
शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को लेकर मंत्रबाजी करने से अधिक कुछ होता नहीं दिखता है। शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को भी अब सम्मान का अहसास नहीं होता...
शिक्षक दिवस पर शिक्षाविद कालू राम शर्मा का विशेष लेख
हर साल की तरह एक और शिक्षक दिवस आ गया। मैं लगभग रोजाना ही शिक्षकों से मिलता हूं तो मुझे ताज़गी का अहसास होता है। मुझे इस बात की खुशी होती है यह देखकर कि उनमें अपने बच्चों को सिखाने को लेकर एक किस्म की छटपटाहट दिखाई देती है। वे इस बात से वाकिफ हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह अपर्याप्त है।
अपने द्वारा पर्याप्त न कर पाने की छटपटाहट को देख उनमें मेरा विश्वास और आस्था और मजबूत होती जाती है। मैं ऐसे अनेक शिक्षकों को जानता हूं जो अपने दम पर बहुत कुछ करते हैं, बिना किसी मदद की अपेक्षा के। और सच कहा जाए तो वे शिक्षक शिक्षा की नीतियों में उल्लेखित अनुशंसाओं के काफी नज़दीक नज़र आते हैं।
मैं यहां पर कुछ सरकारी स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाओं की बात करूंगा। मीनाक्षी नामक शिक्षिका बच्चों के साथ प्यार-दुलार के साथ बातचीत करती हैं। वह बच्चों को कक्षा के बाहर ले जाती हैं, जहां विषय को संदर्भ से जोड़ते हुए उन्हें सीखने के अवसर उपलब्ध कराती हैं। वह बच्चों को सवाल पूछने और अपने विचारों को साझा करने पर जोर देती हैं।
शिक्षिका बच्चों के साथ समानता का बर्ताव करती हैं। उनकी कक्षा विविधतापूर्ण है जहां विविध धर्म—जाति और संप्रदाय के बच्चे होते हैं। वह लड़कों और लड़कियों में भेद नहीं करतीं। इन सब बातों का असर यह होता है कि बच्चे एक साथ रहते हैं और सीखने की प्रक्रियाओं में व्यस्त रहते हैं।
आदिवासी स्कूल में शिक्षिका सुनीता बच्चों से घिरी हुई रहती हैं। शिक्षिका के आसपास बैठे हुए बच्चे कहानियों की किताबों को पढ़ने के उपक्रम में लगे हुए हैं। ये बच्चे तीसरी-चौथी कक्षा के हैं। इस स्कूल मे जो बच्चे आ रहे हैं वे पास की पहाड़ी पर बसे फाल्या में निवास करते हैं। शिक्षिका में खासा उत्साह है। शिक्षिका बच्चों के साथ तल्लीनता के साथ जुटी हुई हैं। बच्चे कहानियों को पढ़ पा रहे हैं। शिक्षिका की नज़रें चौकस कि अगर कोई बच्चा पूछने का साहस नहीं करे और अगर उसे कोई समस्या आ रही हो तो वह उसको समझाती और उसकी समस्या को हल करने में मदद करती।
सुनीता कहती हैं, वह बच्चों को पढ़ना सिखा रही हैं। वे बोली कि अगर बच्चों को पढ़ना सिखाना है तो उन्हें पढ़ने की प्रक्रिया से गुजरना होगा। इसलिए मैं उन्हें कहानी की किताबें पढ़ने को देती हूं। मैं उनके इस अनूठे शिक्षण को देख अचरज करने लगा। मैंने प्रश्न किया कि शुरुआती कक्षाओं में हमारी अधिकांश स्कूलों में बच्चों को वर्णमाला और बारहखड़ी रटवाई जाती है। आप अगर बच्चों को वर्णमाला और बारहखडी नहीं पढ़ाएंगी तो वे पढ़ना कैसे सीख पाएंगे। शिक्षिका ने जवाब प्रश्न के रूप में दिया- वर्णमाला और बारहखडी से बच्चे पढ़ना कैसे सीख पाएंगे?
मैं यहां एक पुरुष शिक्षक की मिसाल पेश करना चाहूंगा। ये एक नौजवान शिक्षक हैं जो बच्चों की शिक्षा के लिए हरसंभव कोशिश करने मे दिन-रात एक करते हैं। नरेंद्र नामक इस युवा शिक्षक का जज्बा इतने चरम पर कि उन्होंने अपने दम पर ही न केवल अपने स्कूल के बच्चों के लिए बल्कि अपने गांव के स्कूल के आसपास के दसियों स्कूलों के बच्चों के लिए विज्ञान का एक कार्यक्रम का आयोजन किया।
उन्होंने अपनी स्कूल में विज्ञान की लैब और पुस्तकालय की स्थापना की। वे अपने स्कूल में उन तमाम संसाधन उपलब्ध कराने की भरपूर कोशिश करते हैं जो देश-दुनिया को समझने में बच्चों की मदद करें। वे बच्चों को एक समझदार और संवेदनशील नागरिक के रूप में देखते हैं और उनके साथ वैसा ही बर्ताव करते हैं। वे बच्चों में कक्षा और स्कूल के संचालन को लेकर बच्चों में जिम्मेदारी का न केवल बोध कराते हैं, बल्कि हर प्रक्रिया में बच्चों को शामिल भी करते हैं।
मैं एक ऐसे शिक्षक की बात और करना चाहूंगा जिसने अपनी सरकारी स्कूल में नामांकन को अपने दम पर बढ़ाया। शहर से लगे हुए एक गांव में जब निजी स्कूल ने अपनी जड़ें जमानी शुरू की तो उन्हें लगा कि ऐसा आखिर क्या है उस निजी स्कूल में जो मेरे यहां के स्कूल में नहीं है। बस फिर क्या था, वे बहुत कुछ तो बढ़िया कर ही रहे थे। मगर अब उन्होंने अपने स्कूल के बारे में गांववासियों को बताना प्रारंभ किया।
वे बहुत कुछ कर ही रहे थे मगर उनके काम के बारे में प्रचार-प्रसार की कमी थी। उन्होंने समस्त शिक्षकों और गांववासियों से आह्वान किया कि सरकारी स्कूलों की दशा को सुधारने का जिम्मा हम सभी का है। वे यह भी कहते हैं कि हम शिक्षक मिलकर इस शिक्षा की तस्वीर बदलने की क्षमता रखते हैं।
हमारे आसपास ऐसे शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं जो सरकारी स्कूलों में रहते हुए घोर निराशा के बीच बढ़िया करने में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है कि बच्चे यहां से शिक्षित होकर बाहर को निकलकर वे समाज में उन्हीं मूल्यों को पोषित करने की तरफ अग्रसर होंगे जो लोकतांत्रिक समाज को चलाने के लिए आवश्यक है।
नई शिक्षा नीति-1986 में एक बात कही गई है जो आज शिक्षक दिवस पर प्रासंगिक है: शिक्षक का दर्जा किसी समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक तहज़ीब को दर्शाता है। कहा जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने शिक्षक के स्तर से ऊपर नहीं जा सकता। इस वक्तव्य में शिक्षक की अहमियत स्पष्ट तौर पर प्रकट होती है। क्योंकि शिक्षक मनुष्य में मौजूद ज्ञान की शास्वत खोज की भावना के प्रेरक व पोषक हैं। अगर हमें शिक्षकों के बारे में जानना हो तो समाज में जाकर देख लेना चाहिए कि हालात क्या है, और हमें किस प्रकार के शिक्षक बनाने की सख्त आवश्यकता है।
जाहिर है कि हमारी शासकीय और राजनीतिक व्यवस्था में शिक्षा हाशिए पर ही रही है। महज़ शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को लेकर मंत्रबाजी करने से अधिक कुछ होता नहीं दिखता है। शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को भी अब असली सम्मान का अहसास नहीं होता। वे यह जानते हैं कि शिक्षक दिवस एक ढकोसला बन चुका है। अब हमें शिक्षकों को सम्मान करने को नए ढंग से परिभाषित करना होगा।
शिक्षकों के सम्मान का अर्थ शिक्षकों के पेशेवर विकास के नए रास्ते खोलना होना चाहिए। हम बेहतर शिक्षा तो चाहिए मगर शिक्षकों की बेहतरी के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाते। जिस प्रकार के हालात पूर्व सेवाकालीन व सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षणों के हैं उनके चलते तो हम बेहतर शिक्षक नहीं बना पाए हैं। कहा जाए तो हमारे जिला शिक्षा प्रशिक्षण संस्थानों को ही इतना दमदार नहीं बनाया जा सका जो शिक्षकों की पेशेवर तैयारी करवा सके।
यह कहना कि व्यापक तौर पर स्कूलों में अगर बच्चे नहीं सीख पा रहे हैं इसकी जिम्मेदारी अकेले शिक्षक की है तो इसे संपूर्ण प्रशासनिक और शिक्षा तंत्र की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना है। हमें उन देशों पर नज़र डालना चाहिए जो स्कूली शिक्षा में बेहतर कर रहे हैं। जहां शिक्षकों को पेशेवर रूप से गढ़ने के मंच बनाए गए हैं।
हमारे देश में शिक्षकों को नियमित रूप से मिलने-जुलने और अपने अनुभवों, समस्याओं को साझा करने के मंचों की स्थापना करनी होगी। हमें शिक्षकों के साथ ऐसा कुछ करना होगा जो उनके शैक्षिक काम व उनकी अस्मिता को ऊंचा उठाए। किसी भी व्यक्ति की अस्मिता को ठेस पहुंचाकर उससे किसी बेहतर काम की उम्मीद नहीं की जा सकती।
आइए, हम शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को व उनके कामों को पहचानें। जो बेहतर काम कर रहे हैं उनकी पीठ को थपथपाएं और जो बेहतर करना चाहते हैं उनके हौसलों को पंख लगाएं।










