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विमर्श

डूबती अर्थव्यवस्था पर ​आखिर किस मजबूरी में वित्त मंत्री ने साध रखी है चुप्पी?

Nirmal kant
27 Jan 2020 12:41 PM IST
डूबती अर्थव्यवस्था पर ​आखिर किस मजबूरी में वित्त मंत्री ने साध रखी है चुप्पी?
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जब अर्थव्यवस्था विकसित होना बंद हो जाती है तो मुद्रास्फीति में भी गिरावट आ जाती है, क्योंकि उतनी ही चीजों को खरीदने के लिए कम पैसा लोगों के पास उपलब्ध रहता है लेकिन जब विकास दर रुकी होने के बावजूद उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में तेजी रहती है तो यह संकेत होता है इस बात का कि अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति जनित मंदी अथवा ठहराव के दौर में प्रवेश कर चुकी है...

वरिष्ठ पत्रकार पीयूष पंत का विश्लेषण

जकल चर्चा जोरों पर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन यानी मुद्रास्फीति जनित सुस्ती की ओर अग्रसर है। अभी तक तो चर्चा अर्थव्यवस्था के सुस्त रहने की ही हो रही थी, लेकिन अर्थशास्त्रियों की मानें तो ये अब मुद्रास्फीति जनित सुस्ती के स्तर पर पहुंच गयी है जिसके परिणाम काफी गंभीर हो सकते हैं।

हालांकि सरकार अभी भी इसे स्वीकार करने के मूड में नहीं दिखाई दे रही है। कुछ उसी तरह जैसे नोटबंदी के दुष्परिणामों को स्वीकार करने में भी सरकार ना-नुकर करती रही थी। अभी दिसंबर महीने में ही जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कुछ भी कहने से साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा- 'मैंने सुना है कि इस तरह का विमर्श चलाया जा रहा है लेकिन मुझे इस बारे में कुछ भी नहीं कहना है।'

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो नवबर माह में ही चेता दिया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति जनित सुस्ती की ओर बढ़ रही है, क्योंकि बाजार में मांग बढ़ नहीं रही है लेकिन कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं। उनका कहना था कि लोगों की आमदनी बढ़ नहीं रही है, घरेलू उपभोग की दर धीमी होती जा रही है और लोग खर्च चलाने के लिए अपनी बचत का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि खाद्य सामग्रियों के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं।

आखिर स्टैगफ्लेशन यानी मुद्रास्फीति जनित मंदी कहते किसे हैं ?

से इस प्रकार समझा जा सकता है। जब विकास दर की गति बढ़ नहीं रही हो और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हों तो उसे मुद्रास्फीति जनित मंदी कहते हैं। आमतौर पर ये देखा जाता है कि जब विकास की गति बढ़ती है तो लोगों की क्रय करने की क्षमता भी बढ़ जाती है और वे किसी भी दाम में चीजें खरीदते हैं ज्यादा मांग बढ़ती है तो वस्तुओं के दाम भी बढ़ते हैं और मुद्रास्फीति को जन्म देते हैं।

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ब अर्थव्यवस्था विकसित होना बंद हो जाती है तो मुद्रास्फीति में भी गिरावट आ जाती है क्योंकि उतनी ही चीजों को खरीदने के लिए कम पैसा लोगों के पास उपलब्ध रहता है, लेकिन जब विकास दर रुकी होने के बावजूद उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में तेजी रहती है तो यह संकेत होता है इस बात का कि अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति जनित मंदी अथवा ठहराव के दौर में प्रवेश कर चुकी है।

ब बेरोज़गारी और उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में बढ़ोत्तरी एक साथ चल रही हो तो ऐसे हालात को भी मुद्रास्फीति जनित ठहराव या मंदी कहा जाता है। यह स्थिति अमेरिका में 1970 और 1980 के दशक के दौरान देखी गयी थी। इससे पहले 1960 के दशक में ब्रिटेन में ऐसे ही हालात पैदा हो गए थे।

ले ही सरकार इस बात को स्वीकार करने में आनाकानी कर रही हो, लेकिन तमाम आंकड़े इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था थम सी गयी है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि लगातार पिछली छह तिमाहियों से हर तिमाही में विकास की दर गिरावट की ओर बढ़ रही है। एनएसओ के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही (जुलाई से सितम्बर) में जीडीपी मात्र 4.5 फीसदी ही रही।

वित्तीय वर्ष 2012-13 से लेकर ये अब तक की सबसे कम दर है। तीसरी तिमाही यानी अक्टूबर-दिसंबर में भी इसके इसी स्तर पर रहने के अनुमान की बात कही गयी है। पूरे वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी विकास दर 5 फीसदी के आस-पास रहने की उम्मीद की गयी है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी आर्थिक सुस्ती को देखते हुए अपने पूर्व के 6.1 फीसदी विकास दर के अनुमान में कटौती कर इसे 5 फीसदी कर दिया है। यह दर पिछले छह सालों में सबसे कम है।

विपरीत खुदरा मुद्रास्फीति की दर लगातार बढ़ी है दिसंबर 2019 में खुदरा मुद्रास्फीति की दर 7.34 फीसदी पहुंच गयी। जबकि नवम्बर महीने में ये 5.54 फीसदी थी और दिसंबर 2018 में 2.11 फीसदी थी। मुद्रास्फीति का ये स्तर पांच सालों में सबसे अधिक था। वहीं खाद्य मुद्रास्फीति की दर 14.12 फीसदी पर पहुंच गयी। इसका कारण अनेक खाद्य पदार्थों के मूल्यों में हुई बढ़ोत्तरी थी।

दहारण के तौर पर दूध के दाम 4.2 फीसदी, अंडे के दाम 8.71 फीसदी, मांस-मछली के दाम 9.57 फीसदी, दालों के दाम 15.44 फीसदी और सब्जियों के दाम 60.5 फीसदी बढ़ गए। खाद्य पदार्थों के दामों में इतनी अधिक बढ़ोत्तरी गरीबों के लिए आफत बन कर आई है क्योंकि नोटबंदी के बाद से ही ये लोग छंटनी, बेरोज़गारी और कम मजदूरी की मार झेल रहे हैं।

वैसे भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान दौर में पहुंचने की संभावना मनमोहम सिंह सरकार के समय ही प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन ने प्रकट कर दी थी। रंगराजन ने फरवरी 2013 में 'ग्रोथ एन्ड औस्टैरिटी : दी पॉलिसी डायलेमा' शीर्षक से अशोक शील के साथ एक पर्चा लिखा था। ये पर्चा क्रेडिट एजेंसी आईसीआरए की पत्रिका के फरवरी 2013 अंक में छपा था।

स पर्चे में उन्होंने लिखा था 'इस बात पर ध्यान देना उचित है कि भारत जैसे उभरते बाजारों में जहां वित्तीय मध्यस्थता कभी कोई समस्या नहीं रही, मुद्रास्फीति जनित सुस्ती पैदा करने वाली प्रवृत्तियां अपना सिर उठा चुकी हैं' उनके इस कथन ने सरकारी गलियारों में उथल-पुथल मचा दी। 2014 का लोक सभा चुनाव नजदीक था और मनमोहन सिंह सरकार ये बात सामने नहीं आने देना चाहती थी लिहाजा रंगराजन को ये कहना पड़ा की वे भारत की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि भारत जैसी उभरती हुयी बाजारों के बारे में बात कर रहे थे।

ससे साफ होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का पटरी से उतरना यूपीए-2 के समय से ही शुरू हो गया था। बाद में 2014 में सत्ता में आई मोदी सरकार भी शायद इस कटु सच्चाई से आंख मिचौली खेलती रही या फिर इससे रू-ब-रू ही नहीं होना चाहती थी। उल्टे आंकड़ों की बाज़ीगरी का खेल खेलते हुए ये दिखाने का प्रयास किया जाता रहा कि मोदी सरकार के तहत अर्थव्यवस्था कुलांचे मारते हुए आगे बढ़ रही है, जबकि हकीकत ये थी की अपेक्षित निवेश आ नहीं रहा था। निर्यात गिरावट की ओर था। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र कमजोर होता चला जा रहा था और नौकरियां पैदा नहीं हो रही थीं। नोटबंदी ने रही-सही कसर पूरी कर दी।

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वित्तीय वर्ष 2017 की दूसरी तिमाही तक तो विकास दर तेज गति से बढ़ रही थी लेकिन नोटबंदी के बाद विकास दर में गिरावट आना शुरू हो गया। नोटबंदी से पैदा हुयी कैश की कमी ने आर्थिक गतिविधियों में जड़ता पैदा कर दी।परिणामस्वरूप वित्तीय वर्ष 2017 की तीसरी तिमाही में विकास दर घट कर 7.5 फीसदी हो गयी और चौथी तिमाही में तो ये घट कर 7 फीसदी हो गयी। आठ महीने के बाद जीएसटी लागू कर दिया गया। लिहाज़ा विकास दर और नीचे पहुंच गयी। ये वित्तीय वर्ष 2018 की पहली तिमाही में गिर कर 6 फीसदी पर पहुंच गयी।

न 2018 में अमेरिका और चीन के बीच छिड़ी व्यापारिक जंग ने पूरी दुनिया को आर्थिक अनिश्चितता के आगोश में ले लिया। इसका भी असर भारत की विकास दर पर पड़ने लगा। ये गिर कर 5.8 फीसदी तक पहुंच गयी थी। सार्वजानिक बैंको के बढ़ते एनपीए, वित्तीय घोटालों और स्कैम्स ने आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का संकट पैदा कर दिया। साथ ही गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों में हुई गड़बड़ियों ने लघु उद्योगों के लिए कर्ज का द्वार बंद कर दिया।

ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार अर्थव्यवस्था की गिरती सेहत के प्रति चिंतित नहीं है। उनकी सरकार ने पिछले दिनों अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के अनेक कदम उठाये हैं, लेकिन निवेशकों का कहना है कि सुधारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिस पर मोदी जी बहुत धीमी गति से काम कर रहे हैं। उनके हिसाब से अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए पब्लिक सेक्टर की कंपनियों की हिस्सेदारी बेचना और श्रम कानूनों को बदलना ज़रूरी है।

निवेशकों की चिंता है कि भारत ढांचागत सुस्ती की तरफ बढ़ सकता है और अगर ऐसा हुआ तो 2 ट्रिलियन डॉलर वाला भारत का शेयर बाजार बैठ जाएगा, ऐमजॉन से लेकर नेटफ्लिक्स जैसी विदेशी कंपनियों की भारत में धंधा बढ़ने की योजनाओं पर पानी फिर जाएगा और मोदी सरकार के लिए नौकरियां पैदा कर पाना मुश्किल हो जाएगा।

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मोदी सरकार के लिए दिक्कत इस बात से भी पैदा हुई है कि एक तरफ अर्थव्यवस्था को अधिक खोलने का विदेशी निवेशकों का दबाव है, तो दूसरी तरफ बदहाली की मार झेल रहे किसान, मज़दूर, और युवाओं की बेहतरी का सामाजिक-राजनीतिक दबाव।

वैसे अपनी तरफ से मोदी सरकार ने विदेशी निवेश बढ़ाने की दिशा में कई कदम उठाये हैं। बीमा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सीमा बढ़ाने के साथ-साथ कोयला खनन में ऑटोमेटिक रुट से 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दे दी गयी। इसके अलावा 2019 के बजट में शेयर बाजार में निवेश करने वाले विदेशी निवेशकों पर लगाया गया सरचार्ज भी हटा लिया गया, लेकिन अर्थव्यवस्था है कि गति पकड़ने का नाम ही नहीं ले रही है। देखना होगा कि 1 फरवरी को पेश किये जाने वाले आम बजट में अर्थव्यवस्था की सुस्ती को दूर करने के लिए मोदी जी क्या नुस्खा अपनाते हैं।

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