखने का अधिकार चाहती है मोदी सरकार
भारत के 1.2 बिलियन नागरिकों के जीवन के प्रत्येक पहलू को पकड़ने के लिए मोदी सरकार ऑटो अपडेटिंग, सर्चेबल डेटाबेस को बनाने के आखिरी चरण में है। अगर मोदी के अफसरों और परामर्शदाताओं की कल्पना को धरातल पर उतारा जाय, तो ये रजिस्ट्री नागरिकों की प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखेगी...
कुमार संभव श्रीवास्तव की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
जनज्वार। भारतीय मीडिया का मानना है कि 5 साल से बन रही राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री देश के नागरिकों को संकट में डालने वाला नहीं है। इसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना 2011 की अपडेटिंग करना है। इस अपडेटिंग के जरिए गरीबों तक पहुंचने वाली सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा। राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री की अपडेटिंग एक सामान्य सरकारी काम ही है, यह इस बात से और पुष्ट हो जाता है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय इस काम को देख रहा है।
स्वतंत्र रूप से काम कर रहे डेटा एवं इंटरनेट प्रशासन संबधी शोधकर्ता श्रीनिवास कोडाली और इस संवाददाता ने सूचना के अधिकार के तहत जो दस्तावेज हासिल किए और जिनकी हफिंगटनपोस्ट इंडिया ने समीक्षा की, वे इसके विपरीत ही कहानी बयां करते हैं- कहा तो ये गया कि सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना एक ऐसी गतिशील व्यवस्था है जो अपने को पुनर्सूचित करती रहती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री या तो पता लगाए जा सकने वाले आधार समाहित डेटाबेस होगी या फिर 'मल्टीपल हार्मोनाइज्ड एंड इंटीग्रेटेड डेटाबेस' होगी जो आधार नंबरों का इस्तेमाल प्रत्येक नागरिक के धर्म, जाति, आय, संपत्ति, शिक्षा, विवाहित स्तर, रोजगार, उसकी विकलांगता और उसके पारिवारिक वृक्ष की जानकारी इकट्ठा करने का काम करेगी।
ये दस्तावेज स्पष्ट रूप से बताते हैं कि राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री केवल उन गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के डेटा को शामिल करने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि प्रत्येक नागरिक के डेटा को भी शामिल करेगी।
1948 के भारतीय जनसंख्या सर्वेक्षण कानून, जो लोगों की जानकारी को गुप्त रखने का आदेश देता है, से संचालित भारतीय जनसंख्या सर्वेक्षण के विपरीत सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना में जानकारी की सुरक्षा का ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है।
अगर मोदी के अफसरों और परामर्शदाताओं की कल्पना को धरातल पर उतारा जाय, तो ये रजिस्ट्री नागरिकों की प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखेगी। यानि कोई भी नागरिक एक शहर से दूसरे शहर कब जा रहा है, या कब नौकरी बदल रहा है, कब नई संपत्ति खरीद रहा है, उसके परिवार में नये सदस्य का जन्म कब हो रहा है, कब किसी व्यक्ति की मौत हो रही है और कब कौन अपने शादीशुदा साथी के घर जा रहा है। आधुनिक डेटाबेस व्यवस्थाओं की परस्पर सक्रियता का मतलब है कि जानकारी इकट्ठा करने और मास्टर डेटाबेस में उसे अनुक्रमित करने की कोई तकनीकी सीमा नहीं है। उदाहरण के लिए, 4 अक्टूबर 2017 की बैठक में नीति आयोग के विशेष सचिव ने तो यह तक सुझाव दे डाला कि प्रत्येक घर की 'जिओ टैगिंग' की जाय और उसे भुवन नाम के इसरो द्वारा विकसित किए गए एक वेब आधारित पोर्टल से जोड़ दिया जाए।
फिर भी ये रजिस्ट्री न पूरा किया जा सकने वाला स्वप्न नहीं है।
फाइल में की गई नोटिंग्स, बैठकों में चली कार्रवाई के लिखित नोट और अंतर्विभागीय सूचनाओं के आदान-प्रदान की समीक्षा 'हफिंगटनपोस्ट इंडिया' द्वारा करने पर यह बात सामने आयी कि इस डेटाबेस को तैयार करने के लिए सरकार ने ठोस कदम उठाए हैं।
2021 तक राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री को लागू करने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन भी कर लिया गया है। यह समिति इसको सही तरीके से लागू करने के लिए एक 'पायलट प्रोजेक्ट' की योजना को अंतिम रूप देने की ओर अग्रसर है।
राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री हो गयी लागू तो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय हो जायेगा निरर्थक
इस समिति ने आधार कानून में संशोधन लाने का प्रस्ताव दिया है. ताकि सरकार सुप्रीम कोर्ट के 2018 के उस निर्णय का बिना उल्लंघन किए इस सूचना को हासिल कर सके जिस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने आधार के डेटा के बेजा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी और व्यक्ति की निजता को एक मौलिक अधिकार के रूप में व्याख्यायित किया था। 4 अक्टूबर की बैठक का लेखा-जोखा दर्शाता है कि इसके जवाब में यूआईएडीआई ने आधार के नियमों को बदलने का फैसला किया है। अगर यह फैसला लागू किया जाता है तो किए जाने वाले बदलाव 2018 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को निरर्थक बना देंगे, क्योंकि वे निजता को लेकर मूल आधार कानून में किए गए प्रावधानों को हटा देंगे।
यूआईडीएआई ने डेटा के हस्तांतरण ढांचे के बारे में चर्चा भी की है ताकि केंद्र और राज्य के स्तर पर स्थित अनेक मंत्रालयों और विभागों के बीच डेटा का आदान-प्रदान किया जा सके। 17 जून 2019 की फाइल नोटिंग के अनुसार विश्व बैंक ने इस दिशा में सहयोग करने का आश्वासन दिया और बैंक के 'Non Lending Technical Assistance Programme' के तहत 2 मिलियन डॉलर की शुरुआती मदद देना भी स्वीकार किया है।
सामने आयी ये जानकारी एक ऐसे समय में ज्यादा अहम हो जाती हैं जब भारत के गृहमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के अमित शाह खुले शब्दों में एनआरसी बनाने की बात करते हैं, ताकि उन तथाकथित विदेशी घुसपैठियों की छंटनी की जा सके, जिनके बारे शाह का ये मानना है कि वे दीमक की तरह भारत को खोखला कर रहे हैं। हालांकि अपने इस दावे का समर्थन करने के लिए शाह ने कभी भी कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराया है।
file photo
मनमाने तरीके से लोगों को नागरिक या गैर-नागरिक घोषित करना होगा आसान
निजता के बारे में जानकारी रखने वालों ने चेतावनी दी है कि अगर रजिस्ट्री वर्तमान रूप में लागू की गई तो सरकार के लिए यह काम बहुत आसान हो जाएगा कि वह इन आंकड़ों की जांच-परख कर मनमाने तरीके से लोगों को नागरिक या गैर-नागरिक घोषित कर दे। हफिंगटनपोस्ट ने इससे पहले भी रिपोर्टों में बताया है कि किस तरह से इन जानकारियों का इस्तेमाल कर 2018 में हुए तेलंगाना और राजस्थान के चुनावों में लाखों लोगों को वोट देने से वंचित कर दिया गया था।
एक दशक के दौरान सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के गरीबों को सरकारी योजनाओं का फायदा पहुंचाने के लिए किए जाने वाले सर्वेक्षण से ऑरवेल के उपन्यास में दिखाए गए आम जनता पर निगरानी रखने के एक तंत्र में परिवर्तित कर दिए जाने से कई सबक सामने आते हैं।
येल लॉ स्कूल में इनफोर्मेशन सोसायटी प्रोजेक्ट के फेलो चिन्मयी अरुण के शब्दों में, 'इस तरह की अनियंत्रित निगरानी रखने वाली व्यवस्था लोगों की स्वतंत्रता के लिए एक ऐसा खतरा है जो कभी देखा नहीं गया।' गौरतलब है कि अरुण ने 2010 और 2018 के बीच भारत में कानून की शिक्षा प्रदान की थी।
अरुण कहते हैं, 'सरकारी निगरानी के खिलाफ सुरक्षा के प्रावधान भारत में हमेशा से ही कमजोर रहे हैं। लेकिन इस तरह की ओरवेलियन निगरानी व्यवस्था नागरिकों और सरकार के बीच के शक्ति-संतुलन को पूरी तरह से पलट देगी। यह कहना जायज होगा कि अगर सरकार हमारी निजी जिंदगी में पूरी तरह से घुस जाएगी तो भारत के लोकतंत्र को पहचानना मुश्किल हो जाएगा।'
सन 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने 1931 के बाद पहली बार भारत की जातिगत आधारित जनगणना की थी। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना 2011 एक जनगणना थी ना कि एक सर्वेक्षण। इसका मतलब है कि सरकार ने प्रत्येक भारतीय नागरिक के जातिगत, आय संबंधी और सामाजिक घटक आधारित जानकारी इकट्ठा करने का प्रयास किया था।
प्रोजेक्ट ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा संचालित किया गया था, लेकिन इसे सरकार की तीन अलग-अलग एजेंसियों के द्वारा चलाया गया था: ग्रामीण भारत को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने संभाला, शहरी जनगणना का काम आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय द्वारा किया गया और राजनीतिक रुप से अति संवेदनशील जाति की जनगणना गृहमंत्रालय के द्वारा की गई।
3 जुलाई 2015 को भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की सरकार ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (SECC) के द्वारा इकट्ठा किए गए सामाजिक आर्थिक आंकड़ों को प्रकाशित किया, लेकिन राजनीतिक रुप से संवेदनशील जाति संबंधी आंकड़ों को छिपा लिया।
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना ने भारतीय राज्य द्वारा गरीबी और पात्रता के सवाल को समझने के तरीके में एक बड़ा बदलाव किया। दशकों तक भारतीय नीति निर्माताओं ने गरीबों को उन परिवारों के रुप में परिभाषित किया, जिनकी वार्षिक आय सरकार द्वारा तय की गई 'गरीबी रेखा' से नीचे थी।
file photo
जाति जनगणना ने भारतीयों की वित्तीय जटिलता की तस्वीर को किया और अधिक उजागर
सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना ने भारतीय नागरिकों के जीवन की वित्तीय जटिलता की तस्वीर को और अधिक उजागर किया और सरकारी सहायता योजनाओं की प्रकृति पर तेजी से ध्यान केंद्रित किया।
राज्य और केंद्र सरकारें अब उन योजनाओं को चालू कर रही थीं, जो परिवार की वार्षिक आय के अलावा अन्य संकेतकों (इंडिकेटर्स) को देखती थीं-जैसे स्कूल में छात्राओं को छात्रवृत्ति के लिए चिन्हित करना, छोटे व्यवसाय शुरु करने के लिए ऋण देना आदि।
सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बिरेंद्र सिंह ने कहा, यह गरीबी की बहुआयामिता को संबोधित करता है और एक ईकाई के रुप में ग्राम पंचायत के साथ साक्ष्य आधारित योजना बनाने के लिए एक अनूठा अवसर प्रदान करता है।
'हफिंगटनपोस्ट इंडिया' द्वारा नवंबर 2015 की एक फाइल नोटिंग की समीक्षा की गई। जिसके मुताबिक 13 अक्टूबर 2015 को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 'सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों से 'अधिक लाभ' सुनिश्चित करने के लिए एक सामाजिक रजिस्ट्री प्रणाली के प्रस्ताव को संसद की स्थायी समिति (पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमिटी) के समक्ष रखा था।
27 नवंबर 2015 को ग्रामीण विकास मंत्रालय के तत्कालीन आर्थिक सलाहकार मनोरंजन कुमार ने एक विस्तृत नोट तैयार किया जो सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों को निरंतर रजिस्ट्री की अपडेटिंग के लिए महत्वकांक्षी परियोजना का काम करेगा।
मनोरंजन कुमार ने अपने नोट में लिखा, 'प्रभावी सामाजिक रजिस्ट्री के लिए सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना की लगातार अपडेटिंग की आवश्कता होगी जिससे यह गतिशील सामाजिक रजिस्ट्री बन सके।'
कुमार के जूनियर ध्रुव कुमार सिंह ने सुझाव दिया, 'इस प्रणाली को ऑटोमैटिकली अपडेट होना चाहिए। प्रस्तावित प्रणाली भविष्य में ऑटो अपडेशन के अधीन है क्योंकि किसी भी तरह का समर्थन हासिल करने के बाद लाभान्वित होने वालों की व्यक्तिगत जानकारियां बदल जाएंगी।
इस तरह से सरकार को यह पता चल जाएगा कि भुखमरी के कगार पर रहने वाला कोई परिवार अचानक सहायता के योग्य बन जाता है या फिर इसके विपरीत सरकार द्वारा पहुंचायी गई सहायता से उस परिवार की वित्तीय हालत बेहतर हो जाने की दशा में वह सरकारी सहायता का पात्र नहीं रह जाता है।
इसके अलावा परिवार लगातार गांव से शहर और शहर से गांव आ जा रहे थे, जिसका मतलब है कि शहरी ग्रामीण परिवारों में अंतर करना बहुत मुश्किल होता जा रहा था।
इसके हल के रुप में कुमार ने एक केंद्रीकृत डेटाबेस या रजिस्ट्री बनाने का सुझाव दिया। ये डेटाबेस आधार से जुड़े आदान-प्रदान की गतिविधियों पर निर्भर था और इसके माध्यम से प्रत्येक नागरिक के बारे में बहुत सारी जानकारियां इकट्ठी की जा सकती थीं।
कुमार ने लिखा, 'अगर वाकई देश को गैर-विषम तरीके से गरीबी की समस्या से निपटना है तो ग्रामीण विकास मंत्रालय को एक बहुत बड़े डेटाबेस प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना चाहिए।' कुमार के अनुसार चूंकि पूर्व में सरकारी विभागों ने योजनाओं से फायदा पहुंचने वालों की सूची बनायी थी इसलिए सामाजिक रजिस्ट्री 'भावी फायदा पहुंचने वालों' के आंकड़ों पर कब्जा कर पाएगी और चूंकि भारत में हर किसी ने कभी न कभी किसी न किसी सरकारी योजना का फायदा उठाया होता है इसलिए यह व्यवस्था हर किसी के व्यक्तिगत डेटा पर कब्जा जमा लेगी।
मनोरंजन कुमार के नोट से एक पांच साल की लंबी प्रक्रिया शुरु हो गयी जो अभी भी चालू है। इन पांच वर्षों में विभिन्न विभागों, मंत्रालयों, थिंक टैंक और नीति आयोग जैसी एजेंसियों, यूआईडीएआई और विश्व बैंक ने अपने-अपने सुझाव पेश किए हैं।
डायनेमिक डाटाबेस से नागरिकों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों पर लगातार निगाह बनायी रखना होगा आसान
सैद्धांतिक रूप से यह एक महान विचार दिखाई देता है कि एक डायनेमिक डेटाबेस हर उस किसी को मदद करता है जिसे सरकारी सहायता की आवश्यकता होती है। लेकिन व्यवहारिक रुप से इसे हासिल करने का एक ही तरीका है कि हर नागरिक की आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों पर लगातार निगाह बनायी रखी जाए। लेकिन ये एक ऐसा विचार है जिसे लोगों का हित ध्यान में रखने वाले शुरुआती दौर के जानकारों ने कभी सोचा भी नहीं था।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने साल 2016 में पूर्व वित्त सचिव सुमित बोस के नेतृत्व में सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना का इस्तेमाल कर विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान करने के लिए विशेषज्ञों का एक समूह बनाया। इस समूह ने नवंबर 2016 में एक डायनेमिक डेटाबेस के विचार की संस्तुति करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
फिर भी समूह के कुछ सदस्यों ने कहा कि सामाजिक रजिस्ट्री जिस रुप में आज दिखाई दे रही है उसके इस रुप को उन्होंने कभी समर्थन नहीं दिया था।
दिल्ली के जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हिमांशु उस समिति का हिस्सा थे, जिन्होंने 2016 में सामाजिक रजिस्ट्री की सिफारिश की थी। हिमांशु कहते हैं कि आधार की सीडिंग के जरिए पूरी आबादी की ऐसी प्रोफाइलिंग की हमने कभी सिफारिश नहीं की थी।
हिमांशु ने हफिंगटनपोस्ट इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा, हमारा सुझाव सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का उपयोग करके सभी सब्सिडी और कल्याणकारी योजनाओं के लिए सभी पात्र परिवारों के लिए एक कॉमन रजिस्टर बनाना था जिसे लगातार अपडेट किया जा सके। ताकि सरकारी योजनाए एक-दूसरे से परस्पर जुड़ सके। लेकिन सरकार पलटकर हमारे पास नहीं आई।
2016 में सरकार ने अपने सुझावों में नीति आयोग को भी शामिल कर लिया।
13 मई 2016 को एक वरिष्ठ सांख्यिकी अधिकारी एस सी झा द्वारा लिखित नोट के मुताबिक नीति आयोग ने कहा कि 'अतिरिक्त लाभ' के लिए इनफोर्मेशन सिस्टम में 'फैमिली ट्री का कंसेप्ट' जोड़ा जाना चाहिए।
नीति आयोग ने कहा कि सामाजिक रजिस्ट्री का हर समय महत्वपूर्ण बने रहने के लिए और विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों में उपयोगी रहने के लिए इसे जन्म, मृत्यु और विवाह रजिस्टर्स से जोड़ा जाना जरुरी है ताकि पलायन से हुए बदलावों को अंकित किया जा सके। ग्रामीण विकास मंत्रालय के निदेशक ध्रुव कुमार सिंह का 20 मई 2016 का नोट बताता है कि मंत्रालय इस सुझाव को 'शामिल' करने पर सहमत हो गया।
इस बीच सरकार और विश्व बैंक के भारत स्थित कार्यालय के बीच लेन-देन और बातचीत का दौर जारी रहा, लेकिन मार्च 2017 आते-आते विश्व बैंक द्वारा दिए गए सुझावों से ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारी अप्रभावित दिखाई दिए।
15 मार्च 2017 को ग्रामीण विकास मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार मनोरंजन कुमार ने लिखा, भारत के अनेक राज्यों ने जो प्रस्ताव दिए हैं उसकी तुलना में विश्व बैंक द्वारा दिए गए सभी विकल्प कमजोर हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि मंत्रालय को अमेरिका का सामाजिक सुरक्षा सिस्टम देखना चाहिए। जो न केवल किसी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति की निगरानी करने में मदद करता है बल्कि सरकारी कार्यक्रम में किसी व्यक्ति की भागीदारी का भी पता लगाता है।
जून 2017 में मंत्रालय ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना 2011 के डेटा की व्यवहार्यता की जांच करने और सामाजिक रजिस्ट्री के प्रबंधन के लिए संस्थागत ढांचे का सुझाव देने के लिए एक अंतर्मंत्रालय विशेषज्ञ समिति का गठन किया।
इस समिति में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई), विश्व बैंक, राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र, आवास और शहरी विकास मंत्रालय, डिजिटल वित्तीय समावेश केंद्र और प्रत्यक्ष लाभ स्थानांतरण मिशन के सदस्य शामिल थे।
फाइल नोटिंग से यह पता लगता है कि जून 2017 से अक्टूबर 2019 के बीच इस समिति ने चार बार बैठकें की।
हफिंगटनपोस्ट की ओर से बार-बार याद दिलाने के बावजूद ग्रामीण विकास मंत्रालय, यूआईडीएआई और केंद्रीय गृहमंत्रालय के अंतर्गत आने वाले भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने कोई जवाब नहीं दिया।
विश्व बैंक ने ई-मेल के जवाब में पुष्टि की कि वह सामाजिक रजिस्ट्री को लेकर ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ बातचीत में संलग्न था। इस बातचीत के दौरान कर्ज देने की कोई बात नहीं हुई और जानकारियों का सीमित आदान-प्रदान ही हुआ। निगरानी और निजता के उल्लंघन के सवाल पर विश्व बैंक ने कहा, 'निजता का उल्लंघन और दुरुपयोग/निगरानी केंद्र, राज्य सरकारों और विश्व बैंक के लिए अत्यंत चिंता का विषय हैं। तकनीकी सहायता के हिस्से के रुप में विश्व बैंक ने कई उदाहरणों और विभिन्न देशों के नजरियों को साझा किया जो ये दिखाते थे कि डेटा की निजता, सुरक्षा और आदान-प्रदान कितना महत्वपूर्ण हैं। लेकिन बैंक ने सरकार को जो कुछ बताया उसे हफिंगटन पोस्ट के साथ यह कहते हुए साझा करने से इनकार कर दिया कि उनकी बातचीत अभी जारी है।
5 मार्च 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना को अपडेट करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए। सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना की खास बातों और सुरक्षा उपायों को साफ-साफ पेश करना अभी बाकि था लेकिन एक बात साफ थी कि अब सवाल यह था कि रजिस्ट्री कब बनेगी बजाय इसके कि रजिस्ट्री बनेगी भी या नहीं।
आधार इफेक्ट
अगर आधार नहीं होता तो सामाजिक रजिस्ट्री की शुरुआत भी नहीं होती। लेकिन एकमात्र पहचान के रुप में आधार की उपस्थिति ने अनेक तरह के डेटाबेस को एक रजिस्ट्री में शामिल करना संभव कर दिया है।
उदाहरण के लिए दो अलग-अलग सूचीयों (पैन नंबर और फोन नंबर) को लीजिए जो आधार नंबर से जोड़ी गई हैं। अब आधार को सामान्य पहचानकर्ता के रुप में इस्तेमाल करके पैन नंबर और फोन नंबर को मिलाकर एकीकृत डेटाबेस तैयार करना आसान हो गया है।
लेकिन इसमें एक रूकावट थी...
गोपनीयता विशेषज्ञों ने भारत की सुप्रीम कोर्ट में कई याचिका दायर की थीं जिनमें ऐसे परिदृश्य के बारे चेतावनी दी गई थी जिसमें एयरपोर्ट बोर्डिंग सिस्टम से लेकर वोटर आईडी, बैंक खाते खोलने, मोबाइल कनेक्शन खरीदने, विवाह पंजीकरण तक हर चीज के लिए आधार अनिवार्य किया जाना भारत सरकार के हाथ में ऐसी ताकत दे देना है कि जिसका इस्तेमाल कर वह सामाजिक रजिस्ट्री प्रणाली से मिलता जुलता निगरानी संबंधी डेटाबेस तैयार कर ले।
गोपनीयता विशेषज्ञ सही थे, जैसा कि पहले भी बताया गया है यूआईडीएआई जून 2017 तक सामाजिक रजिस्ट्री प्रणाली को तैयार करने के लिए बनाए गए अंतर्मंत्रालय पैनल का एक हिस्सा था।
लेकिन जुलाई 2017 में यूआईडीएआई ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया जिसमें इसके विरोध में दावा पेश किया गया था।
प्राधिकरण ने जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर कहा था कि यूआईडीएआई की तकनीक संबंधी जो बनावट है वह इन संभावनाओं को नामुमकिन बनाती है कि लोगों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए उनकी व्यक्तिगत जानकारी का खाका बनाया जा सके। प्राधिकरण ने कहा कि न तो वो कभी ऐसा चाहेगी या न ही उसके लिए ऐसा कभी संभव हो पाएगा कि वह अपने उपभोक्ताओं या लाभार्थियों के बारे में 360 डिग्री का नजरिया रख सके।
आधार केस में वादी प्रशासन एवं सूचना विशेषज्ञ अनुपम शराफ का कहना था कि आधार केस में जो सबसे बड़ी गलती सुप्रीम कोर्ट ने की थी वो थी अपनी बात को इस बिंदु पर केंद्रित करना कि यूआईडीएआई आधार के साथ क्या छेड़छाड़ कर सकता है और क्या नहीं। उसने इस बात को पूरी तरीके से उपेक्षित छोड़ दिया कि आधार के साथ सरकार क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती। सरकार के विचार उस प्रस्तुतिकरण से नहीं आंके जा सकते जो यूआईडीएआई के तत्कालीन सीईओ अजय भूषण पांडे ने कोर्ट के सामने रखा था और कोर्ट ने जिसपर भरोसा किया था। यूआईडीएआई यह कहने में सही हो सकता है कि वो नागरिकों का 360 डिग्री ब्यौरा नहीं बनाएगा, लेकिन इससे ये नहीं समझा जा सकता कि दूसरी सरकारी एजेंसियां ऐसा नहीं करेंगी।
file photo
शराफ ने आगे कहा, 'हमने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बात रखी थी कि आधार का इस्तेमाल बदनीयती और धोखाधड़ी की आड़ में बड़े पैमाने पर किया जा सकता है जैसे चुनाव में हेरफेर, मनी लॉन्ड्रिंग, भारत में समेकित निधि से सब्सिडी देना, पहचान धोखाधड़ी का प्रचार करना इत्यादि।' लोगों के जीवन का ब्यौरा इकट्ठा करना इस दुरुपयोग का एक हिस्सा है। इस तरह 32 याचिकाएं दायर की गईं थीं और उनमें से अनेक में हमारे द्वारा यूआईडीएआई को एक पक्ष भी नहीं बनाया गया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी याचिकाओं को यूआईडीएआई के खिलाफ एक याचिका में तब्दील कर दिया और केस का फैसला यूआईडीएआई के इस वक्तव्य पर दे दिया कि वह क्या कर सकती है और क्या नहीं। इन सभी 32 केसों में दोबारा सुनवाई होनी चाहिए।'
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना अंतिम निर्णय दिया। जिसमें आधार के इस्तेमाल को उन्हीं सरकारी योजनाओं तक सीमित कर दिया जिसके तहत गरीबों को सब्सिडी दी जाती थी।
दस्तावेजों में यह बात सामने आयी कि अगले साल अप्रैल 2019 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक 'निगरानी रखने वाले समूह' का गठन किया जिसका काम ऐसे 'पायलट अभ्यास' को ईजाद करना था, जिसके माध्यम से सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों को अपडेट किया जा सके और सभी कार्यक्रमों में समान पहचानकर्ता के रुप में आधार के वैकल्पिक इस्तेमाल की तलाश की जा सके।
बाद में इसके बदले यह तय किया गया कि आधार कानून को ही बदल दिया जाए। जून 2019 को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया जिसमें आधार की वैधता को संचालित करने वाले नियमों और आधार डेटा को साझा करने के लिए जरुरी बदलावों के बारे में ब्यौरा दिया गया था।
4 अक्टूबर 2019 को संपन्न हुई अंतर्मंत्रालय विशेषज्ञ समिति की चौथी बैठक में यूआईडीएआई ने यह बताया कि वह आधार (वैधता) नियम 2016 और आधार (सूचना का साझाकरण) नियम 2016 में लाए जाने वाले संशोधनों पर काम कर रही है।
न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट बल्कि आधार भी हो जायेगा इन नियमों से कमजोर
अगर लागू किए गए तो ये बदलाव सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरर्थक बना देंगे और यहां तक की आधार के मौलिक नियमों को भी कमजोर कर देंगे। वर्तमान नियमों में सुरक्षा संबंधी एक प्रमुख नियम कहता है कि आधार द्वारा किए गए व्यावसायिक लेनदेन में किसी व्यक्ति से प्राप्त जानकारी एक खास उद्देश्य के लिए ही इस्तेमाल की जा सकती है और ये उद्देश्य वही होना चाहिए जिसके लिए सूचना मांगी गई है। ये सूचना किसी अन्य के साथ साझा नहीं की जा सकती।
दूसरे तरह की सुरक्षाएं आधार द्वारा वैध करार दिए गए 'लॉग्स' को साझा करने के बारे में है। इन लॉग्स में वैधता प्रदान किए जाने का स्थान और समय की जानकारी दी होती है। इसके अलावा आधार कार्ड मालिक के निवास संबंधी और बायोमैट्रिक जानकारी भी इनमें होती है। वर्तमान में ये नियम वैधता प्रदान करने वाली एजेंसी पर इस बात की रोक लगाते हैं कि वो एक खास आधार नंबर के मालिक के अलावा इन 'वैध लॉग्स' को किसी के साथ साझा न करें।
लेकिन सामाजिक रजिस्ट्री इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी भी नागरिक की व्यक्तिगत सूचना, खासकर आधार संबंधी सूचनाएं जो किसी भी सरकारी विभाग के साथ साझा की गई हैं उनको एक ऐसे एकीकृत डेटाबेस में शामिल किया जा सकता है, जहां किसी तीसरी सरकारी एजेंसी की पहुंच संभव हो सके। अक्टूबर 2019 की बैठक में अधिकारियों ने यह शिकायत की कि सुरक्षा संबधी ये कदम सामाजिक रजिस्ट्री बनाने की दिशा में काफी कठिनाईयां पेश करेंगे।
ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा पेश किए गए सुझावों में एक यह था कि अगर कोई उपभोक्ता किसी एक सरकारी एजेंसी के साथ अपना डेटा साझा करने की इजाजत दे देता है तो ये माना जाएगा कि उसने सभी सरकारी एजेंसियों के साथ अपना डेटा साझा करने की अनुमति दे दी है।
अक्टूबर 2019 की बैठक के विवरण के अनुसार यूआईडीएआई ने कहा 'सभी संशोधन विचाराधीन हैं।'
आधार केस में जिरह करने वाले निजता के जानकार एक वकील प्रसन्ना एस का कहना था, 'बिना किसी निश्चित और कानूनी उद्देश्य के खुल्लम-खुल्ला सहमति देने का मतलब होगा सरकार की किसी भी ऐसी कार्रवाई के संदर्भ में पुट्टास्वामी टेस्ट का असफल होना जो कार्रवाई निजता के अधिकार पर रोक लगाना चाहती हो।
पुट्टास्वामी टेस्ट के बारे में विस्तार से बताते हुए प्रसन्ना एस ने कहा, 'यह टेस्ट आदेश देता है कि- 1. सरकारी कार्रवाई कानून के तहत ही होगी यानि बनाए गए कानून के आधार पर। 2. कार्रवाई करने के पीछे उद्देश्य वैध होना चाहिए। 3. जिस उद्देश्य को कानूनी रुप से हासिल करने के लिए इस तरह की सरकारी कार्रवाई की जाती है उसका उस उद्देश्य से तार्किक संबंध होना चाहिए। 4. उस उद्देश्य को हासिल करने के लिए इस तरह की सरकारी कार्रवाई जरुरी मानी जाए और 5. सरकारी कार्रवाई अपने आप में अनुपातिक होनी चाहिए यानि इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए उपलब्ध सभी उपायों को कम से कम इस्तेमाल किया जाए।
प्रसन्ना आगे कहते हैं, 'जब पुट्टास्वामी टेस्ट कहता है कि कार्रवाई कानून प्रदत्त उद्देश्य के लिए होनी चाहिए तो यह मानकर चलता है कि ऐसा उद्देश्य अपने आप में अकेला और तयशुदा है। किसी एक उद्देश्य के लिए डेटा को इकट्ठा करना और बिना सहमति के किसी दूसरे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना गलत है। वहीं डेटा साझा के सामान्य उद्देश्य के लिए सहमति हासिल करना भी ठीक नहीं है।'
(कुमार संभव श्रीवास्तव की यह यह रिपोर्ट अंग्रेजी में huffingtonpost.in में प्रकाशित। यह रिपोर्ट की पहली किश्त है।)