कोरोना की भयावहता के बावजूद WHO किसी भी स्तर पर क्यों नहीं कर रहा लॉकडाउन का समर्थन
हमारे देश में प्रवासी श्रमिकों का हाल, अमेरिका में मौत के भयावह आंकड़े, कोविड 19 के नाम पर रूस, ब्राज़ील, इजराइल, इंग्लैंड जैसे देशों के शासकों का हाल और निरंकुश शासकों के कारनामे दुनिया देख रही रही...
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। वर्ष 2019 को आन्दोलनों का वर्ष कहा गया था, क्योंकि इस वर्ष भारत समेत दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अनेक आन्दोलन शुरू किये गए थे, और इनमें से अनेक का अंत लॉकडाउन से ही हुआ। दुनियाभर में इस समय लोकतंत्र अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है, और लोकतंत्र के नाम पर निरंकुश सरकारें हैं, जिनके लिए जनता कुछ भी नहीं है।
सम्भवतः इसीलिये दुनिया के अधिकतर देशों ने कोविड 19 से निपटने का एक ही रास्ता चुना, जो लॉकडाउन का था। सरकारें भले ही इसके फायदे गिना रहीं हों, और कोविड 19 से निपटने का एक यही रास्ता बता रहीं हों, पर ध्यान रखना चाहिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किसी भी स्तर पर लॉकडाउन का समर्थन नहीं किया है।
दुनियाभर की सरकारों ने केवल लॉकडाउन ही नहीं लगाया, बल्कि कोविड 19 का नाम लेकर पुलिस और सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देकर अपने ही नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। इन सबके बीच, कोविड 19 के मामले अपनी गति से बढ़ते रहे, लोग मरते रहे और सरकारी अतिवादी नीतियों का शिकार होते रहे, भूख और बेरोजगारी से घिरते रहे, प्रवासी श्रमिक हजारों किलोमीटर पैदल चलते रहे और सरकारें इन सबकी आड़ में अपने अघोषित एजेंडा पूरा करती रही।
हमारे देश में प्रवासी श्रमिकों का हाल, अमेरिका में मौत के भयावह आंकड़े, कोविड 19 के नाम पर रूस, ब्राज़ील, इजराइल, इंग्लैंड जैसे देशों के शासकों का हाल और निरंकुश शासकों के कारनामे दुनिया देख रही रही है। सवाल यह उठता है कि एक बार जब वापस दुनिया सामान्य हो जायेगी, तब क्या हमें बड़े आन्दोलन फिर से देखने को मिलेंगें?
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डोनाल्ड ट्रम्प कोविड 19 के सन्दर्भ में चीन पर लगातार बरसते रहे हैं, हालांकि आज तक उन्होंने अपनी वक्तव्यों के समर्थन में एक भी सबूत पेश नहीं किये हैं और न ही उनके ख़ुफ़िया तंत्र के पास कोई सबूत हैं। हाल में ही चीन के सरकारी समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स के सम्पादक हु क्सिजिन ने ट्रम्प के वक्तव्य पर कहा कि वह यह सब एक लाख से अधिक मौतों के आंकड़ों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए कर रहे हैं।
यहाँ तक का वक्तव्य तो हम बहुत बार और बहुत सारे विशेषज्ञों से सुन चुके हैं। पर हु क्सिजिन ने इसके बाद दुनिया को हैरान करने वाला वाक्य कहा, यदि चीन में इस तरह एक लाख मौतें होतीं तो यहाँ की क्रुद्ध जनता व्हाईट हाउस जला देती। चीन जिस तरह अपने देश में या फिर हांगकांग में आन्दोलनों को कुचलता है, यह सभी जानते हैं।
लेकिन हु क्सिजिन के वक्तव्य को चीन से हटा कर एक सामान्य तरीके से देखें तो इतना तो स्पष्ट होता है कि अधिकतर सरकारें कोविड 19 का सामना जनता के हितों का ध्यान रखते हुए भी इससे बेहतर तरीके से कर सकतीं थीं, पर अधिकतर सरकारों ने इसे युद्ध का नाम दिया और ऐसा माहौल तैयार किया, जिसमें जनता कहीं थी ही नहीं। जाहिर है जनता क्रुद्ध होगी, पर आने वाला समय ही बता पायेगा कि इससे सम्बंधित बड़े आन्दोलन होंगे या नहीं। फिलहाल तो कोविड 19 से उपजे सामाजिक और आर्थिक संकट से जनता को बचाने में अधिकतर सरकारें असफल रहीं हैं, पर कहीं भी कोई बड़ा आन्दोलन नहीं हुआ है।
समाज शास्त्रियों को भी अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि जनता का गुस्सा और विद्रोह कहाँ चला गया है? इस समय भारत ही नहीं दुनियाभर में श्रमिक अपना सबकुछ गवां चुके हैं, ऐसे में उनके पास और खोने को कुछ नहीं बचा है, फिर भी इस पूरे वर्ग में एक अजीब सी खामोशी है, विद्रोह के तेवर नदारद हैं। अब तो अधिकतर समाजविज्ञानी यह तक कहने लगे हैं कि आज के शासक पिछली शताब्दी के शासकों की तुलना में अधिक भाग्यशाली हैं, क्योंकि अब विरोध के सुर गायब हो रहे हैं।
फिर भी कुछ मानवाधिकार समर्थकों को उम्मीद है कि जनता में अभी तक शायद आन्दोलन के कुछ अंश बाकी हैं और अपने समर्थन में वे कुछ छोटे आन्दोलनों का उदाहरण देते हैं जो कोविड 19 के दौर में अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिकी देशों में किये गए। आन्दोलनों की उम्मीद लगाए विशेषज्ञों का कहना है कि बस देखना यह है कि आन्दोलन माओ, मार्क्स, गुएवारा या कास्त्रो जैसे हिंसक होंगे या फिर गांधी जैसे अहिंसक।
कुछ भी हो, इतना तो तय है कि कोविड 19 के पहले और बाद की दुनिया एक जैसी नहीं होगी। फिलहाल बुजुर्ग आबादी अधिक प्रभावित हो रही है और युवा कम प्रभावित है। भारत और अफ्रीका की आबादी में बड़ा हिस्सा युवा का है, पर क्या युवा अपनी समस्याएं समझता है – इस पर भविष्य के आन्दोलन निर्भर करेंगे।
कोविड 19 से सम्बंधित बहुत से तथ्यों पर आपसी विरोध हो सकता है, पर इसके दो प्रभावों पर कोई बहस नहीं की जा सकती। इसका प्रभाव पूरी दुनिया के हरेक व्यक्ति पर पड़ा है, यानि कोविड 19 ने कोई भी भेदभाव नहीं दिखाया। दूसरी तरफ इसके प्रभावों ने दुनिया में हरेक तरह की असमानता – सामाजिक वर्ग, जाति, वर्ण, आमदनी, पोषण, शिक्षा, रहन-सहन, भौगोलिक दूरी, लिंग और उम्र – को पहले से अधिक स्पष्ट कर दिया है। कोविड 19 के बाद हरेक तरीके की असमानता केवल गरीब और विकासशील देशों में ही स्पष्ट नहीं हुई हैं बल्कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी पहले से अधिक स्पष्ट हो गयीं हैं।
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भारत में अभी तक बढ़ती असमानता पर चर्चा नहीं की जा रही है, पर अमेरिका के धनाढ्यों का एक बड़ा तबका इससे डर गया है। हाल में ही वहां कोविड 19 के व्यापार पर असर का आकलन करने के लिए लगभग सभी अरबपतियों की बैठक आयोजित की गई थी, उसमें अनेक पूंजीपतियों ने कोविड 19 के दौर में उपजी असमानता को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के मांग की। जे पी मॉर्गन के चीफ एग्जीक्यूटिव जमी दिमों ने कहा कि यह असमानता सरकार और बाजार के लिए एक गंभीर चेतावनी है और अब सरकारों और पूंजीपतियों को सामान्य जन से सम्बंधित योजनाओं में पहले से अधिक निवेश करना आवश्यक हो गया है।
कोविड 19 के बाद आवश्यक है कि सरकारें गरीबी उन्मूलन और आर्थिक असमानता पर नए सिरे से पर प्राथमिकता के आधार पर विचार करें। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन, पानी, ऊर्जा और वन्य जीवों के व्यापार और विलुप्तीकरण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। दरअसल पूरे आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में आमूल परिवर्तन की जरूरत है। पहले जिस डोनट अर्थव्यवस्था पर लोग ध्यान नहीं देते थे, अब उसे अपनाने का समय आ गया है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का पैमाना जीडीपी नहीं होता, बल्कि पैमाना जनता की खुशी और समृद्धता होती है।