भोजपुरी और हिंदी के चर्चित कथाकार सुरेश कांटक की कहानी 'बेहोशी'
अगर किसी ने 25 साल पहले 'एक बनिहार का आत्मनिवेदन' कहानी पढ़ी होगी तो वह सुरेश कांटक को नहीं भूला होगा। बिहार के बक्सर जिले के कांटक जमीन से जुड़े कहानीकारों में से एक हैं, जिनके पास अपने समाज और यथार्थ को पहचान ने की तीक्ष्ण दृष्टि है। जो लोग शिल्प और भाषा को ही रचना का आभूषण मानते हैं, उन्हें उनसे निराशा हो सकती है। उनके 5 से अधिक कहानी संग्रह आ चुके। उन्होंने उपन्यास भी लिखे और करीब 10 नाटक भी लिखे। विजेंद्र अनिल की परंपरा के रचनाकार सुरेश कांटक हमेशा से प्रतिबद्ध रचनाकार रहे हैं। वह बहुत ही सीधी-साधी भाषा में अपनी कहानी कहते हैं। 'बेहोशी' एक ऐसी कहानी है, जिसमे एक ईमानदार आईएएस अधिकारी राजनीति के भ्रष्ट्राचार से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है। आज पढ़ते हैं हिंदी और भोजपुरी के चर्चित कथाकार सुरेश कांटक की कहानी 'बेहोशी' : विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि
बेहोशी
सुरेश कांटक
माँ की बेहोशी का यह तीसरा दौर था। वह रह-रहकर बेहोश हो जा रही थी। एकलौते बेटे की आत्महत्या उसके कलेजे पर पत्थर की तरह जम गयी थी। जब भी आँखें खुलतीं बेटे का सुन्दर-सलोना रूप उसे बेचैन कर जाता। वह पुनः बेहोश हो जाती।
उसे लगता मेरे कारण मेरे बेटे ने अपने जीवन से नाता तोड़ लिया। अब मैं जी कर भी क्या करूंगी? किसके लिए जिऊंगी! उसके सिवा अब कौन है, इस भरी दुनिया में मेरा! मेरा तन, मन, धन, सब तो वही था! कैसे इतनी बड़ी चूक हो गयी मुझसे! मेरा स्वार्थ मुझ पर हावी हो गया। मेरा सूरज दिन की दोपहरी में ही डूब गया। अब तो हर ओर अंधेरा ही अंधेरा है और वह उसी गहरे अँधेरे में डूब जाती।
पिता जी भी क्या कर सकते थे! माँ की भावनाओं के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश करते और एकटक उसे देखते रहते। अपनी छोटी सी आय से बेटे के हर अरमान को पूरा किया, उसे पढ़ाया लिखाया। अपनी जरूरतों की अनदेखी की और उसके हर इशारे को तरजीह दी। अब वे भी कुछ करने के लायक नहीं रहे। बैठते तो बैठे रह जाते। देखते तो देखते रह जाते। न खुद की खबर, न घर परिवार की खबर।एक मात्र पत्नी की ओर टकटकी लगाए घूरते रहते हैं। बचपन के कई कई दृश्य चलते रहते आँखों के सामने।
‘माँ, पापा से कहो, मैं अब कम्पीटीशन की तैयारी करूँगा।’ एम.ए.करने के बाद राहुल ने कहा था।
‘ठीक है बेटा, तुम्हे जो करना है करो, पापा से बात कर लो, वे कब मना करेंगे तुम्हें!’
पापा जानते थे, राहुल जो कहता है, कर लेता है। बचपन से देखते आ रहे हैं, जो कहा, करके दिखा दिया। जो भी कहना होगा, पहले मम्मी से कहेगा, फिर पापा से। पापा ने भी कभी ना नहीं किया। उन्होंने देखा है होनहार के चिकने पात! खेलना कूदना, मित्रों के साथ हंसी ठहाके लगाना। किसी समस्या को चुनौती देना; उसका जन्मजात स्वभाव।
‘मम्मी, तू दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी हो!’ राहुल हरदम कहा करता था।
‘नहीं बेटा, दुनिया की सभी मम्मी अच्छी होती है। कोई मम्मी बुरी नहीं होती।’
‘तूने कभी मेरी बातों को इनकार नहीं किया। सभी मम्मी ऐसा नहीं करती।’
‘सबकी अपनी समस्याएँ होती हैं बेटा। कोई मम्मी नहीं चाहती कि उसका बेटा किसी से पीछे रहे।’
‘मैं एक दिन बहुत बड़ा अफसर बनूंगा मम्मी, तुम्हें बहुत बड़े बंगले में रखूंगा। नौकर चाकर तुम्हारी सेवा में रहेंगे। पापा उस बंगले के मालिक होंगे।’
‘तू बहुत बड़ा सपना देखता है राहुल! पहले तू अपना कर्त्तव्य तो पूरा कर।’
‘वो तो मैं करूँगा ही मम्मी, मगर तू विश्वास कर। मेरा सपना सपना नहीं, आनेवाला कल है। हकीकत है। तू देख लेना।’
‘अच्छा जा, अपने काम में मन लगा। जो जरूरत है, पापा से कह दे।’
‘राहुल!’
‘हाँ पापा!’
‘सुना है, तेरा रिजल्ट बहुत अच्छा हुआ है।’
‘वह तो आपका प्यार है, पापा! मम्मी का आशीर्वाद है।’
‘तू एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनेगा बेटा। मुझे बार बार यही आभाष होता है।’
‘आपका आशीर्वाद जरूर फलेगा, पापा। मैं आपके सपने को जरूर पूरा करूँगा।’
‘हाँ बेटा, यही है असली सपूत का काम! माँ बाप और पूरे खानदान के नाम को आगे बढ़ाना!’
निकल आये पापा, उस अतीत से। पत्नी की ओर देखने लगे।उसकी आँखें अब भी बंद थीं। रह रह कर आवाज आ रही थी, उसके गले से –’ बबुआ हो! कहवाँ गइल हो बबुआ!’
‘आँखें भर आईं पापा की! ऐसी आर्त पुकार कि कलेजे को बेध दे! गला भर आता है, जब भी वे सुनते हैं यह आर्त पुकार! रोम रोम काँप जाता है। उड़ जाता है मन किसी काल्पनिक लोक में।
बैठे थे पापा दरवाजे पर। दौड़ते हुए आये थे राहुल। पापा के पांवों पर रख दिया था अपना सिर।
पापा के हाथ अनायास चले गए थे उसके सिर पर। ‘जियो बेटे, कहो क्या खबर है ?’ पापा ने उसे उठाते हुए पूछा था।
राहुल की आँखों में आँसू थे। गला भर आया था। आवाज अवरूद्ध थी। उसकी आँखों में आँसू देख पापा को घबराहट हुई थी –’क्या हुआ बेटा? ये आंसू कैसे?’
‘पापा, मैं सेलेक्ट हो गया!निकल गया कम्पीटीशन में!’
‘कौन सा कम्पीटीशन, बेटा?’
‘यू.पी.एस.सी, पापा!’
‘अरे वाह!’ पापा एकाएक निःशब्द हो गए थे। क्या कहें क्या न कहें! कुछ सूझ ही नहीं रहा था। इतनी बड़ी सफलता की खुशी को कैसे अभिव्यक्त करें! कुछ पल किंकर्तव्यविमूढ़! फिर स्वर फूटे, ‘बेटा! मेरा बेटा राहुल!’ पापा की आवाज भर्रा गई। आँखें भर आईं खुशी के आँसू से। बेटे को गले लगा कर भींच लिया बाँहों में।
तब तक आ गयी मम्मी। ‘क्या हुआ बाप बेटे को ?’ पूछ पड़ी।
पापा की आँखों से ढर ढर ढर रहे थे आँसू। भर्राए गले से बोले, बेटे का माथा चूमते हुए, ‘अपना बेटा साहब हो गया, राहुल की माँ! अपना बेटा साहब हो गया!’
‘सच!’ उछल पडी थी मम्मी।
‘हाँ, भाग्यवान! जाओ, मिठाइयाँ लाओ। मुँह मीठा कराओ। गाँव घर में बाँटो। मेरा बेटा साहब हो गया! अपना सपना पूरा हो गया!’ नाच उठा पापा का मन मयूर! मम्मी के पाँव भी नहीं थे जमीन पर। दौड़ पडी पूरे मोहल्ले में। बाँटने लगी खुशियाँ घर घर में।
वही मम्मी थी बेहोश अब। आँखें बंद थी कई दिनों से। रह—रहकर निकलती थी, बस एक ही आवाज – ‘बबुआ हो!! कहँवा गईल हो बबुआ!!’
फिर डूब गए पापा अतीत में। दरवाजे पर लगी थी बिरादरी वालों की भीड़। आने जाने वालों का तांता लगा था। अपनी अपनी लड़कियों का फोटो लेकर आने लगे थे तमाम रिश्तेदार। किस को हाँ कहें, किस को ना कहें! पत्नी से राय ली तो उसने बेटे पर डाल दी पूरी जिम्मेवारी। ‘राहुल से पूछिए, मैं कुछ नहीं कहूँगी। जैसा कहे वैसा कीजिए। जो भी होगा उसकी पसंद से होगा।’
‘तू नहीं समझोगी, राहुल की मम्मी! एकलौता बेटा है, सोच—समझ कर निर्णय लेना होगा।’
‘आप कौन होते हैं निर्णय लेने वाले? राहुल बच्चा नहीं है। दुनिया जहान का निर्णय वो लेता है, अपने लिए भी लेगा!’
‘ठीक है, जैसा तुम कहो। फोन कर के पूछता हूँ।’
‘पापा ने फोन किया – बेटा, शादी के बारे में क्या सोचते हो? हर रोज लड़की वालों का मेला लगा रहता है। कितने लोगों की सेवा करूँच?’
‘अभी मत सोचिए, पापा! सबसे कहिये, अभी देर है। शादी अभी नहीं होगी।’
‘क्यों बेटा? समय से सबकुछ अच्छा लगता है।’
‘मैं बताऊँगा पापा। अभी सरकारी काम की बहुत भीड़ है। मंत्री जी का दौरा है। बहुत भाग दौड़ है। वैसे एक आफर यहाँ भी आया है। बहुत बड़ा आदमी है, उसकी बेटी है। मैं बाद में बात करूँगा, अभी एक दौरे पर जाना है।’
‘बबुआ हो! कहवाँ गईल हो बबुआ!!’ फिर पत्नी की कराह कानों में पडी। पापा ने चारो तरफ देखा, कहीं कोई नहीं था। किससे कहें मन की पीड़ा! घर सुनसान पडा था। शोक पसरा था निश्चिन्त होकर। झाँय झाँय कर रहा था घर दुआर आँगन। आने वाले आते थे, शोक जता कर चले जाते थे। कितनो के बनावटी चहरे उनकी छुपी हुई खुशी और इर्ष्या को अनचाहे ही प्रकट कर देते थे।
राहुल की शादी उसी लड़की से हुई थी, जिसकी चर्चा उसने फोन पर की थी। पापा और मम्मी को भी आकर ले गये थे, राहुल। लेकिन उस बड़े आदमी के आगे पापा की क्या बिसात! दुल्हा इतना बड़ा ऑफीसर। बराती और सराती सभी बड़े बड़े लोग! पापा को लगा था, वे किसी बड़े आदमी की बरात करने आ गए हैं। दुआ सलाम के अलावे सारे रश्म रिवाज बेटी वालों के अनुसार। गाजे बाजे,खान-पान, शोभा- सजावट सब किसी राजा की शादी सा। बेटा खुश था तो पापा भी खुश थे। मम्मी भी खुश थी। मगर शादी के बाद बहुत दिन वहाँ नहीं टिक पाए मम्मी पापा। अपना घर बुलाने लगा चिल्ला चिल्ला कर! बहू तो सुन्दर थी ही। मानो चाँद का टुकड़ा! मगर भीतर धब्बा था बहौत बड़ा। पैर छू कर चली गयी तो फिर झाँकने भी नहीं आई।
राहुल ने माँ के चहरे को देखा था उस दिन। उसे लगा था, माँ के सपने में कोई दरार सा लग गया है। उसने सोचा था, वह इस दरार को अपने और पत्नी के व्यवहार से पाट देगा। मम्मी पापा दोनों को अपने साथ रखेगा। किसी चीज की कमी नहीं होगी। वे खुश हो जायेंगे। रिश्ते नाते की नाराजगी भी दूर हो जायेगी।
पापा जी से अधिक, राहुल मम्मी की भावनाओं के साथ जुडे थे, वे उसकी आँखों की उदासी को पल भर में परख जाते थे। उनकी साँसें मम्मी की साँसों से इस कदर जुडी थीं कि जरा सी रुकावट से तड़प उठाते थे।
बहू मम्मी से एक ख़ास दूरी बना कर रहने वाली थी। नए विचारों और नए फैशन की पुजारी ही समझिये। अपने मित्रों दोस्तों के साथ घुली मिली रहने वाली और मम्मी पापा के विचारों को पुराने कबाड़ सी समझाने वाली। अन्दर से विचार जब मेल नहीं खाते, चेहरे पर उसके भाव तैरने ही लगते हैं।
मम्मी पापा ने उसके भावों को तुरंत ताड़ लिया था और बहुत जल्दी गाँव चले आये थे। इसके लिए उन्होंनें कई बहाने बनाए थे। राहुल भी राजी हो गये थे।
कुछ दिन बीत गए। मम्मी और पापा की जुदाई राहुल के लिए बहुत असह्य हो गयी। पापा की कर्तव्यनिष्ठा और मम्मी का दुलार प्यार उन्हें भुलाये नहीं भूलते। रात में वे बेचैन हो बिछावन पर करवटें बदलने लगते। पत्नी बार बार पूछती – ‘क्यों बेचैन हैं? क्या कष्ट है आप को? डाक्टर को क्यों नहीं बुला लेते?’
‘डॉक्टर के बस की बात नहीं है रश्मि! वह मेरे रोग का निदान नहीं कर सकता!’
‘कैसा रोग है यह? फिर कौन ठीक करेगा? यूँ ही तड़पते रहेंगें तो जीवन का आनंद क्या रह जाएगा?’
‘माँ की याद आ रही है रश्मि! सुनो, माँ-बुला रही है, ‘राहुल, खाना खा लो बेटा! अपनी सेहत का भी तो ख्याल रख।’
माँ की सूरत नाचने लगी राहुल की आँखों में। पापा भी खड़े हो गए पास आकर। ‘आज कहाँ जाना है, बेटा? देखो जल्दी लौट आना। ज़माना खराब है। कोई किसी को नहीं पहचानता। समय से घर आ जाना।’
‘सुना रश्मि, माँ की आवाज थी। पिता जी भी बोल रहे थे।’
तुम प्रशासक हो राहुल! तुम्हारे लिए इतनी भावुकता ठीक नहीं!’
‘माँ बाप को याद करना भावुकता है रश्मि?’
‘हाँ है! भावुक तो बुजदिल होते हैं! हमेशा अतीत में अंटके रहते हैं।’
‘तुम्हें अपनी माँ से वह प्यार नहीं मिला है, जो मुझे मिला है। वरना ऐसे नहीं कहती।’
‘मेरी माँ की तुलना अपनी माँ से मत करो!’
‘क्यों?’
‘वैसी कई नौकरानियां हैं मेरी माँ के पास!’
‘नौकरानी भी किसी की माँ होती है, रश्मि! और नौकर भी एक आदमी होता है!’
‘मैं किसी नौकर की पत्नी नहीं हूँ, प्रशासक की पत्नी हूँ। मेरे पिता जी ने मेरी शादी एक प्रशासक से की है, नौकर से नहीं!’
‘प्रशासक भी नौकर होता है।’
‘किसका?’
‘सरकार का, जनता का!’
‘तू प्रशासक तो हो गए लेकिन तुम्हारा दिमाग अभी बहुत पिछड़ा है! तुम्हारा फेमिली बैकग्राउंड अच्छा नहीं है।’
‘यह क्या कह रही हो?’
‘सही कह रही हूँ।’
‘प्रेम, सहानुभूति, संवेदना रखना पिछड़ापन है?’
हाँ है, तूने कभी किसी से प्रेम किया है?’
‘हाँ।’
‘किससे?’
‘माँ से, बाप से!’
बस! ठहाका लगाकर हँस पडी रश्मि।’ भूचड!’
‘और तूने?’
‘बहुत सारे दीवाने हैं मेरे। सैकड़ों ब्वायफ्रेंड हैं। जान देते हैं जान! वो तो पिता जी ने कहा, ‘लड़का क्लास वन अफसर है, कर लो शादी! वरना...’
‘मतलब तुम्हें मुझसे नहीं, मेरे पद से प्रेम है?’
‘ऐसा कब कहा मैंने?’
‘अभी अभी तो कह रही थी।’
‘नहीं, तुम्हारी समझ में अंतर है। एक प्रशासक को इतना भावुक नहीं होना चाहिए।’
‘खैर छोड़ो, कल जाता हूँ गाँव, मम्मी पापा को लाता हूँ। बिना उनके घर अच्छा नहीं लगता। उन्हीं के त्याग और तपस्या का फल है यह।’
‘लाये तो थे, रुके नहीं वे। अब भी नहीं रुकेंगें। पुराने विचार के हैं। यहाँ अच्छा नहीं लगेगा उन्हें।’
‘तू चाहोगी तो अच्छा लगेगा। माँ बाप की तरह प्रेम दोगी तो रह लेंगे।’
‘इतना अधिक समय नहीं है मेरे पास कि उनके पास बैठ कर उनके पैर दबाती रहूँ।’
‘अपने माँ बाप को देती थी न?’
‘नहीं, उन्हें भी नहीं दिया।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि उन्होंने भी नहीं दिया मुझे।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि समय नहीं था उनके पास। मेरे पास भी नहीं था। बचपन से हॉस्टल में रही, पैसे मिलते रहे। यारों ने प्यार दिया तो प्यार लिया।’
‘मगर मेरी माँ को देना होगा। उनके बिना मैं जी नहीं सकता।’
‘उनके लिए अलग से नौकर और नौकरानी रख दो।’
‘नौकर-नौकरानी प्यार नहीं दे सकते, सेवा कर सकते हैं। प्यार अपनों से मिलता है।’
‘तो तू अपना काम छोड़कर उन्हें प्यार देते रहना।’
‘तू क्या करोगी?’
‘मैं अपने पिता जी के घर चली जाऊँगी। मेरे साथ मेरी बहुत सारी सहेलियाँ हैं! ब्वायफ्रेंड हैं। सोसाइटी हैं। क्लब हैं!’
‘ठीक है!’ राहुल कसमसा कर रह गया।
दोनों चुप हो गए। दूसरे दिन राहुल अपने गाँव चले गए। पापा मम्मी को लेकर लौटे। उसी शाम रश्मि मायके चली गयी। राहुल एक सरकारी मीटिंग में चले गये। देर रात को लौटे तो मम्मी जगी हुई थी। पापा सो गए थे। ‘बहुत देर कर दी बेटा।’ देखते ही माँ ने कहा।
‘हाँ माँ, सरकारी नौकरी में यही होता है।’
‘बहू कहाँ है?’
‘मायके गयी है।’
‘कब?’
‘आज ही गयी है।’
‘लौटेगी कब?’
‘जब जी होगा।’
‘यह क्या कह रहे हो बेटा!’
‘ठीक कह रहा हूँ माँ। बड़े बाप की बेटी है। जो जी में आता है, करती है। नाचना, गाना, क्लब, सोसाइटी से फुर्सत ही नहीं उसे!’
‘ऐसे कैसे चलेगा बेटा! जीवन दो पहियों की गाडी है, एक से नहीं चलती। समझ गयी मैं, कल मुझे गाँव पहुंचा देना। उसे बुला लेना। मैं यहाँ रह कर क्या करूँगी? खाना खाओगे न बेटा?’
‘नहीं माँ, बाहर ही खा लिया हूँ। आपलोग खा लिए न?’
‘हाँ बेटा।’
‘ठीक है माँ, आप भी सो जाइए। मैं कुछ काम कर के सो जाऊँगा।’
‘रात में भी काम करना पड़ता है बेटा?’
‘हाँ, माँ, साहब बनने में यही दुःख है।’
‘और हाँ, सुन लो माँ, तू अब कहीं नहीं जाओगी! मेरे साथ रहोगी! पापा जी भी रहेंगें।’
‘बहू?’
‘वह भी आयेगी। साथ रहेगी। तुम्हारा हक़ पहले बनाता है मुझ पर। इसके बाद उसका है!’
‘तब तो सोने पे सुहागा होगा, बेटा! मैं भी यही चाहती हूँ।’
राहुल चले गए अपने कमरे में। मम्मी भी सो गयी सुख की निद्रा में।
रात में राहुल को एक सरकारी सन्देश मिला। जिसका आशय था, मंत्री जी के किसी विशेष फंड में रुपये डालना है।’ राहुल का दिमाग भारी हो गया।
इतने सारे रुपये आयेंगे कहाँ से? सख्त आदेश भी है। मैं रुपये छापता तो हूँ नहीं! गलत कमाई भी नहीं करता। क्या करूँ अब? किससे माँगूं? बहुत देर तक सोचते रहे राहुल।
तभी राहुल को रश्मि की याद आई। मोबाइल ऑन की। ‘रश्मि, बहुत जरूरी काम है, जल्दी आ जाओ!’
‘क्या?’
‘आओ तो बतते हैं।’
‘पहले बताओ।’
‘कुछ पैसे की जरूरत है।’
‘कितने?’
‘साठ।’
‘बस! इतने में घबडा गए? पापा के लिए कुछ भी नहीं है।’
‘इसीलिए तो कहा तुमसे।’
‘ठीक है, मगर पहले अपनी मम्मी से माँग कर तो देखो।’
‘यह क्या कहने लगी?’
‘वही जो तुम कहते थे, प्रेम, प्यार, संवेदना...’
राहुल समझ गये, रश्मि का आशय। मस्तिष्क की तंतुएं तेज हो गईं। रश्मि मुझे झुकाना चाहती है अपने कदमों में, इसका सीधा अर्थ निकाला उसने। माँ के प्रति मेरे प्रेम को तोड़ना चाहती है। माँ को साथ रखने के नाम पर कई रात लड़ी। फिर नौकरानी से तुलना की। अपने पिता के पैसे पर बहुत गुमान है उसे। पैसे के लिए माँ से कहने का क्या मतलब है उसका? ताने कसती है माँ पर। उसके प्रेम पर। पैसे को प्यार से अधिक तरजीह देती है। क्या पैसे के लिए माँ को छोड़ दूं? उसे गाँव पहुंचा दूं? पैसे वाले बड़े बाप की बेटी है तो क्या हुआ। मेरे निर्माण में उसका तो कोई हाथ नहीं है न? मैंने उससे शादी कर के गलती तो नहीं कर दी। पापा के पास तो बहुत सारे आये थे रिश्ते। मैंने पैसे का तंत्र नहीं समझा। अपनी जमीन छोड़कर बहुत ऊँची छलांग लगा दी। अब क्या होगा!
फिर साठ लाख रुपये कहाँ से लाऊँ? माँगने वाले ने समझा, यह बन्दा भी औरों की तरह कमाता है खूब। मगर मेरी तो जमीन ही है दूसरी। जनता का पैसा जनता के काम आये, मैं लूटने वाला कौन हूँ?
रातभर धुनते रहे राहुल खुद को, इसी उधेड़बुन में। माँ, रश्मि और मंत्री जी का आदेश, तीनो के बीच लटके रहे बहुत देर तक। लगातार करवटें बदलते रहे। निदान कोई नहीं दिख रहा था। परेशान होकर उठ बैठे। फिर सोचने लगे माँ को सेवा की जरुरत है, रश्मि उसके साथ रहना नहीं चाहती। अकेले कैसे छोड़ दूँ उसे गाँव पर! पापा भी कमजोर हो गए। मेरा माँ के साथ रहना भी रश्मि को अच्छा नहीं लगता। सरकारी महकमे में मेरी अपनी साख है। जनता को काम चाहिए। आन्दोलन छेड़ते देर नहीं लगती। ऊपर वालों को पैसा चाहिए। रश्मि को मौज मस्ती से मतलब है। वह मुझ पर शासन करना चाहती है।
मगर ऐसा कभी नहीं होगा। नहीं होगा ऐसा कभी भी। बुलाता हूँ रश्मि को। नहीं, वह आयेगी नहीं, मुझे ही जाना पड़ेगा उसके पास। वे उठे और गाड़ी लेकर चल दिये, बिना किसी गार्ड के। बंगले पर तैनात संतरी ने गेट खोल दिया और साहेब को जाते हुए देखता रहा।
रश्मि के पास पहुँच कर राहुल ने फरमान जारी कर दी, ‘अभी तुरंत चलना है।’
‘कहाँ?’
‘अपने बंगले पर।’
‘क्यों?’
‘जरूरी काम है।’
‘मैं नहीं जाऊंगी।’
‘चलना है।’
‘तुम्हारी माँ है न?’
‘हाँ है, तुम्हें क्या? रहेगी भी।’
‘वही रहेगी।’
‘और तू?’
‘यहीं रहूँगी।’
‘कब तक?’
‘आजीवन। तुम्हारे साथ नहीं रहना मुझे।’
‘क्या?’
‘हाँ, तुम उस योग्य नहीं।’
राहुल को को लगा, खड़े—खड़े गिर जाएगा। वे पास रखी कुर्सी पर बैठ गये। आँखें बंद हो गईं। नाचने लगी धरती। नाचने लगा आसमान। रुक गईं हवाएं। हो गया पसीने से तरबतर पूरा शरीर।
‘अब क्यों बैठे हो? जाओ अपने बंगले पर। वैसे वैसे कई बंगले हैं मेरे पापा के पास। तुम्हें अपनी साहबी का घमंड है। वैसे अनगिन साहब हैं मेरे पापा की मुट्ठी में। जाओ, चले जाओ। हिसाब बाद में कर लूँगी।’
यह राहुल का घोर अपमान था। वे इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सके। उसे और कुछ कहना उचित नहीं लगा।
उठे और चल दिये। गाड़ी भी वहीं रह गयी। उसके बाद राहुल कहाँ गए किसी को पता नहीं।
कोई कहता है, आत्महत्या कर ली। कोई कहता है, साधु हो गए। कोई कहता है, अखबार में निकला था, रेल की पटरी पर कूद कर जान देने की खबर!
मगर माँ तभी से बेहोश है। बेहोशी में ही चिल्लाती रहती है –'बबुआ हो, कहँवा गइल हो बबुआ...’