महिला आरक्षण के मसले पर जब मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने ग्रामीण और दलित महिलाओं के लिए आरक्षण मांगा तो उनकी मांग को सामाजिक न्याय के खिलाफ बताकर प्रचारित किया गया...
शशांक यादव
एमएलसी, उत्तर प्रदेश
मुस्लिम महिलाओं में तीन तलाक के मुद्दे को शानदार तरीके से उठाकर ध्रुवीकरण की राजनीति को भाजपा ने सफलतापूर्वक अंजाम देने की कोशिश की। उसके बाद बिना देरी के पिछड़ों के आरक्षण में कर्पूरी ठाकुर फार्मूला को सीधे बिना किसी आयोग कि रिपोर्ट के लागू करने की मंशा जता दी।
यह हकीकत है कि कांग्रेस शासनकाल से लेकर बाद तक चाहे वह छेदीलाल साथी रिपोर्ट हो यह फिर संसदीय कमेटियों की रिपोर्ट, कई बार यह दोहराया गया की आरक्षण का वर्गीकरण हो, ताकि सभी वर्गों को लाभ मिल जाये। एक कानूनी जंग चली थी।
उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री रहते पिछड़ों—दलितों में उन्होंने वर्गीकरण किया। पिछड़ी जाति के नेताओं ने इसे पिछड़ा वर्ग को तोड़ने की साजिश समझा और इसका विरोध सड़क से संसद तक होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। अशोक यादव ने मुद्दा उठाया था और फिर भाजपा सरकार के आदेश का स्थगन हुआ और मामला खत्म हो गया।
पिछड़ों व दलितों ने मामला उठाया था कि जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी भागीदारी जाति के हिसाब से नौकरियों का आरक्षण हो, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने पचास प्रतिशत की सीमा आरक्षण की बांधी।
संसद में महिला आरक्षण बिल विधानसभा व लोकसभा सीटों पर 33 प्रतिशत आरक्षण के सम्बंध में लंम्बित है। इस पर जब मुलायम सिंह व शरद यादव तथा पिछड़ी जाति के भाजपा सांसदों ने कहा कि महिलाओं के आरक्षण में 33 प्रतिशत के अन्दर पिछड़ी व दलित वर्ग की महिलाओं का भी 50 प्रतिशत आरक्षण हो, तब भाजपा के संघी नेताओं के सीने पर सांप लोटने लगा था।
उन्होंने शोर मचाया कि सभी महिलायें कमज़ोर हैं। महिलाओं की एकजुटता को तोड़ा जा रहा है। यह कोटे में कोटा हमारा संविधान नहीं मानता। जब नेताजी मुलायम सिंह और शरद यादव ने कहा कि परकटी और फैशनेबल महिलायें तेजी दिखाकर राजनीति में आगे बढ़ जायेंगीं। गाँव देहात की पिछड़ी व दलित महिलायें बराबरी नहीं पायेंगी, तब उन्हें महिला विरोधी कहा गया। कहा गया कि कोटे में कोटा (आरक्षण में आरक्षण) सामाजिक न्याय के खिलाफ है।
अब वक्त आ गया है कि केन्द्र सरकार स्पष्ट रूप से घोषणा करेगी कि अगर वह 11 राज्यों में प्रचलित आरक्षण के वर्गीकरण के कर्पूरी फार्मूले को मानते हैं, तब यह सिद्वांत रूप से स्पष्ट है कि भारत सरकार कोटे में कोटा को सैद्वान्तिक रूप से सही मानती है। और फिर संविधान संशोधन करके यदि वह वास्तव में पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों व अति दलितों को अलग—अलग आरक्षण देने की सहमति रखती है, तो आरक्षण को न्याय पालिका, सेना और निजी क्षेत्र में भी लागू करे।
आरक्षण केवल हिंदुस्तान की बपौती नहीं है ,अमेरिका में भी प्रिफरेंशियल ट्रीटमेंट के जरिये कमजोर वर्गों की फर्मों से सरकारें सामान खरीदती हैं।
फिर सरकार इसी निष्ठा से आगे बढ़ते हुए जातिगत जनगणना को जाहिर करे। 2011 की जातिगत जनगणना को केन्द्र सरकार द्वारा छिपाये रखना और वर्गीकरण का आधार न बताना, सरकार के संघी विघटनकारी मंशा को जाहिर करता है। 2019 की तैयारी की जल्दी में और कुछ न कर पाने की हड़बड़ाहट में दिल्ली की सरकार हर वो विघटनकारी कार्य करना चाहती है जो अंग्रेजो की बांटो और राज करो नीति से मेल खाता हैै।
दलितों के वर्गीकरण पर सरकार खामोश है। 34 प्रतिशत पिछड़ी जातियों का 2014 में वोट पाने के बाद जब उत्तर प्रदेश, बिहार में आवारा जानवरों ने फसल खानी शुरू कर दी, जब गन्ने का भुगतान नहीं हो पाया, जब पूरी सम्भावना है कि गन्ने का दाम मौजूदा 315 रुपए से घटकर 260 रुपए तक आ सकता है। जब यह तय है कि किसान आत्माहत्या रुकने वाली नहीं है, जब यह भी तय है की कर्जा माफी भी चन्द हाथों में सिमटी होगी, तब भाजपा के खुराफाती दिमाग में यह विघटनकारी बम छोड़ा है।
इस वर्गीकरण में बुराई नहीं, अगर भाजपा सरकार इसे कानूनी मान्यता दे और महिलाओं के संसद व विधानसभा में 33 प्रतिशत आरक्षण में 50 प्रतिक्षत सीट पिछड़ी व दलित महिलाओं का आवंटित करे, वरना माना यही जायेगा कि यह एक धूर्त राजनीतिक चाल है, जिसमें सिर्फ वोटों की गणित सामने है।
इन चालाकियों को समझने में गाँव की भोली जनता को थोड़ा समय लगेगा, लेकिन जिस दिन समझ में आयेगा तब कमजोर वर्गों को सत्ता संचालन से कोई रोक नहीं सकेगा।
एक अंतिम प्रश्न यह भी मण्डल आयोग द्वारा चिन्हित पिछड़ी जातियों के आरक्षण आधार शैक्षणिक व सामाजिक पिछड़ापन था। अब पिछड़ा व अति पिछड़ा का वर्गीकरण का आधार किसी जाति के कुल जनसंख्या के कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के ऊपर अथवा शिक्षित हैं, अथवा यह होगा की पिछड़ी जातियों में कौन सी जातियों ने मुख्य धारा से पीछे छूटकर अपनी आबादी के अनुपात में कितने प्रतिशत नौकरी पाई हैं।
खेल सारा वर्गीकरण के आधार का है, सामाजिक न्याय में समता व सामानता दोनों का ध्यान रखा जाता है। उदहारण के लिए 'क' जाति की संख्या 1000 है और उसमे 5 व्यक्तियों के पास नौकरी है और 'ख' जाति के 100 व्यक्तियों के जनसंख्या में 1 व्यक्ति के पास नौकरी है, अब पिछड़ों में 80 प्रतिशत नौकरी 'क' जाति को हुई और 20 प्रतिशत 'ख' जाति की।
लेकिन 'क' जाति के अन्दर मात्र 0.5 प्रतिशत (आधा प्रतिशत) नौकरी पाये, जबकि 'ख' जाति के 1 प्रतिशत लोगो को नौकरी मिली। अब आप किसे अति पिछड़ा कहेंगे। वर्गीकरण का आधार सामाजिक न्याय है यह फिर वोट बैंक की राजनीति, क्योंकि 2017 के चुनाव से पहले पिछड़ी जातियों में वर्गीकरण का मुद्दा भाजपा ने ही उठाया और स्पष्ट रूप से सपा को यादव सरकार और बसपा को रैदास जाटव सरकार कहकर इंगित किया था।
यह खेल सबकी समझ में आ रहा है। एक लम्बी कानूनी लोकतांत्रिक और ध्रुवीकरण की राजनीति शुरू कर दी गई है। गेम संघ के हिसाब से हो रहा है, सामाजिक न्याय में यकीन रखने वालों को तार्किक और हौसलों के साथ सामने आना होगा।