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समाज

मुझे चुनाव लड़ने से बार-बार रोका गया कि मेरे जिले में नहीं हैं मेरी जाति वाले

Prema Negi
27 April 2019 2:23 PM IST
मुझे चुनाव लड़ने से बार-बार रोका गया कि मेरे जिले में नहीं हैं मेरी जाति वाले
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यह बात मेरे लिये कष्टदायक थी कि पैदाइश से लेकर शिक्षा, सम्पर्क व राजनीतिक कार्यस्थल तो पानीपत रहा, फिर हम बाहर क्यों जाएं। क्या पानीपत के लोग हमारी बिरादरी नहीं हैं...

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता राममोहन राय की आपबीती

सन 1984 के आम चुनावों से पहले मैंने निश्चय किया कि इस बार तो हमें भी मैदान में उतरना चाहिए। अपने अनेक मित्रों से सलाह की तथा अपने शिभचिंतकों का मार्गदर्शन भी चाहा। अनेक चुनावी धुरंधरों ने अपनी राय दी कि मुझे सफीदों हल्का या कुरुक्षेत्र की किसी विधानसभा में कोशिश करनी चाहिए। मेरे लिये तो यह अजूबा था कि वे क्यों ऐसी राय दे रहे हैं, जबकि उनका मानना था कि हमारी बिरादरी की संख्या इन इलाकों में काफी है।

यह बात मेरे लिये कष्टदायक थी कि पैदाइश से लेकर शिक्षा, सम्पर्क व राजनीतिक कार्यस्थल तो पानीपत रहा, फिर हम बाहर क्यों जाएं। क्या पानीपत के लोग हमारी बिरादरी नहीं हैं? यह झटका नाकाबिले बर्दाश्त था कि इंसानी बिरादरी से अलग भी कोई बिरादरी होती है।

जब आर्य हायर सेकेंड्री स्कूल, पानीपत में मेरे आठवीं के बोर्ड की परीक्षा के लिये फार्म भरे जाने लगे तो मैंने अपने पारिवारिक शिक्षा से प्रेरित होकर अपने पिता के नाम के बाद का भी जातिसूचक शब्द हटवा दिया था और मैंने तो कभी इन शब्दों का प्रयोग किया ही नहीं था। हम पानीपत में कायस्थान मोहल्ले में रहा करते थे और हमारा सारा पड़ोस ब्राह्मणों का था।

मेरी मां तो अपनी सामाजिक-राजनीतिक कार्यों की वजह से बाहर रहा करती थीं। इस कारण हम सभी भाई-बहनों की परवरिश पंडित सेवाराम जी अंगिरा के घर ही हुई। उनकी पत्नी जिन्हें सब सम्मान व स्नेह से जीजी कहते थे, ही हमारी असली माँ थी। उनका मेरी ही उम्र का एक बेटा शैलेंद्र भी था। उसमें व मुझमें यह कशमकश रहा करती कि जीजी के पास कौन ज्यादा रहेगा।

शैलेन्द्र की बड़ी बहन विजयलक्ष्मी जिन्हें प्यार से हम मुन्नी बोबो कहते थे, अपने पति डॉ हरि भारद्वाज के साथ मद्रास में रहती थी। जब भी मुन्नी बोबो पानीपत आती तब शैलेन्द्र के बराबर के गिफ्ट्स मेरे व मेरी बहन अरुणा के लिये भी लाती। ऐसे ही जब मुन्नी बोबो दिल्ली आ गयी तो हम उनके घर छुट्टियों में जाने लगे। कभी अहसास ही नहीं हुआ कि वे हमारी सगी बहन नहीं है।

घर के पिछवाड़े में ही मौलवी अल्लाह बन्दा का मकान था जो अपनी पत्नी के साथ उस मकान में रहते थे। मौलवी साहब के अपना कोई बच्चा नहीं था, पर वे हमें ही अपने बच्चे मानते। अम्मा (उनकी पत्नी) तरह—तरह के नान, हलुवा व बिरयानी बनाती। वे खुद तो बीमार होने की बजह से खाते नही थे उनका भोग हम ही लगाते। छोटी मासी, रमती मासी, बम्बई वाली अम्मा, पुष्पा की भाभी, बाजे वाली माता जी राजकिशोरी, सुंदर की भाभी, शांति भाभी, तारो बहन जी, रोशन भाई वाली भाभी, कौशल्या ताई, गरमा मास्टर वाली चाची, शांति बहनजी, राममूर्ति भाभी यह सभी तो ऐसी थीं कि बेशक इनकी रसोइयां अलग-अलग थीं, पर थी सबके लिये खुली।

श्री राम चन्द्र भटनागर व उनकी बेटी शारदा (वर्तमान स्वामी निष्ठा जी) व बुद्ध सेन घी वाले की बेटी शारदा (वर्तमान स्वामी मुक्तानंद जी) ऐसे धार्मिक पड़ोसी थे, जो हमें गीता कंठष्ठ करवाने का काम करते। अब बताओ इस बिरादरी से हटकर हम कौन सी बिरादरी की कल्पना कर सकते थे? हमने कभी भी इनकी जातियां पूछने की कोशिश नहीं की जब कि इनमें हर जाति के लोग होंगे।

आर्य स्कूल में जब पढ़ने पहुंचे तो वहाँ यह तो जोर रहा कि सबको आर्य लगाना चाहिए न कि कोई जाति विशेष, क्योंकि मनुष्य की तो एक ही जाति है। इसी स्कूल में प्रिंसिपल नित्यानंद, दीप चंद्र निर्मोही जैसे शिक्षक मिले जो ऐसे किसे भी बवाल से बहुत ऊपर थे। लॉ करने के लिये मुझे सहारनपुर के जेवी जैन डिग्री कॉलेज में एडमिशन मिला। वहाँ भी छात्र राजनीति करने का भरपूर मौका मिला और लॉ फैकल्टी के चुनाव लड़ने का मौका मिला।

मेरे अत्यंत प्रिय मित्र संजय गर्ग, अशोक शर्मा ने एक अद्भुत मोर्चा निर्माण किया। राशिद जमील और मैं, क्रमशः उपाध्यक्ष व सचिव का चुनाव लड़े और जीते। चुनाव के बाद मेरे बहनोई कॉलेज में मुझे मिलने आये। वहाँ उनके गांव व आसपास के विद्यार्थी उनसे मिले, पर जब उन्हें पता चला कि मैं भी उनकी ही बिरादरी का हूं तो वे बोले कि वे तो मेरा विरोध कर रहे थे पर यदि उन्हें पता होता कि मैं उनकी ही बिरादरी का हूं तो मैं बड़े मार्जिन से जीतता, पर मैं कभी भी इस झमेले में नही पड़ा।

वकील बनकर पानीपत में ही वकालत शुरू की, परन्तु कभी भी जाति का प्रयोग नहीं किया। 25 साल की वकालत के बाद बार एसोसिएशन के प्रधान पद का चुनाव लड़ा। प्रचार के कुल 10 दिन मिले। शुरू से ही असमंजस का माहौल था। वकील भाई मेरी बिरादरी ढूंढ़ने में लगे थे और आखिर वे कामयाब हुए। अलग—अलग जातियों के नेताओं ने कहा कि पहले अपनी बिरादरी का फैसला अपने हक़ में करवाओ, फिर वे समर्थन करेंगे। तब अहसास हुआ कि मैं तो सोच रहा था कि अब मेरी वकील बिरादरी है पर यहां तो ब्राहमण, जाट, अग्रवाल, सैनी, गूर्जर, पंजाबी आदि—आदि वकील हैं, मात्र वकील तो कुल 88 ही पाए।

अब हर पांच साल बाद इलेक्शन आ रहा है। मेरे जैसे आदमी के सामने यही सवाल रहता है कि जीवन-मरण तो पानीपत में किया और यहाँ हमारी बिरादरी नहीं, और मैं सफीदों या कुरुक्षेत्र क्यों और कैसे चला जाऊं?

(राममोहन राय सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं।)

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