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संस्कृति

ख़ुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह की कविताएं

Janjwar Team
14 Sep 2017 2:30 PM GMT
ख़ुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह की कविताएं
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जीवन का ठोस भौतिक बहूवर्णी सौन्दर्य अपने आप में भी तमाम अमानवीयता और अमानुषिकता के खिलाफ़ प्रतिरोध हो सकता है। जब प्रकृति पर लगातार संकट हो तो एक हरी पत्ती का सौंदर्य भी प्रतिरोध बन जाता है...

आशीष मिश्र

“कभी दर्द सुनाती/ कभी दर्द छुपाती हुई /कविता का जीवन भी /आम लोगों का जीवन है / ठोकरों से बनता हुआ...”

ये पंक्तियाँ संजीव कौशल के कविता संग्रह से हैं। इसे संजीव कौशल की काव्यात्मक-समझ का सूत्र कहा जा सकता है। उनका काव्य-जीवन आम लोगों का ही जीवन है। और यह ‘आम लोग’ कोई क्लिशे नहीं है, ये दैनंदिन जीवन में हमारे आसपास से गुजरते और हममें शामिल लोग हैं।

संजीव कौशल की पहली कविता हंस के किसी अंक में पढ़ी थी, शीर्षक था - रावणों का बाज़ार। कविता मुझे अच्छी लगी थी, लेकिन यह भी लगा था, कि रावण को एक प्रतीक के रूप में बहुत खींचा जा रहा है। अगर प्रतीकों को ज़्यादा खींचा जाए तो वे जीवन पर भारी पड़ने लगते हैं और कई दफ़े तो लगता है, कि वास्तविकता से बदला लिया जा रहा है।

इस प्रक्रिया में बहुवर्णी जीवन का भी वस्तुकरण होने लगता है। वस्तु-व्यंजकता के बजाय प्रतीक काव्य-वस्तु को ही छाप के बैठ जाते हैं। ‘रावणों का बाज़ार’ कविता पढ़ते हुए तब मुझे लगता था, कि कवि ने लोगों के बजाय रावण के गुणों के बारे में बताना ही अपना दायित्व समझ लिया है।

इसके बाद काफी दिनों तक संजीव कौशल की कोई कविता नहीं पढ़ी, लेकिन अभी पूरा संग्रह पढ़ने के लिए मिल गया। यह इनका पहला संग्रह है। संग्रह पढ़कर उनकी कविताओं को लेकर शिकायत कम हो गयी। बल्कि पहले संग्रह में इतनी अच्छी कविताएँ देखकर सहज प्रसन्नता हुई।

इस संग्रह में भी ‘माएँ होती हैं चीटियाँ’ शीर्षक कविता ऐसी ही है। यहाँ माँ और चीटियों में चीटियाँ ही प्राथमिक हो गयी हैं। इसका कारण प्रतीक का वही दबाव यहाँ भी है। एक-दो और थोड़ी बड़ी कविताएँ इसी तरह की हैं। लेकिन, ये बड़ी कविताएँ संजीव कौशल की मूल जमीन नहीं हैं। उनकी मूल जमीन छोटी कविताओं की है। उन कविताओं की है, जहाँ कुछ मार्मिक दृश्य बिम्ब हैं। जहाँ जीवन का एक क्षण है, मात्र।

संजीव कौशल जहाँ कोई वैचारिक नैरेटिव रचना चाहते हैं, वहाँ रेटोरिक में जाते हैं और प्रतीकों का सहारा लेते हैं। लेकिन छोटी कविताओं में कोई एक मार्मिक बिम्ब रचते हैं, खास तौर पर दृश्य बिम्ब। और इस संग्रह में ऐसी छोटी कविताएँ पर्याप्त हैं। संग्रह की शुरुआती कविताओं में एक ‘नाव’ शीर्षक कविता है- “किताबों से धूल झाड़ते हुए / कल एक नाव मिली /नन्ही की /विचारों के भँवरों में फंसी /जूझती हुई /मैंने ज़रा-सा सहलाया उसे /और वो /मेरी हंथेलियों पे तैरने लगी...”

विचारों की भँवर में फंसी हुई यह कागज़ की नाव नन्ही स्वयं है। लेकिन यह तो कोई ऐसा व्यक्ति कहेगा जिसमें चीज़ों की व्यंजना में उतरने की क्षमता न हो। इस पूरी कविता में नन्ही और नाव को रूपक की तरह नहीं रचा गया है। नन्ही और नाव की छवियाँ अभिधार्थ में नहीं, व्यंग्यार्थ में मिलती हैं। पूरी कविता हीरे की कनी माफ़िक ठोस है। कविता में आया है, कि नाव विचारों के भँवर में फंसी हुई है, इसके लिए किताबों के बीच नाव का मिलने का संदर्भ आ चुका है।

पूरी व्यंजना में उतरने के लिए एक बार फिर से इस बिम्ब पर ध्यान दीजिए- किताबों के बीच नन्ही की नाव। यह नाव विचारों की भँवर के बीच फंसी हुई है। कवि ने उसे जरा सा सहलाया और वह हथेलियों पे तैरने लगी। यह कागज़ की नाव धीरे-धीरे नन्ही से जुड़ी स्मृतियों में घुलने लगी। विचार और उलझावों के बीच स्नेह और संवेदना ही उससे उबारने में सहायक है।

उलझाव, द्वंद्व, तनाव के बीच ममत्व का छोटा पल भी उबारने के लिए काफी है। इतनी छोटी-सी कविता अपनी व्यंजनाओं में बहुत दूर तक जाती है। एक छोटी-सी कविता है- चायवाले।

“टी-बैग चाय, चाय टी-बैग’ की आवाज़ लगाते /दौड़ते रहते हैं चाय वाले /चलती ट्रेनों में /कि मिलते ही इशारा /खुल जाती हैं टोटियाँ /कागज़ के गिलासों में /और दौड़ने लगता है /दूध-पानी /गरारे करता हुआ झागों में /और देखते ही देखते /भर जाते हैं गिलास /गरमागरम झागों से /जैसे भरी रहती हैं /हमारी आँखें /ख़्वाबों से...”

टोंटी से गिरता हुआ दूध-पानी ऐसे दौड़ता है जैसे गरारे कर रहा हो। और गिलास गरमागरम झागों से भर जाता है। और यह ऐसे ही है, जैसे हमारी आँखें ख़्वाबों से। इस पूरी कविता में एक बिम्ब है, एक दृश्य बिम्ब। इस कविता में जीवन के इसी क्षण को रचने का प्रयास है, इसके इतर कहीं और पहुँचना उद्देश्य नहीं है।

जीवन का ठोस भौतिक बहूवर्णी सौन्दर्य अपने आप में भी तमाम अमानवीयता और अमानुषिकता के खिलाफ़ प्रतिरोध हो सकता है। जब प्रकृति पर लगातार संकट हो तो एक हरी पत्ती का सौंदर्य भी प्रतिरोध बन जाता है।

एक कविता है – उड़ रही हैं लहरें। अगर बहुत सपाट ढंग से कहा जाए तो कविता में एक प्रेमी द्वारा दूसरे को छूना और फलतः चाहतों का पैदा होना मूल कथ्य है। लेकिन मेरा यह कहना कविता नहीं है, अगर इतना ही कहा जा रहा होता तो कविता नहीं होती। फिर ऐसा क्या है, जिसके चलते इसे उद्धृत किया जाए?

पहली बात हो यह कि इसमें प्रेम का एक क्षण है। और यह क्षण स्पर्श या चुंबन का है। और उस क्षण के सरल संगीत को रचा जा रहा है। क्षण जितना सहज है, उसे उतने ही सहज ढंग से रचा जा रहा है। चुंबन या स्पर्श के बाद अनुभाव को चिड़ियों के गीतों की तरह उड़ते हुए कहा जा रहा है। अनुभाव को चिड़ियों का गीत कहना ठोस दैहिक होने के बजाय कुछ आत्मिक अनुभूतियों में बदल जाता है। अब लहरें उड़ रही हैं चिड़ियों के गीत की तरह तो उसका कारण है कि कोई ख़्वाब उतर आया है पानी के भीतर।

ख़्वाब और चाहतों से ही प्रेम के अनुभाव जन्म लेते हैं, जिसे चिड़ियों का गीत कहा जा रहा है। यह पूरा बिम्ब ऐसा लगता है जैसे पानी में चाँद उतर आया हो।
शांत पानी को /क्या छुआ /तुम्हारे होठों ने /कि उड़ रही हैं लहरें /चिड़ियों की गीतों की तरह /सब तरफ़ /लगता है /उतर आया है /कोई ख़्वाब पानी के भीतर।

इस तरह की तमाम और कविताएँ हैं। इन कविताओं में जीवन का कोई एक क्षण दृश्य बिंबों में रचने की कोशिश है। संग्रह में एक तीसरी तरह की कविताएं भी हैं। इन कविताओं में वक्तव्य तो नहीं है, लेकिन उनसे जीवन और समाज का बड़ा परिदृश्य उद्घाटित होता है। ऐसी कविताओं में प्रतीक नहीं हैं, ये कविताएं छोटे-छोटे बिंबों से बनती हैं। और अंततः सारे बिंब किसी बड़े विचार में ढल जाते हैं और अपनी व्यंजाओं में पाठक के भीतर समय के साथ फैलते जाते हैं। साथ ही प्रभाव में गहरे होते जाते हैं।

इस तरह की कई उल्लेखनीय कविताएँ हैं, लेकिन दो कविताएँ ख़ास तौर से उद्धृत करना चाहता हूँ। पहली कविता है- चूल्हे और दूसरी- हंडेवाले। यहाँ चूल्हा मानवीय सभ्यता के केंद्र में बदलते हुए मानवीय गरिमा, संघर्ष और संवेदनात्मक ऊष्मा में बदल जाता है। ‘हंडेवाले’ उन पर रची है जो बारातों में अपने सर पर लाइटें रखकर चलते हैं। सब नाचते गाते लोग उसी प्रकाश में चमकते हैं, लेकिन हंडेवालों के चेहरे एक से दिखाई देते हैं। हंडेवालों के लिए संजीव कौशल लिखते हैं- ‘कि चलते हैं ये गुमसुम/ ख़ुशी के गीतों में छूटे हुए सुरों की तरह /दमकते चेहरों पर / रोशनी मलते हुए।’

इतने कम शब्द इतने बड़े सबलटर्न विमर्श को खोल सकती हैं। हंडेवाले ख़ुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह गुमसुम चल रहे हैं। ये वही हैं, जिनसे लोगों के चेहरे दमक रहे हैं। वे गुमसुम हैं और कविता इसी चुप्पी को पकड़ने की कला है। उन दमकते हुए और चिल्लाते हुए को पकड़ने की नहीं, उसकी परिधि पर, तलछट में सिसकते हुए लोगों की आवाज़ है।

समाज का अधिसंख्य हिस्सा यहीं तलछट में है। संजीव कौशल इसी तलछट को बहुत मार्मिकता से सौंदर्यबोध के स्तर पर रचते हैं। शायद उनकी दिशा वक्तृता की नहीं, व्यंजना और मार्मिकता है। इसी कविता की अंतिम पंक्तियों के साथ बिना कुछ कहे इस समीक्षा को पूरा करना चाहता हूँ- ‘जैसे धोकर निखरी हो रात /हंडों के शीशों की तरह /ऐसे पेरते हैं रोशनी रात भर /फिर भी कितने काले हैं इनके हाथ /जैसे आई हो हिस्से इनके /काली सूखी रात...’

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