योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया
पूर्व आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण
अरसे से उत्तर प्रदेश की राजनीति में बिगड़ी हुयी कानून व्यवस्था की स्थिति लाचार पवित्र गाय वाली रही है। हाल के मुख्यमंत्रियों में मायावती ने इसे दुहा, अखिलेश यादव ने इसे चारा खिलाया और अब योगी आदित्यनाथ इसे ‘विधर्मियों’ से बचाने के संकल्प में जुटे हैं। यानी जिसकी जैसी राजनीति उसकी वैसी ही कानून व्यवस्था के नाम पर रणनीति!
इस क्रम में, लखनऊ के विवेक तिवारी प्रकरण ने रोजमर्रा के दो सम्बंधित मुद्दों को और ज्वलंत करने का काम अंजाम दिया है- एक मुद्दा है, पुलिस की औपनिवेशिक जड़ों का और दूसरा, सत्ता राजनीति के जातिवादी मंचन का।
न ये मुद्दे नये हैं न समाज के लिए इनका घातक होना। लेकिन योगी के राज में इनमें नये मारक आयाम जुड़ गये हैं। सत्ता के जातिवादी प्रोफाइल का पुलिस के सामंती चरित्र से अघोषित घालमेल तमाम सरकारों में कमोबेश दिखता रहा है; योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया।
प्रदेश में सत्ता सम्हालते ही घोषित हो गया था कि योगी ने कानून व्यवस्था में सुधार के प्रश्न को, एकमात्र पुलिस की सामंती दबंगई से जोड़ने का रास्ता चुना है- एनकाउंटर प्रणाली को, वह भी पिछड़ो के एनकाउंटर को, इसकी स्वाभाविक प्रशाखा कहा जाएगा। उत्तर प्रदेश, अस्सी के दशक में, वीपी सिंह के मुख्यमंत्रित्व में भी एनकाउंटर के खुले खेल का एक सीमित दौर देख चुका है और उसकी असफल परिणति को भी।
ताज्जुब नहीं कि योगी की शातिर राजनीतिक बनावट में इस असफलता से सबक लेने की जरूरत नहीं रही हो। भाजपा का मुसलमानों, यादवों और चमारों का राजनीतिक बहिष्कार, सहज ही योगी के ‘ठोक दो’ का भी चेहरा बनता गया है। ऐसे में राजनीतिक विरोधी, नागरिक संगठन, मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका भी योगी सरकार के एनकाउंटर सैलाब के सामने विवश लग रहे थे कि अचानक विनीत तिवारी हत्याकांड का भस्मासुर उसके सामने आ खड़ा हुआ।
भस्मासुर को कैसे छलावे से रोकते हैं, इस पौराणिक पहेली को हल करना एक महंत मुख्यमंत्री और सवर्णवादी भाजपा से बेहतर कौन जानेगा। लिहाजा, पीड़ित परिवार को अप्रत्याशित रूप से भारी मुआवजा और उनकी जातीय-वर्गीय घेरेबंदी की कवायद देखने को मिली! डीजीपी का हत्या-पीड़ित परिवार को संबोधित ताबड़तोड़ माफीनामा भी!
दुर्भाग्य से राज्य शासन और पुलिस प्रशासन ने, स्वयं उनके मानदंडों पर भी उन्हें शर्मसार करने वाले इस प्रकरण से कुछ नहीं सीखा है। आजमगढ़ से अलीगढ़ तक अपराध की रोकथाम के नाम पर करीब सौ लोगों की हत्या, योगी के डेढ़ साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश पुलिस कर चुकी है जबकि इनमें से एक भी मामले में स्वतंत्र जांच नहीं की गयी।
यहां तक कि विनीत तिवारी मामले में भी, जहां वे गलती स्वीकारने का ढोंग कर रहे थे, अपराध की छानबीन से छेड़छाड़ की गयी। डीजीपी का माफीनामा भी, जो पुलिस को नैतिक उपदेश देने तक सीमित है, पूर्णतया गैरकानूनी एनकाउंटर संस्कृति के चलन पर एकदम खामोश है। क्या नैतिकता और वैधानिकता परस्पर विरोधी खेमा हुए?
दरअसल, औपनिवेशिक निर्मिति से संवैधानिक निर्मिति की यात्रा का पहला निर्णायक कदम उठाने से भी हमारी पुलिस अभी कोसों दूर है। विवेक तिवारी हत्याकांड पर अपनी पहली टिप्पणी में मैंने कहा था-
Our police leaders refuse to appreciate a simple crucial factor that it is the integrity of their law and order protocols that matters and not just the individual integrity of police persons alone. When your professional orientations are flawed any amount of moral lecturing will have little impact on the outcome.
To start with, blatant authorisation of checking, questioning and arrest by police without quantifiable basis needs to be curbed urgently. They do not require any constitutional amendment to adapt to this absolute minimum standard of accountability. They do need serious training in Constitutional Conditioning and commitment in Community Policing though.
Stop immediately the ongoing drive of moral policing the society, under the guise of controlling anti-social elements. Police’s cause will be best served when their working protocols strengthen the society!
पुलिस के अपराधीकरण के रास्ते से अपराध सफाये की योगी मुहिम एक दिवा स्वप्न से अधिक कुछ नहीं। लेकिन विवेक तिवारी हत्याकांड को जातिवादी राजनीति का आईना मत बन जाने दीजिये। हाँ, यह विवेक का वह प्रशासनिक आईना जरूर हो सकता है जिसमें हर पुलिस एनकाउंटर को देखा जाना चाहिये।