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जनज्वार विशेष

पत्थलगड़ी आंदोलन, आदिवासी जीवन और सुरक्षा बलों की दखलंदाजी

Prema Negi
13 Dec 2018 1:54 PM IST
पत्थलगड़ी आंदोलन, आदिवासी जीवन और सुरक्षा बलों की दखलंदाजी
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आदिवासी इलाकों के मानव संसाधन के शोषण का सवाल हो या प्राकृतिक संसाधनों की लूट का, यात्रा के दौरान महसूस हुआ कि भारतीय समाज में आदिवासी वह हिस्सा है जो सरकार से सबसे कम लेता है और सरकार उससे सबसे ज्यादा वसूलती है...

पत्थलगड़ी के इलाकों से लौटकर सुरेंद्र विश्वकर्मा की रिपोर्ट

यह यात्रा मुण्डा आदिवासी समाज और पत्थलगड़ी आंदोलन से सम्बंधित है। खूंटी जिले में प्रवेश करते ही इतने अधिक अर्द्धसैनिक बलों को देखकर मैं वाकई बहुत अधिक डर गया था, लेकिन अभ्यस्त होने के बाद लगा कि ये तो केवल बकरे हैं, जो आम लोगों के धन पर ही पलते हैं।

झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती है, केवल राँची शहर में कुछ सरकारी बसें चलती हैं, अन्यथा सभी बस प्राइवेट आॅपरेटर ही चलाते हैं।

रांची से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर खूंटी जिले के कितहातु गाँव जाने वाले चौक पर लगभग 11 बजे बस और टाटा सूमो की यात्रा के बाद पहुँच गया। चौक पर एक शहीद स्मारक है जो 2016 में हुए पुलिसिया आतंक का गवाह है और यहीं पर पत्थलगड़ी किया गया है।

दस मीटर की दूरी पर एक 10x20 फुट का एक सरकारी पोस्टर पत्थलगड़ी के विरोध में लगा है, लेकिन संविधान में लिखी बातों को आप कैसे गलत साबित कर सकते हैं। इस तरह के पोस्टर पत्थलगड़ी के अलावा गैर आदिवासी इलाकों में भी मिल जाते हैं।

गाड़ी से उतरते ही CRPF के अत्याधुनिक हथियारों से लैस कई जवानों के दर्शन हो गये। बगल के एक झोपड़ीनुमा दुकान में प्रवेश कर गया, क्योंकि थोड़ी दूर आगे थाने के कुछ सिपाही हर आने -जाने वाले से पूछताछ कर रहे थे।

जनजातीय इलाकों में खाने पीने का सामान बहुत ही सस्ता होता है। आटे और गुड़ का बना गुलाबजामुन जितना बड़ा गुलगुला एक रुपये का एक, इडली जैसा सामान भी एक रुपये का, बड़ा सा मालपुआ जिसका स्वाद लाजवाब होता है पांच रुपये का।

क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का गांव

डर और नाश्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी। यहां से उलिहातु का टैम्पो दोपहर 3:30 पर जाता है। 4 किलोमीटर पैदल और 14 किलोमीटर गैस सिलेंडर ढोने वाले टैम्पो की सहायता से बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया। रास्ते में सड़क पर ही गाँव के लोग धान सुखाते दिखाई दिये। धान मुंडारी लोगों की मुख्य फसल है। रोड काफी अच्छी बनी है, क्योंकि नेताओं की यह धारणा है कि बिरसा मुंडा की दर पर जाने से झारखण्ड के आदिवासी समुदाय के वोट मिल जाएंगे।

बिरसा मुंडा के 75 वर्षीय पौत्र सुखराम मुण्डा के पास दो घण्टे रहा। इनके दो लड़कों को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गयी है। इस गाँव में सरकारी स्कूल के साथ ही CRPF कैम्प भी है। लगता है कि ज्ञान और आतंक दोनों साथ साथ चलते हैं।

बिरसा मुंडा के 75 वर्षीय पौत्र सुखराम मुण्डा

यह गाँव मुंडाई दमुदाय का सबसे विकसित गाँव माना जाता है। 2017 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी यहाँ आये थे। सुखराम जी और इनके पड़ोसी के यहाँ एक एक पक्का शौचालय, सुखराम जी के यहाँ एक सोलर लैम्प और बरांडे में रोड बनाने वाली टाइल बिछायी गयी है।

मगर अमित शाह ने एक बड़ा बैनर लगवा कर यह दावा किया कि गांव के सभी 136 परिवारों के लिये घर और 100 सोलर लैम्प बनवा और लगवा दिये गए है। साथ में और भी कई सारे दावे किये गए हैं। शौचालय के नाम पर कई गांवों के प्रत्येक घरों के बाहर एक लगभग 2x3 फुट का नीले रंग का ढाँचा रख दिया गया है। शौच के लिए न शीट न पाइप, न ही कोई पानी का इंतजाम, मगर स्वच्छता का प्रचार दबा के किया गया है।

शौचालय बनाने के लिए 12000 रुपये आवंटित होते हैं, लेकिन ठेकेदारों ने बमुश्किल 700-800 रुपये खर्च किये होंगे। हालांकि घरों में शौचालय के अभाव में भी इस पूरी यात्रा में कहीं भी सड़क या पगडंडियों पर पाखाना नहीं दिखा। वहीं सुखराम जी और गाँव वाले प्रस्तावित माइक्रो घर को मिनी घर में तब्दील करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

मात्र 25 वर्ष जीवित रहे बिरसा मुंडा मूलतः मुण्डा, खड़िया, उरांव इत्यादि जनजातियों के लिए भगत सिंह की तरह एक क्रांतिकारी नायक थे, लेकिन इन्हें भी भगवा रंग में रंगने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। उलिहातु गाँव में कहीं पत्थलगड़ी नहीं दिखा, लेकिन सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है।

उलिहातु से आगे का सफर

उलिहातु से 10 किलोमीटर दूर तीन पहाड़ जंगल पार सेल्दा गाँव होते हुए मारंगबुरु जाना था। लगभग 3 किमी चलने के बाद पहाड़ शुरू होता है। यहीं से एक नौजवान पति—पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए। इन लोगों ने स्थानीय बाजार में वयस्क सुअर को बेचकर एक नवजात को लिया और बाकी पैसों से जरूरत का सामान मोल लिया था।

इनकी बहुत ही इच्छा थी कि मैं इनके साथ गांव चलूँ और अगले दिन अपने राह लगूँ। वक्त की कमी के करण यह संभव नहीं था। 45 मिनट की सहयात्रा के बाद ये लोग अपने गांव की तरफ मुड़ गए और मैं सेल्दा गांव के रास्ते लगा।

बरहाल पहाड़ और जंगल पार करते हुए अंधेरा होने के ठीक पहले मारंगबुरु गाँव पहुँच गया। इस गांव में पत्थलगड़ी नहीं हुई है। गाँव का प्रत्येक परिवार 5 रुपये प्रतिवर्ष मालगुजारी जमा करता है। गांव में बिजली—पानी नहीं है, केवल एक सोलर लैम्प इसी वर्ष लगा है। इसकी रोशनी में गांव वाले अपने पर्व की रात नाचते हैं।

फसल काटने से पहले आदिवासी समाज जंगल देवता सरना (किसी भी एक पेड़ को चुन लिया जाता है) की पूजा करते हैं और रात में हड़िया (चावल का देसी शराब) पीकर सभी लोग जोरदार तरीके से नाच-गान करते हैं। प्रकृति के करीब होने के कारण आदिवासी बहुत ही विनम्र होते हैं। हिंदू धर्म और इनके देवी देवताओं से इनका कोई नाता नहीं है। आदिवासी महिलाएं सिंदूर इत्यादि का प्रयोग नहीं करती हैं।

गांव में एक माध्यमिक विद्यालय और चर्च भी है, गांव के 40 परिवारों में से 10 लोगों ने इसाई धर्म अपना लिया है। विद्यालय के अध्यापक खूंटी से आते हैं, इसलिये अक्सर गैरहाजिर ही रहते हैं। मारंगबुरु गाँव में गरीबी भयानक रूप से फैली है, कुछ ही लोगों के पास ठंड काटने के लिए गरम कपड़े दिखे, अन्यथा सभी आग के सहारे ही ठंड से लड़ते हैं।

लाख की खेती और खेलते बच्चे

पलायन, जीवन और महंगी होती रोटी

कुछ नौजवान दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों में पिछले 4-5 सालों से मजदूरी करने जाने लगे हैं। पिछले पांच वर्षों में आदिवासियों के आर्थिक हालात अत्यंत दयनीय हो गये हैं, इसका मुख्य कारण लाख (मुंडारी भाषा में लाही) के दाम का 900 रुपये से गिरकर 140 -170 रुपये किलो तक आ जाना है, साथ ही रुपये का अवमूल्यन।

सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ से यह काम बखूबी चल रहा है। खूंटी जिले का मुंडारी समाज इस लाख को बेचकर अपनी जरूरत का सामान जैसे कपड़ा, साबुन, तेल, नमक, मसाला, शादी, बच्चों की पढ़ाई, हारी—बीमारी इत्यादि का इंतजाम करते हैं।

खेती से बचे समय में लाख को मुख्यतया कुसुम की डालियों से निकाला जाता है। आदिवासी खेती में रासायनिक खाद का प्रयोग न के बराबर करते हैं। इनकी मुख्य फसल धान ही है, लेकिन अरहर, उडद, आलू और सरसों की भी खेती की जाती है। खेत जोतने के लिए हल बैल का प्रयोग किया जाता है। पूरी यात्रा में केवल दो परिवारों के पास ट्रैक्टर और टीवी दिखा।

यात्रा में किसी भी आदिवासी समुदाय का वजन 60 किलो से अधिक नहीं दिखा, महिलाओं का वजन तो 45 किलो से भी कम। 60 किलो वजन से अधिक केवल तीन ही लोग दिखे जो कि सरकारी नौकरी करते हैं।

और लोगों को मुझ पर संदेह हुआ

मारंगबुरु में आग तापते ढेर सारे लोगों के लिए मैं कौतूहल का विषय बन गया, क्योंकि पहली बार घुमंतू किस्म का कोई बाहरी व्यक्ति इस दुर्गम गांव में आया था। कुछ का मत था कि मैं CID से हूँ और पत्थलगड़ी से संबंधित जानकारी इक्कठा करने आया हूँ। मैंने पूरी कोशिश की कि बातचीत इस मुद्दे पर न हो, बहरहाल इसमें कामयाब रहा और लोग खुलने लगे। दोपहर में बकरी को नाग ने काट लिया था और वह मर गई थी। सोलर लैम्प की रोशनी में उसे काटा गया और जिन लोगों ने काटने में मदद की थी, उनको बराबर का हिस्सा दिया गया। (पके मांस को खाने से विष असर नहीं करता है।)

मुंडारी लोग गाय, बैल, सुअर, बकरी, भेड़ और मुर्गी पालते हैं और गाय को छोड़कर सभी का मांस खाते हैं। गोबर का प्रयोग खेतों में खाद के लिए किया जाता है और लकड़ी को ईधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महिलायें घर में ही धान कूटती हैं।

चावल और सब्जी खाकर रात 9 बजे मैं स्कूल में आठ बच्चों के साथ सोने चल दिया। इन बच्चों में DJ के प्रति गजब का उत्साह था, सभी दरवाजा बंद करके पुरबिया रीमिक्स DJ सुन रहे थे। सुबह हाथ-मुंह धोकर मैं मारंगबुरु गांव से निकल लिया। रास्ते में गाड़ा नदी (मुंडारी भाषा में) के किनारे बसे कई गाँव मिले थे। चार किमी चलने के बाद गितलबेडा गांव आया, यहां शादी थी इसलिये जोरदार तरीके से DJ बज रहा था और बच्चे शाखु के दोनों में मुरमुरा खा रहे थे।

इस तरफ के गाँवों में पत्थलगड़ी नहीं किया गया है। थोड़ी दूर आगे अरक्की जाते एक टेम्पो से राजाबाजार यहां से फोर्स नामक गाड़ी से दलभंगा के एक बहुत बड़े मेले जैसे इतवारी बाजार में आ गया। बाजार एक बहुत बड़े खुले मैदान में लगा था। लोग जमीन पर पॉलीथिन बिछा कर दुकानदारी में लगे थे। जनजातीय लोग लाख लेकर आ रहे थे। लोग बता रहे थे कि आज लाख का भाव 170 रुपये है कल 160 रुपये था, और तीन दिन पहले 140 रुपये था। लोग लाख बेचकर अपने जरूरत का सामान खरीद रहे थे। हड़िया (देसी शराब) और खाने के सामानों का कोई हिसाब ही नहीं था। इस तरफ के गांवों में पत्थलगड़ी की गई है।

हड्डीतोड़ रोड की यात्रा पूरी करके रात 7 बजे अपनी मंजिल कोचांग गांव पहुँच गया। मै बहुत घूमा हूँ लेकिन ऐसी भयानक सड़कों से कभी पाला नहीं पड़ा था। खूंटी-बन्धगाँव होते हुए भी कोचांग पहुंचा जा सकता है, लेकिन बन्धगाँव के रास्ते सवारी गाड़ी नहीं मिलती। यह रोड हाल ही में बनी है।

सीआरपीएफ की बंदूक ही यहां कानून

फिलहाल कोचांग गाँव पत्थलगड़ी आंदोलन का केंद्र बन गया है, इसलिये एक CRPF कैम्प का होना भी लाजमी है जो कि यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूल में स्थापित किया गया है और यहां के बच्चों को 4 किमी दूर किसी अन्य स्कूल में पढ़ने को कहा जा रहा है। सरकार कोचांग गांव में एक सामुदायिक भवन बनवाना चाहती है, लेकिन बिना ग्राम प्रधान और ग्रामीणों की सहमति के।

इसके लिए ग्राम प्रधान से गाँव से बाहर बन्दूक की नोक पर 15 नवम्बर को हस्ताक्षर लिया गया और उसी हस्ताक्षर के नीचे ग्रामीणों से भी दस्तखत लिये जाते हैं धोती बँटवाकर। ग्रामीण सामुदायिक भवन के विरोध में नहीं हैं, वह तो केवल अपनी सहमति से जगह, आकार और इससे जुड़ी सुविधाओं का चयन करना चाहते हैं, जो कि उनका अपना संवैधानिक अधिकार है।

इससे पहले की घटनायें और पत्थलगड़ी में क्या लिखा गया, जिससे सरकार पगला गयी है सुधिपाठक इंटरनेट पर देख सकते हैं। मेरा काम मुंडारी समाज के आर्थिक, सामाजिक और पथलगढ़ी के बाद समाज में आ रहे बदलाव को जानना और समझना है।

कोचांग गाँव में एक चर्च और माध्यमिक मिशनरी स्कूल भी है। शायद 600 या 900 बच्चे पढ़ते हैं, थोड़ा भूल रहा हूँ लगता है कि उम्र का असर है क्या! वार्षिक फीस 300 रुपये है और फादर और फदराइनों (सिस्टर) का वेतन 3000 रुपये है।

गांव में पोस्ट ऑफिस और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी है, लेकिन डॉक्टर और उनका अमला शायद ही कभी आता है। पत्थलगड़ी आंदोलन ने बिजली का इंतजाम कर दिया है, क्योंकि CRPF के जवान तो बिना बिजली के रह ही नहीं सकते हैं। मोबाइल का नेटवर्क केवल एक पहाड़ी पर आता है और वहाँ CRPF के जवानों का कब्जा बना रहता है।

माध्यमिक शिक्षा के बाद लगभग 80% बच्चे आर्थिक हालात के कारण आगे पढ़ना छोड़ देते हैं, जिसके कारण सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ वर्ग बुनियादी रूप से और भी पिछड़ जाता है। आगे की पढ़ाई के लिये सक्षम परिवार के बच्चे खूंटी के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं और वहीं हॉस्टल में रहते हैं। इसलिये जरूरत है कि सामुदायिक भवन बनाने की जगह स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल खोलें जाएं और यह सुनिश्चित किया जाये कि वो किसी भी मायने में प्राइवेट संस्थाओं से पीछे न हों।

तेरहवीं शताब्दी में शेख सादी ने कहा था कि यदि बादशाह किसानों का ख्याल रखता है तो उसे फौज की जरूरत नहीं है। लगभग 75000-80000 रुपये प्रति माह एक CRPF जवान पर खर्च आता है, यदि सरकार वाकई कुछ करना चाहती है तो इस खर्च का केवल 10% ग्रामीणों के उत्थान पर व्यय किया जाय तो तसवीर दूसरी होगी।

पत्थलगड़ी के विरोधियों से भी हुई मुलाकात

कोचांग में एक नौजवान पुजारी (ओझा) मिले, जो पत्थलगड़ी विरोधी थे, क्योंकि लोगों की चेतना ने इनकी आमदनी कम कर दी है। इसी तरह के लोग और साहूकार आंदोलन विरोधी खेमे के हैं। स्थिति तब और बिगड़ गई जब पत्थलगड़ी समर्थकों ने अपना बैंक खोलने का ऐलान कर दिया।

आंदोलन ने लोगों को भारतीय संविधान में लिखे Scheduled Area के ग्राम सभाई अधिकारों जैसे विकास किस रूप में होगा, कैसे होगा और इसका मुनाफा किन लोगों में वितरित होगा इत्यादि के बारे में काफी सचेत कर दिया है।

आदिवासियों के भगत सिंह बिरसा मुंडा

सरकार इस चेतना के स्तर को दबाये रखना चाहती है, अन्यथा इसका फैलाव माइन एरिया में हो गया तो कार्पोरेटी लूट सम्भव नहीं रहेगी। इसलिये ग्रामीणों को आये दिन डराना, किसी-किसी गांव के सभी लोगों को थाने में नामजद करना इत्यादि हर सम्भव हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। कुछ लोगों पर तो इतने तरह के मुकदमे दर्ज कर दिये गये हैं कि अगर वो पकड़ में आ जायें तो सीधा इनकाउंटर कर दें।

लाख की गिरती कीमतों ने आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों की शरण में जाने को मजबूर किया है, जिसका परिणाम पत्थलगड़ी के रूप में सामने आया है।

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