मोदी सरकार का श्रम कानून मजदूरों को रोटी-रोजगार से ले जाएगा कोसों दूर
सरलीकरण की आड़ में भाजपा सरकार ने देश के हर एक मेहनतकश नागरिक के अधिकारों पर प्रहार किया है चाहे वे कमाई कि उच्च श्रेणी में आते हों या निम्न श्रेणी में, चाहे वे ग्रामीण क्षेत्र के छोटे से पट्टे पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर हों या शहरी क्षेत्र के आधुनिक कारख़ानों व कंपनियों के श्रमिक...
गौतम मोदी, मजदूर नेता
भाजपा सरकार ने लोक सभा में दो विधेयक पेश किये हैं – मजदूरी संहिता 2019 एवं उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता, 2019। मजदूरी संहिता निवर्तमान 4 श्रम क़ानूनों – न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, मजदूरी संदाय अधिनियम, बोनस संदाय अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम को समेकित और संशोधित करने की ओर लक्षित है।
वहीं सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता का उद्देश्य 13 निवर्तमान अधिनियम जिसमें कारख़ाना अधिनियम, ठेका श्रम अधिनियम, अंतर-राज्यिक प्रवासी कर्मकार अधिनियम और बीड़ी, सिनेमा कर्मकार, भवन एवं सन्निर्माण मजदूर, मोटर परिवहन कर्मकार, विक्रय संवर्धन कर्मचारी, डॉक कर्मकार व श्रमजीवी पत्रकार आदि शामिल हैं का सरलीकरण एवं संशोधन करना है।
सरलीकरण की आड़ में भाजपा सरकार ने देश के हर एक मेहनतकश नागरिक के अधिकारों पर प्रहार किया है चाहे वे कमाई कि उच्च श्रेणी में आते हों या निम्न श्रेणी में, चाहे वे ग्रामीण क्षेत्र के छोटे से पट्टे पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर हों या शहरी क्षेत्र के आधुनिक कारख़ानों व कंपनियों के श्रमिक। भाजपा सरकार ने इस बार पूरे मज़दूर वर्ग के अधिकारों पर हमला बोल दिया है।
दोनों विधेयकों के उद्देश्य व कारण दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफ़ारिशों पर आश्रित हैं जिसने अपनी रपट सरकार को 2002 में सौंपीं थीं। ज्ञात हो कि उस समय भी सभी ट्रेड यूनियन संगठनों ने एक स्वर में इन सिफ़ारिशों का विरोध किया था। सरकार की भाषा देखें तो ऐसा लगता है जैसे वह इन सिफ़ारिशों को मानने को बाध्य हो!
इन विधेयकों का भाजपा का अपना विवरण ही इस बात का साक्ष्य है कि ये विधेयक मालिकों के पक्षधर हैं। विधेयक भाजपा की मंशा प्रदर्शित करता है कि ‘श्रम विधियों की अनुपालना को सुगम बनाने की सुकरता से और अधिक उपक्रमों की स्थापना में अभिवृद्धि होगी और इस प्रकार इससे नियोजन अवसरों का सृजन उत्प्रेरित होगा।’
गए 5 सालों में जैसे-जैसे देश व्यापार करने की सुगमता सूचकांक (इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स) में बढ़ा है वैसे ही बेरोज़गारी भी पिछले 45 सालों के अपने चरम पर पहुंची है।
विधेयक का यह भी पूर्वाग्रह है कि ‘प्रवर्तन में प्रौद्योगिकी का उपयोग’ इसकी[क़ानूनों की] अवमानना में घटोतरी करेगा। असल में प्रौद्योगिकी का यह इस्तेमाल निरीक्षण प्रणाली को पूरी तरह से नष्ट करने पर केन्द्रित है। विधेयक के पारित होने पर निरीक्षण किसी की सूचना या शिकायत दर्ज कराने पर नहीं वरन कंप्यूटर द्वारा ‘अक्रमतः’ रूप से चयनित कार्यस्थलों पर किए जायेंगे, इनमें से कुछ तो मात्र कंप्यूटर या फ़ोन पर ही कर लिए जाया करेंगे।
मालिकों को निरीक्षण होने की सूचना भी पहले से मिल जाएगी। साथ ही मालिकों पर निरीक्षकों को निरीक्षण में मदद करने या साथ देने की भी बाध्यता भी ख़त्म कर दी गयी है। विधेयक के अंतर्गत नव-नियुक्त ‘निरीक्षक-सह-सुकरकर्ता’ का काम है मालिकों को श्रम कानूनों का अनुपालन करने में सहायता प्रदान करना, इनके पास मालिकों द्वारा श्रम कानूनों की अवमानना को माफ़ करने के भी अधिकार होंगे। ‘प्रौद्योगिकी’ के अलावा इस विधेयक में कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने और इसके सुचारु प्रवर्तन के लिए और कोई प्रावधान नहीं हैं।
पिछले 25 सालों में श्रम क़ानूनों के अनुपालन की विफलता ने ही मज़दूर अधिकारों के हनन को खुली छूट देने का काम किया है। ट्रेड यूनियन संगठन लम्बे समय से मांग करते रहे हैं कि न्यूनतम वेतन और ऐसे अन्य मौलिक अधिकारों का हनन करने पर मालिकों को कठोर सज़ा हो और इन्हें परिज्ञेय अपराध की श्रेणी में शामिल किया जाये। इन मांगों का संज्ञान लेने और इन पर काम करने के बजाय सरकार ने मौजूदा विधेयक में वे सारे प्रावधान भी ख़त्म कर दिए हैं जिन से मालिकों पर अंकुश लगता था जैसे कि अनुपालन न करने पर संपत्ति जब्त होना।
सरकार दोहराती रही है कि श्रम संहिताओं को लागू करने के पीछे उसकी मंशा है मौजूदा क़ानूनों में निहित ‘परिभाषाओं और अधिकारों में अतिव्याप्त दोहरेपन’ को ख़त्म कर उसे ‘सरल व तर्कसंगत’ बनाना। दोनों ही विधेयक इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते – सच्चाई यह है कि अब ‘कर्मकार’ और ‘कर्मचारी’ की परिभाषा ही एक दूसरे पर अतिव्याप्त है। साथ ही एक नए प्राधिकरण के गठन की भी बात कही गयी है जो समझौते की प्रक्रिया और न्यायालय के बीच खड़ी की जाएगी। इस नए प्राधिकरण के परिणामस्वरूप मज़दूरों का न्याय के लिए इंतज़ार और लम्बा हो जायेगा।
दोनों ही विधेयकों में साफ़ तौर पर ठेकेदारों की जिम्मेदारी को अंतिम बताया गया है। यह एक बड़ा बदलाव है। इससे मूल नियोक्ता को मजदूरी या बोनस के संदान की अपनी जिम्मेदारी से बच निकलने का मौका मिल जायेगा, यहाँ तक कि कार्यस्थल पर दुर्घटना या मृत्यु होने पर भी ठेका मजदूरों के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनेगी, न ही कोई अपराधिक मामला चलाया जा सकेगा।
ठेके पर दिए जाने वाले काम के लिए एक समान संयुक्त लाइसेंस लाने की भी बात है, जिससे शाश्वत और अशाश्वत (पेरेनिअल एवं नॉन-पेरेनिअल) काम का अंतर पहचान पाना असंभव हो जायेगा। यह ठेका मजदूरी अधिनियम के एक अहम् पहलू पर सीधा वार है। मालिक निरंकुश हो शाश्वत एवं मौलिक काम अस्थायी व ठेका श्रमिक से करवा सकेंगे।
ये दोनों विधेयक एवं अन्य कई विधेयकों को पारित करने की भाजपा सरकार की कोशिश यह साफ़ दर्शाती है कि कैसे सरकार लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी संसद में बहुमत का दुरूपयोग कर जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रख मनमानी कर सकती है। भाजपा सरकार संसदीय माध्यम से प्रशासन व प्रशासकीय शक्तियों को पूरी तरह से तहस-नहस कर देना चाहती है, ख़ासकर वैसे नियम व क़ानून जिनका सरोकार मजदूरों और गरीबों से हो।
हमारे टैक्स व वाणिज्यिक कानूनों से यह साफ़ है कि कैसे कंपनियों का मुनाफा ही भाजपा सरकार के लिए सर्वोपरि है। ऐसी कोई अभिरूचि मजदूरों के हितों के लिए दिखाई नहीं देती। इसीलिए कंपनियों और अमीरों के लिए अलग क़ानून हैं और गरीबों-मज़दूरों के लिए अलग।
संविधान के अनुच्छेद 14 – न्याय के सामने समानता के मौलिक अधिकार का हनन करते हुए भाजपा सरकार प्रशासन को ऐसी शक्ति प्रदान करना चाहती है कि वह तय कर सके कि किसी कंपनी के मुनाफे की गणना कैसे हो। इसका प्रतिकूल असर देश के हर मज़दूर पर पड़ेगा, मुनाफा न होने के कारण संदान न कर पाने का रोना रो कर कंपनियां न सिर्फ मज़दूरों के बोनस की चोरी करेंगी, इस माध्यम से उन्हें न्यूनतम मजदूरी की दर भी कमतर रखने का रास्ता मिल जायेगा।
पिछले पखवाड़े अपनी इसी गड्ड-मड्ड नीति का परिचय देते हुए भाजपा सरकार ने राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन दर में 2 रुपये की वृद्धि कर इसे रुपए 176 प्रतिदिन से बढ़ाकर रुपए 178 प्रतिदिन किया था। साफ़ है कि भाजपा सरकार ने ऐसा मालिकों के हितों की रक्षा के लिए किया, इसी काम को वह संशोधनों और विधेयकों के माध्यम से भी गति दे रही है। इससे यह भी साफ़ हो गया कि भाजपा सरकार खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानती। उसने यह बताना जरूरी नहीं समझा कि न्यूनतम वेतन में यह 1.13% की वृद्धि करने का आंकड़ा कहाँ से आया। निश्चित ही यह उनके ‘प्रौद्योगिकी’ की देन होगा।
श्रम संहिता लागू करने की यह तड़प भाजपा के शासनकाल के 5 साल के बाद आई है, तब जब गए 5 सालों में सरकार ने त्रिपक्षीय प्रणाली को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है और भारतीय श्रम सम्मेलन को नेस्तोनाबूद। आम चुनावों के बाद भाजपा सांसदों का संबोधन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि सरकार का ध्येय अब ‘जीवन को आसान बनाना’ (इज़ ऑफ़ लिविंग) होना चाहिए। न्यूनतम वेतन में यह 2 रुपये की वृद्धि निश्चित ही कई मजदूरों का पेट काट कर कुछ अमीर लोगों के जीवन को आसान बनाएगा।
लोकसभा में श्रम मंत्री संतोष गंगवार के तेवर देख कर यह साफ़ है कि सरकार इस विधेयक को बिना सभा की प्रवर समिति के पास भेजे अगले कुछ ही दिनों में पारित करवाने के लिए प्रतिबद्ध है। पूरी संभावना है कि वे ऐसा करने में सफ़ल हो जायें।
हमारा काम उनके इस हमले का जवाब देते हुए मजदूर वर्ग के संघर्ष को हर हाल में आगे बढ़ाना है और वह हम करते रहेंगे।
(गौतम मोदी न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के महासचिव हैं।)