देश कोरोना से जूझ रहा और मोदी सरकार जुटी है 3 अरब डॉलर खर्च कर नेहरु-गांधी की हर याद मिटाने पर
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अपनी अति महत्वाकांक्षी योजना सेंट्रल विस्टा को मूर्त रूप देने का जिम्मा मोदी सरकार ने दिया उन आर्किटेक्ट महाशय को जिनका पर्यावरण और धरोहरों को बर्बाद करने में विशेष योगदान रहता है....
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
इतिहास के गर्त में ऐसे बहुत से शासक रहे हैं जो जनता को भूखा छोड़कर आलीशान इमारतें बनवाते थे, साथ ही पहले के शासकों की हरेक याद को ध्वस्त करते थे। सत्ता पत्थरों से भी लिखी जाती है, पर कुछ इमारतें ऐसी होतीं हैं जिनमें देशवासियों का दिल बस्ता है।
नई दिल्ली के ल्युटियन जोन का सेंट्रल विस्टा – जिसमें इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन, नार्थ ब्लाक, साउथ ब्लाक, संसद भवन और अनेक अन्य भवन भी शामिल हैं -ऐसा ही क्षेत्र है। इस क्षेत्र में सत्ता की धमक तो है, फिर भी अपना सा लगता है।
छोटे-मोटे बदलाव को छोड़ दें तो पिछले 100 वर्षों से यह पूरा क्षेत्र ऐसा ही है और नई दिल्ली की पहचान है। इतना विशाल और भव्य राजधानी क्षेत्र बहुत कम देशों में है। अब तक जितनी भी सरकारें रहीं हैं, सबने इसी क्षेत्र से शासन चलाया है और किसी को कोई कठिनाई नहीं हुई, पर वर्तमान सरकार को संसद भवन छोटा लगने लगा। मंत्रालय अलग-अलग इमारतों में रहने से परेशानी होने लगी।
सबसे बड़ी परेशानी है – नेहरु, गांधी ने भी यहीं से राज किया था। अब जब सरकार नेहरु-गांधी की हरेक यादें और उनके द्वारा किया गया हरेक विकास मिटाने पर तुली है तो जाहिर है, वर्तमान का सेंट्रल विस्टा उन्हें पसंद नहीं आएगा।
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कोविड 19 ने जिस समय देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है, बेरोजगारी चरम पर है, खेतों में खडी फसल बर्बाद हो रही है और एक बड़ी आबादी भूख की चपेट में है, ठीक उसी समय यह परियोजना भी मूर्त रूप लेने जा रही है। इसके पर्यावरण स्वीकृति के लिए सारे नियम क़ानून भी ताक पर रख दिए गए। जाहिर है सरकार के पसंदीदा परियोजना को आगे बढाने में सर्वोच्च न्यायालय भी कोई दखल नहीं देगा, भले ही गैरकानूनी ही क्यों न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में ही इस परियोजना के विरोध की एक याचिका को खारिज किया है।
इस बृहत् परियोजना के लिए सहमति संसद से भी नहीं ली गई है, और न ही काम आबंटन के लिए सरकारी तौर-तरीकों को अपनाया गया है। इस पूरे काम का जिम्मा आर्किटेक्ट बिमल पटेल को दिया गया है, जिनका पर्यावरण और धरोहरों को बर्बाद करने में विशेष योगदान रहता है। अहमदाबाद में साबरमती रिवर फ्रंट का विकास जिसके तहत साबरमती नदी नाहर में बदल गयी इन्हीं की योजना है। आजकल ये वाराणसी की पहचान मिटाने में व्यस्त हैं।
सबको याद होगा कि लगभग तीन वर्ष पहले नई दिल्ली को विश्व धरोहर शहर बनाने की कवायद चल रही थी, पर अंतिम समय में यह तमगा अहमदाबाद को मिल गया था। उस समय अंतिम दौर में भारत सरकार ने नई दिल्ली का नाम ही नहीं भेजा था। यह सब अहमदाबाद प्रेम के चलते नहीं किया गया था, बल्कि विश्व धरोहर होते ही उस शहर की कायाकल्प में बदलाव कठिन हो जाता है, पर सरकार को तो सेंट्रल विस्टा प्रस्ताव लाना था और उसमें आमूल परिवर्तन की जरूरत थी।
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वर्ष 1911 में अंग्रेजों ने देश की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित करने का प्रस्ताव पारित किया था। इसके बाद राजधानी लायक विकास का जिम्मा सर एडवर्ड ल्युटियन और हर्बर्ट बेकार को दिया गया था। इन्होने पूरी हरियाली को विकसित कर मुख्य रूप से मुग़लों की इमारतों में उपयोग किये जाने वाले लाल पत्थर का इस्तेमाल कर विशाल भवन बनाए।
इस पूरे क्षेत्र को वर्तमान में भी ग्रेड ए के विरासत का दर्जा प्राप्त है। इन इमारतों में ग्रेट ब्रिटेन, ग्रीस, हिन्दू, मुग़ल, जैन और बौद्ध आर्किटेक्ट एक साथ समाहित है। यह पूरा क्षेत्र 1912 से 1931 के बीच विकसित किया गया। अब इसमें बदलाव का काम चार वर्षों में 3 अरब डॉलर के खर्च से किया जाएगा। इसमें तिकोना संसद भवन, प्रधानमंत्री निवास और मंत्रालय काम्प्लेक्स नए सिरे से बनेंगे।
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आज के दौर में जब कोई भी महत्वपूर्ण योजना पर चर्चा संसद में नहीं होती, संसद और दूसरी संवैधानिक संस्थाएं केवल नाम के लिए रह गयी हैं तव इस नई परियोजना का कारण वर्तमान संसद भवन में पर्याप्त जगह का नहीं होना बताया जा रहा है। दलील है कि इस समय सांसदों की संख्या का आधार वर्ष 1971 की जनसंख्या है। तब जनसंख्या 58 करोड़ थी, पर अब 114 करोड़ है। संभव है वर्ष 2026 तक सदस्यों की संख्या 900 तक पहुँच जाए, तब जगह की और कमी होगी। पर हकीकत तो इसके विपरीत है और लगता तो यही है कि अगले कुछ वर्षों में न तो संसद रहेगी और न ही संविधान।
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एक गरीब देश का शासक इतनी महंगी परियोजना को मूर्त रूप देने को इसलिए तत्पर है कि यह परियोजना भी अघोषित हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे का बड़ा हिस्सा है। नए भवनों से हम अंग्रेजों की वास्तुकला को नहीं भूलेंगे, बल्कि नेहरु-गांधी की विरासत को भी भूल जायेंगे। भविष्य में हम भी गर्व से कहेंगे कि हमारे देश में एक ऐसा शासक था, जिसके शासन में लोग भूखे थे, परेशान थे, बेरोजगार थे, जातिवादी और वर्णवादी थे, पर उसने बड़ी इमारतें बनवाई और ऊंची मूर्तियाँ भी।