लिंग के आधार पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध नाकाबिले बर्दाश्त : सुप्रीम कोर्ट
कोर्ट ने कहा पुरुष और महिला को एक समान है धर्म के पालन का मौलिक अधिकार, धर्म के नाम पर पुरुषवादी सोच ठीक नहीं....
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में हर उम्र वर्ग की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का रास्ता खोल दिया है। न्यायालय ने साफ कहा है कि हर उम्र वर्ग की महिलाएं अब मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी।
हमारी संस्कृति में महिला का स्थान आदरणीय है। यहां महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है और मंदिर में प्रवेश से रोका जा रहा है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा, 'धर्म के नाम पर पुरुषवादी सोच ठीक नहीं है। उम्र के आधार पर मंदिर में प्रवेश से रोकना धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।'
चीफ जस्टिस ने कहा भगवान अयप्पा के भक्त हिंदू हैं, ऐसे में एक अलग धार्मिक संप्रदाय न बनाएं। कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुछेद 26 के तहत प्रवेश पर बैन सही नहीं है। संविधान पूजा में भेदभाव नहीं करता है। अनुच्छेद 25 के मुताबिक सभी बराबर हैं। समाज में बदलाव दिखना जरूरी है। व्यक्तित्व गरिमा अलग चीज है। पहले महिलाओं पर पाबंदी उनको कमजोर मानकर लगाई गई थी।
महिलाएं दिव्यता और अध्यात्म की खोज में बराबर की हिस्सेदार हैं। बनी बनाई मान्यताएं इसके आड़े नहीं आनी चाहिए। समाज को भी सोच में बदलाव लाना होगा, महिलाएं पुरुषों के समान हैं। धर्म के पालन का मौलिक अधिकार पुरुष और महिला को एक समान उपलब्ध हैं। अनुच्छेद में दी गयी नैतिकता की शर्त इस मामले में आड़े नहीं आती है।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुआई में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा सहित पांच जज संविधान पीठ में शामिल थे। यह फैसला 4-1 के बहुमत से आया है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस नरीमन, जस्टिस खानविलकर ने महिलाओं के पक्ष में एक मत से फैसला सुनाया, जबकि जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने सबरीमाला मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया। याचिका में उस प्रावधान को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत मंदिर में 10 से 50 वर्ष आयु की महिलाओं के प्रवेश पर अब तक रोक थी।
अल्पमत फैसले में जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि इस मामला का सभी धर्मों पर व्यापक असर है। देश में धर्मनिरपेक्ष माहौल को बनाए रखने के लिए गहरे धार्मिक मामलों से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि यहां बराबरी का अधिकार, धर्म के पालन के अधिकार से कुछ टकराव के साथ सामने आ रहा है, जो कि खुद एक मूलभूत अधिकार है।
जस्टिस मल्होत्रा ने तर्क दिया कि भारत में विविध धार्मिक प्रथाएं हैं। संविधान सभी को अपने धर्म के प्रचार करने और अभ्यास करने की अनुमति देता है। ऐसे में अदालतों को इस तरह की धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए भले ही यह भेदभावपूर्ण क्यों न हो। उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्थाओं को आर्टिकल 14 के आधार पर नहीं मापा जा सकता है। जस्टिस मल्होत्रा ने कहा कि आस्था से जुड़े मामले को समाज को ही तय करना चाहिए ना की कोर्ट को।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि भगवान अयप्पा के भक्त हिंदू हैं, ऐसे में एक अलग धार्मिक संप्रदाय न बनाएं। धर्म जीवन जीने का तरीका है जो जीवन को आध्यात्म से जोड़ता है। पितृसत्तात्मक धारणा को भक्ति में समानता को कम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। पूजा में लैंगिक भेदभाव नहीं चल सकता।
आस्था के नाम पर लिंगभेद नहीं किया जा सकता है। कानून और समाज का काम सभी को बराबरी से देखने का है। महिलाओं के लिए दोहरा मापदंड उनके सम्मान को कम करता है। भगवान अयप्पा के भक्तों को अलग-अलग धर्मों में नहीं बांट सकते हैं।
जस्टिस नरीमन ने कहा कि सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुकूल नहीं है। पूजापाठ में महिलाओं का भी बराबर का अधिकार है। जस्टिस नरीमन ने कहा कि लिंग मंदिर में प्रवेश से रोकने का आधार नहीं हो सकता। महिलाओं को किसी भी स्तर से कमतर आंकना संविधान का उल्लंघन करना है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर किसी धार्मिक परंपरा शरीर की वजह से महिलाओं को प्रवेश से रोक उनकी गरिमा का उल्लंघन करती है तो वह असंवैधानिक है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि माहवारी की वजह से महिलाओं पर प्रतिबंध लगाना पूरी तरह से असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि अदालतों को उन धार्मिक प्रथाओं को वैधता प्रदान नहीं करनी चाहिए जो महिलाओं को अपमानित करती हैं।
गौरतलब है कि अभी तक की मान्यताओं के मुताबिक केरल के सबरीमाला मंदिर में विराजमान भगवान अयप्पा को ब्रह्मचारी माना जाता है। साथ ही, सबरीमाला की यात्रा से पहले 41 दिन तक कठोर व्रत का नियम है। मासिक धर्म के चलते युवा महिलाएं लगातार 41 दिन का व्रत नहीं कर सकती हैं। इसलिए, 10 से 50 साल की महिलाओं को मंदिर में आने की इजाज़त नहीं है।