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समाज

मोदी शासन में मंदी की खबरें विज्ञापन के बतौर छपवाने को मजबूर पूंजीपति!

Prema Negi
20 Aug 2019 2:36 PM GMT
मोदी शासन में मंदी की खबरें विज्ञापन के बतौर छपवाने को मजबूर पूंजीपति!
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यह पहली बार हो रहा है कि पूंजीपतियों से जुड़ी खबरें यानी मंदी को भी मीडिया नहीं दिखा रहा। पूंजीपति अपने क्षेत्र की मंदी की खबर भी विज्ञापन के बतौर पैसे देकर छपवा रहे हैं...

जनज्वार। आटोमोबाइल सेक्टर में मंदी, सटडाउन, मजदूरों को बाहर निकालने की खबरें जिन्हें की मुख्य मीडिया की प्रमुख खबरों में से एक होना चाहिए था, वह कहीं कोने में दुबकी नजर आयी, अब कुछ ऐसा ही हाल टैक्सटाइल मंदी, चाय के क्षेत्र में आई मंदी के बाद लाखों लोगों के बेरोजगार होने के बाद का भी है। यह लाखों लोग मीडिया के लिए कहीं भी खबर नहीं हैं।

370 के जश्न में डूबे देश और सत्तासीनों को शायद मंदी की खबर कोई बड़ी बात नहीं लगती। मीडिया के लिए भी मंदी शायद कोई खबर नहीं है, जबकि वह खुद बहुत बुरी तरह से मंदी झेल रहा है। हालांकि पहले भी मजदूरों से जुड़ी खबरों को मीडिया तरजीह नहीं देता था, मगर यह पहली बार हो रहा है कि पूंजीपतियों से जुड़ी खबरें यानी इतनी बड़ी मंदी को भी मीडिया नहीं दिखा रहा। पूंजीपति अपने क्षेत्र की मंदी की खबर भी विज्ञापन के बतौर पैसे देकर छपवा रहे हैं।

जिसे लीड खबर होना चाहिए था, वह कुछ यूं छपा है विज्ञापन के तौर पर

ससे बुरा और क्या होगा कि आज 20 अगस्त के इंडियन एक्सप्रेस में जो खबर लीड होनी चाहिए थी, वह पहले पेज पर विज्ञापन के बतौर छपी है जो बताती है कि नॉर्दन इंडिया टैक्सटाइल मिल्स भारी मंदी के दौर से गुजर रही है। मिल लगातार भारी मंदी और घाटे से गुजर रही है, जिसके कारण बड़ी संख्या में नौकरियां जा रही हैं।

इंडियन एक्सप्रेस में छपे विज्ञापन में भारी तादाद में मजदूरों की नौकरियाँ जाने के बाद फ़ैक्ट्री से बाहर आते लोगों को स्केच के तौर पर दशार्या गया है। बारीक शब्दों में यह भी लिखा है कि एक तिहाई धागा मिलें अब तक बंद हो चुकी हैं और जो चल रही हैं वो भारी घाटे में हैं। मिलों की हालत इतनी ज्यादा खराब है कि वे कपास खरीदने की हालत में भी नहीं है। यानी इसका सीधा असर किसानों पर पड़ेगा, क्योंकि आगे उनकी कपास की तैयार फसल का कोई खरीददार नहीं होगा। करोड़ों करोड़ रुपये की कपास की फसल किसान कहां खपाएंगे यह बात शायद हमारे प्रधानमंत्री महोदय के लिए कोई मायने नहीं रखती, फिर चाहे किसान आत्महत्या को ही मजबूर क्यों न हो जायें।

आखिर मीडिया के लिए इतनी भारी पैमाने पर व्याप्त मंदी खबर क्यों नहीं हैं, इन तमाम बातों के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी :

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