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विमर्श

क्या होगी बसपा की भावी राजनीति

Prema Negi
16 Dec 2018 5:12 PM IST
क्या होगी बसपा की भावी राजनीति
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भक्ति से भावनाएँ भड़कायी जा सकती हैं या पाखंड रचे जा सकते हैं, भक्ति से वोट नहीं मिलते। कम से कम बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ यही हो रहा है। उनके भक्त उनको ज़िंदा देवी घोषित करते हुए एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण कर रहे हैं...

वरिष्ठ लेखक जयप्रकाश कर्दम का विश्लेषण

पाँच राज्यों में हुए हाल के विधानसभा चुनावों से देश का राजनीतिक परिदृश्य यह संकेत दे रहा है कि देश की जनता राजनीतिक स्तर पर मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा के बीच विभाजित है और आगामी लोकसभा चुनाव का दंगल भी इन दो पार्टियों के बीच ही होना सम्भावित है। अन्य दलों का प्रभाव क्षेत्रीय स्तर तक सीमित है। उनमें से कोई भी दल राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व प्रदान करने की स्थिति में नहीं है। बहुजन समाज पार्टी की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है।

बसपा की घोषित रूप से ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा की कोई नीति नहीं रही है। उसका उद्देश्य रहा है अपने दम पर सत्ता पर क़ाबिज़ होना। ऐसी सम्भावना नहीं होने पर वह किसी अभी अन्य पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली मज़बूत सरकार नहीं, अपितु बसपा की मदद से बनाने वाली मजबूर सरकार की पक्षधर है, जो बसपा के अनुसार चले।

यह एक प्रकार की ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा की नीति ही है। वैसे राजनीति में किसी नीति या सिद्धांत का कोई मूल्य नहीं होता है। अवसर आने पर, नीति और सिद्धांत तो ताक पर रखकर किसी भी राजनीतिक दल या मोर्चा के साथ तालमेल कर सरकार बनायी जा सकती है, यहाँ तक कि विरोधी विचारधारा वाले दल या मोर्चा के साथ मिलकर भी।

राजनीतिक दलों द्वारा गठबंधन बनाना और तोड़ना आज की राजनीति में सामान्य सी घटना है। अधिकांश राजनीतिक दल ऐसा कर रहे हैं। इसका अनुकरण कर बसपा ने भी कई बार सरकार बनायी है। लेकिन बसपा और अन्य पार्टियों में एक मौलिक अंतर है। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियाँ किसी न किसी रूप में, कम या ज़्यादा हिंदुत्व का पोषण करती हैं और इस रूप में वे वर्ण-व्यवस्था और जातिगत भेदभाव से ग्रस्त भारतीय समाज-व्यवस्था के ताने-बने को थोड़ी-बहुत लीपा-पोती के साथ यथावत बनाए रखती हैं। इनमें किसी पार्टी का हिंदुत्व कट्टर और किसी का उदार हो सकता है। हिंदुत्व का ही दूसरा नाम ब्राह्मणवाद है।

बसपा की पहचान एक अंबेडकरवादी पार्टी के रूप में है और अंबेडकरवाद की दृष्टि में ब्राह्मणवाद दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है। बहुजन समाज पार्टी द्वारा किसी भी हिंदुवादी या ब्राह्मणवाद पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने में कोई दिक़्क़त नहीं है, क्योंकि राजनीति का असली उद्देश्य सत्ता प्राप्ति होता है और राजनीतिक सत्ता की चाबी से उन तालों को खोला जा सकता है, जिनसे दलितों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हों तथा सामाजिक असमानता, अन्याय और शोषण से मुक्त हो प्रगति और विकास की दौड़ में शेष समाज के समकक्ष खड़े हो सकें।

ऐसा तभी सम्भव है जब वह अन्य पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने के बावजूद अपनी अंबेडकरवादी चेतना को अप्रभावित रखकर समतावादी समाज निर्माण के अपने एजेंडे पर प्रतिबद्धता से कार्य कर सके।

इसी बिन्दु पर बसपा से बड़ी चूक हुई दिखायी देती है। भाजपा के साथ गठजोड़ के दौरान जहाँ बसपा ने बहुजन से सर्वजनवाद की ओर क़दम बढ़ाए, ब्राह्मणवाद ने बसपा की विचारधारा में सेंध लगा दी।

भाजपा की पहचान एक घोर ब्राह्मणवादी पार्टी के रूप में है। अंबेडकरवाद और ब्राह्मणवाद एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न और विरोधी हैं। ब्राह्मणवाद जहाँ असमानता का पोषक है, अंबेडकरवाद समानता का पक्षधर और पैरोकार है। सर्वजनवाद शोषक और शोषित, अत्याचारी और पीड़ित दोनों को एक साथ लेकर चलने की नीति है।

समानतावाद और असमानवाद दोनों कभी एक साथ नहीं चल सकते। ब्राह्मणवाद चाहता है कि वह अंबेडकरवाद का ब्राह्मणीकरण या हिंदुकरण कर उसकी धार को कुन्द कर दे और उसे अपने में समाहित कर ले। अंबेडकरवाद को समाप्त करने की यह एक कुटिल नीति है। इसमें अम्बेडकर का नाम तो ख़ूब लिया जाएगा किंतु उनके विचारों को दफ़न किया जाएगा। इसलिए भाजपा बसपा का साथ पाकर हमेशा ख़ुश होगी क्योंकि इससे उसको अंबेडकरवाद को दफ़न करने के अपने लक्ष्य को पाने में सुविधा होगी।

भाजपा के साथ बसपा की गठबंधन सरकार के दौरान ब्राह्मणवाद की सक्रियता देखने को मिली। राजनीतिक मंचों पर ब्राह्मणवाद के प्रतीक शंख की ध्वनि गूँजी तो समाज के बीच ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ जैसे नारे भी ज़ोर-शोर से सुनायी देने लगे। इसे समाज में बसपा के हिंदुकरण के रूप में देखा गया। इसने बहुजन समाज के एक बड़े वर्ग में मायावती और बसपा के प्रति अविश्वसनीयता और असंतोष को जन्म दिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि उसके बाद हुए विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों में बसपा को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट आयी, जो दलित-बहुजन समाज में उसकी ढीली होती पकड़ का संकेत है। इसका फ़ायदा भाजपा को मिला और बहुजन समाज का बहुत बड़ा वोट बैंक बसपा से भाजपा की ओर चला गया। बसपा की इस असफलता के पीछे मूल कारण अपनी वैचारिक लाइन से अलग हटने की उसकी छवि रही है।

आज बसपा न उत्तर प्रदेश में सत्ता में और है और न संसद उसका कोई वजूद है। पिछले कुछ उपचुनावों में उसने भाजपा के विरुद्ध सपा का समर्थन कर समाज के बीच अपनी साख बढ़ाने की कोशिश की, किंतु हाल के विधानसभा चुनावों में जिस तरह उसने छत्तीसगढ़ में ग़ैर-भाजपा, ग़ैर-कांग्रेस की नीति को अपनाते हुए अजित जोगी के साथ गठबंधन कर और मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी अपने दम पर चुनाव लड़ा, उससे लगता नहीं कि कोई बड़ा लाभ उसको हुआ है।

बसपा ने चुनाव पश्चात सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन दिया है, किंतु यदि चुनावों से पहले ही वह कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ती तो शायद मध्यप्रदेश और राजस्थान का परिदृश्य कुछ और होता और उसमें बसपा की उपलब्धि भी शायद कहीं बेहतर होती।

उत्तर प्रदेश को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में बसपा अपने बूते चुनाव जीतकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। आज की तारीख़ में उत्तर प्रदेश में भी उसकी स्थिति बहुत सशक्त नहीं है। ऐसे में, किसी भी राज्य में उसका अपने बूते चुनाव लड़ना भले ही उसकी रणनीतिक दूरदृष्टि हो, किंतु आज के समय में जब भाजपा की निरंकुश सत्ता संविधान और संवैधानिक व्यवस्था को कमज़ोर कर दलित-बहुजन समाज के अस्तित्व को चुनौती दे रही हो, भाजपा को हराना उसकी प्राथमिकता में होना चाहिए था।

ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा की नीति अपनाकर अपने बूते चुनाव लड़ना बसपा की राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है। वह भी उन राज्यों में जहाँ बसपा का बहुत बड़ा जनाधार नहीं है। एक ओर चुनाव के पश्चात कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए समर्थन देना, दूसरी ओर कांग्रेस के नेतृत्व में भाजपा विरोधी मोर्चा की बैठकों से दूर रहना बसपा के द्वंद को दर्शाता है।

चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात समर्थन या गठबंधन में बहुत अंतर होता है। चुनाव-पूर्व की तुलना में चुनाव-पश्चात समर्थन या समझौता कम विश्वसनीय होता है। छतीसगढ में कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत मिला है तथा मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी सरकार बनाने के लिए वह बसपा पर निर्भर नहीं है।

बिना बसपा के भी उनकी सरकार सहजता से बन रही है। वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस के पास यह सोचने का आधार है कि वह बसपा के बिना भी चुनाव जीतकर सरकार बना सकती है। इन विधानसभा चुनावों में बसपा, कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने में बड़ी सौदेबाज़ी करने की स्थिति में थी, लेकिन अब बसपा की उम्मीदों के अनुरूप परिणाम नहीं आने पर वह उतनी बड़ी सौदेबाज़ी करने की स्थिति में दिखायी नहीं देती है

बहुजन समाज का राजनेता देश का प्रधानमंत्री बनें बहुजन समाज यह चाहता है। मायावती बहुजन समाज की सबसे बड़े जनाधार वाली और संभावनापूर्ण नेता हैं, इसलिए यदि वह प्रधानमंत्री बनने का सपना देखती हैं तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। किंतु सपना देखना भर काफ़ी नहीं है। सपनों को साकार करने के लिए एक सुचिंतित दृष्टिकोण और सुव्यवस्थित रणनीति के तहत सही दिशा में प्रयास करने की भी आवश्यकता होती है।

मायावती देश की अगली प्रधानमंत्री बनें इसके लिए कोई ठोस दृष्टिकोण, रणनीति और दिशा अभी तक स्पष्ट नहीं है। बहनजी स्वयं काफ़ी भ्रमित सी दिखाई देती हैं। कभी वह भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाती हैं, कभी कांग्रेस के साथ नज़दीकी बढाते हुए भाजपा विरोधी मोर्चे में शामिल होती हैं और कभी ग़ैर-भाजपा ग़ैर-कांग्रेस की नीति अपनाते हुए दोनों से दूरी बना लेती हैं। इस तरह से कोई स्पष्ट संदेश वह जनता को नहीं दे पातीं हैं कि उनकी पोलिटिक्स क्या है। बसपा और मायावती को लेकर एक भ्रम की स्थिति जनता के बीच बनी रहती है।

दलित समाज पहले से अंबेडकरवादी रहा है, किंतु पिछले कुछ वर्षों से देश का पिछड़ा, अल्पसंख्यक और आदिवासी समाज भी तेज़ी से अंबेडकरवाद की ओर आकृष्ट हुआ है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसमें दलित साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका रही है, जिसने बहुजन युवा वर्ग को अंबेडकरवाद से परिचित कराया और उसके साथ जोड़ा है।

यह युवा वर्ग समूचे बहुजन समाज को प्रभावित कर रहा है। अन्य नेताओं की तरह मायावती भी यदि प्रधानमंत्री बनने की चाह रखती हैं तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। बहुजन समाज भी मायावती को देश का प्रधानमंत्री देखना चाहता है, किंतु अंबेडकरवाद के साथ।

बसपा और मायावती को इस तथ्य को समझना होगाकि उनका मुख्य वोट बैंक बहुजन समाज है, सवर्ण समाज नहीं। वह सवर्णों को कितना ही भी ख़ुश करने की कोशिश करें उनका वोट भाजपा और कांग्रेस को ही जाएगा बसपा को नहीं। यदि बसपा भी बहुजन की बात छोड़कर सर्वजन की ही बात करेगी तो उसमें तथा भाजपा और कांग्रेस में क्या अंतर रह जाएगा?

इसलिए बसपा को यदि अपना अस्तित्व बचाना है और सत्ता की ओर मज़बूत क़दम बढ़ाने हैं तो सर्वजन की सैद्धांतिकी अपनाने के बजाए उसे स्वयं को बहुजन पर ही केंद्रित करना होगा। जितनी प्रखर आलोचना और जितना तीव्र प्रहार वह ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादियों पर करेंगी उतना ही बहुजन समाज का समर्थन उनको मिलेगा। ब्राह्मणवाद विरोध का यह रास्ता ही उनको सत्ता तक ले जा सकता है। किंतु इस तथ्य को शायद समझा नहीं जा रहा है।

जिस तरह मोदी भक्त हर समय मोदी चालीसा या मोदी पुराण बाँचते रहते हैं तथा सब जगह मोदी को ही देखते या देखने की कल्पना करते हुए मोदी को देश का एकमात्र विकल्पहीन नेता प्रचारित करते हैं, लगभग उसी तरह बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती भक्तों से घिरी दिखायी देती हैं, जो बहुत ज़ोर-शोर से मायावती को देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के लिए उतनी संख्या में लोकसभा की सीटें कैसे जीती जाएँगी इसकी कोई ठोस रणनीति उनके पास नहीं है।

भक्तों के पास भावनाओं का आवेग होता है विचार और तर्क का संवेग और शक्ति नहीं। भक्ति से भावनाएँ भड़कायी जा सकती हैं या पाखंड रचे जा सकते हैं, भक्ति से वोट नहीं मिलते। कम से कम बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ यही हो रहा है। उनके भक्त उनको ज़िंदा देवी घोषित करते हुए एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण कर रहे हैं जिसमें सर्वत्र मायावती ही मायावती छायी हुई हैं और दूर-दूर उनका कोई विकल्प नहीं है।

भक्तों की इस भीड़ ने ही उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में ज़मीनी स्तर पर कार्य करने के बजाए सोशल मीडिया पर धमाल मचाते हुए बसपा को 400 सीटें जीतने के दावे कर दिए। परिणाम क्या निकला यह बताने की ज़रूरत नहीं है। भक्तों की यही भीड़ अब ज़ोर-शोर से मायावती को देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित कर रही है।

भक्तों की भीड़ यह नहीं समझ रही है कि केवल नारों और दावों से सरकार नहीं बनती, सरकार वोट से बनती है और वोट प्राप्त करने के लिए जनता का विश्वास और उसके अंदर गहरी पैठ का होना ज़रूरी है। भक्तों की भीड़ मोदी की भी है, लेकिन वह भीड़ दावे करने के साथ-साथ ज़मीनी स्तर पर मोदी को जीतने के लिए कार्य भी करती है। उसके पीछे उनके थिंक टैंक का मार्गदर्शन भी होता है। मायावती-भक्तों के साथ ऐसा नहीं है।

बसपा की यह एक बड़ी कमज़ोरी रही है कि उसने अपना कोई थिंक टैंक विकसित नहीं किया। बसपा की दूसरी कमज़ोरी अपने पुराने कार्यकर्त्ताओं की उपेक्षा करना भी रहा है। बसपा को खड़ा करने में बामसेफ के कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी मेहनत और भूमिका रही है। उन्होंने घर-घर जाकर बसपा के लिए काम किया है। वोटर तक उनकी पहुँच और पकड़ है, किंतु आज उन पुराने कार्यकर्ताओं की कोई पूछ नहीं है। वस्तुत: बसपा की दृष्टि में लेखकों, बौद्धिकों की समाज-निर्माण अथवा राजनीतिक मार्गदर्शन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है, शायद इसीलिए बसपा ने उनसे दूरी बनाकर रखी है।

बहन जी दलितों को अपना वोट बैंक समझती हैं तो इसमें वह कहीं ग़लती पर नहीं हैं। बसपा का नाम भले ही बहुजन समाज पार्टी हो, उसकी पहचान एक दलित पार्टी के रूप में ही है और मायावती की एक दलित नेत्री के रूप में। बसपा की यह पहचान और अपनी पार्टी होने का भाव दलितों को सहज रूप से उसकी ओर आकृष्ट करता है।

पार्टी का नीला झंडा और हाथी का चुनाव चिन्ह बसपा की ओर दलितों के झुकाव का दूसरा बड़ा कारण है। कभी बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा स्थापित भारतीय रिपब्लिकन पार्टी अपनाए गए नीला रंग और हाथी का निशान समस्त देश में अंबेडकरवाद और दलित आंदोलन के प्रतीक रहे हैं।

दलित समाज बाबा साहब अम्बेडकर का दीवाना रहा है। अम्बेडकर का नाम ही उनमें स्वाभिमान चेतना का संचार कर देता है। इसलिए अंबेडकरवाद से प्रभावित दलित समाज का इन प्रतीकों से भावनात्मक लगाव रहा है। मान्यवर कांशीराम दूरदर्शी राजनेता थे। उन्होंने दलित समाज की इस भावनात्मकता को भली-भाँति समझा तथा नीले रंग और हाथी के निशान को बहुजन समाज पार्टी के लिए अपनाकर दलित समाज में इस भावना का प्रसार किया कि बसपा दलितों की पार्टी है।

बसपा को दलितों का वोट बसपा की नीतियों अथवा बहन मायावती के करिश्मे के कारण नहीं अपितु इस भावनात्मकता के कारण जाता है। जब तक दलितों में यह भावना बनी रहेगी, दलितों का वोट बसपा को मिलता रहेगा। जिस दिन यह भावनात्मकता टूट जाएगी दलितों का वोट बसपा को मिलना बंद हो जाएगा।

कई सवालों और संकटों से घिरी बसपा के लिए यह आत्ममंथन का समय है। लोकसभा चुनावों में बहुत अधिक समय नहीं है। बसपा को अभी से यह तय करना होगा कि उसे किस दिशा में आगे बढ़ना है तथा अपनी किस प्रकार की छवि के साथ जनता के बीच जाना है।

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