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संस्कृति

बूझ सकें हैं बीसवीं सदी के सबसे बृहद महाकाव्य का अर्थ!

Janjwar Team
20 March 2018 9:10 PM GMT
बूझ सकें हैं  बीसवीं सदी के सबसे  बृहद महाकाव्य का अर्थ!
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युवा कवि सौम्य मालवीय की कविता 'हे राम'

'राष्ट्रपिता'
कैसा सम्बोधन है ना?
कितना स्थूल, परायेपन से भरा,
कृत्रिम नैतिकता में लिपटा,
एक दूरी का बोध कराता
सरकारी!,
समीकरणात्मक!,
समारोपित!
कैसा अंतर्विरोध
उसे दिया गया
जो खुद को एक औरत में
बदलता देख रहा था!

यदि कोई राष्ट्र
जन्मा ही था कभी
तो वह तो बस
एक दाई की भूमिका में था
बतक्कड़, ज़िद्दी, पर
काम की पक्की
सबका कुशल-क्षेम लेती
नुस्ख़े बांटती आज़माती
गाँव भर की काकी
मिट्टी और पानी के
रहस्यों में डूबा
एक बारीक बीन वैद्य
गलत नहीं होगा कहना कि,
राष्ट्र के मसलों से
अधिक लगता था मन
मल-मूत्र का माजरा लेने में!
भंग-अभंग! भवई! भूदासा!
भिक्षाचर! भंगी!
ढोता है मैला कौन
मैले जितना ही समीचीन था
यह प्रश्न उसके लिये!

निर्गुण, निरंकारी, नामदेव
बताया था उसे भी
राम का नाम
फूंका नहीं था कान में
सैंत के रखने के लिए
दासी रम्भा ने
सचमुच स्वतंत्र होते हैं दास ही
जो ऐसे सूत्र दे सकें
आत्मा में निरंतर टपकता
अजपा जाप
पिघलती हुई स्व की बर्फ़
नाम की नदी में धीमे-धीमे
निभट, निर्भय, निष्कम्प, निःशेष
एक योगी, आदि अछूत, आदियोद्धा
तलाशता रहा गीता में
अपनों से लड़ने की हिम्मत
क्या औरों का विश्वास जीतने का
कोई दूसरा रास्ता हो सकता था!!

वह अन्य-रूप, अन्य-नाम,
अन्यभाव के उपचार को निकला
अपर्यटक यात्री,
वह दूसरा, इतर,
अपने आप में एक भूगोल,
एक प्रयोग भूमि, एक रेगिस्तान
वह जो होता तो
गाय से बढ़कर गिद्ध का
राम-मंदिर से बढ़कर
सीता की रसोई का होता!
और भला ये भी कोई
कहने की बात है!

वह नैतिकता ही क्या
जो टिकी हो
चुनाव, हैसियत, बल
और ज्ञान की सुविधा पर
परीक्षा तो तब है
हो चुका हो विकल्प जब
अर्थहीन, बेमानी, बेमतलब
अपनी अल्पता, अज्ञान,
और अधूरेपन के अलावा
ना बचता हो कोई चारा
ऐसे में बचा सका जो
कर्म की निष्ठा,
लड़ने का विवेक
अप्रतिहत, अपरिग्रही, अलिप्त
एक ढीठ, जिद्दी आत्मान्वेषक
हर फाँक, हर द्वैत से झूझता
क्या करूँ!, क्या करूँ!, कैसे बचूं!
गिरूं, पडूँ, सम्भलूँ, मरुँ,
ओखली में अपना सर तो दूँ!!

क्या करूँ?
दया, प्रेम, करुणा, क्षमा तक
कार्य-कारण,
उत्पादन-पुनरुत्पादन,
रचना और विध्वंस
के तंत्र में
में फंसे दीखते हैं
यही तो कर्म में
निहित हिंसा है
कोरी ज्ञानमय नैतिकता
का थोथापन है!!
कैसे बचूं!!
कैसे बचूं!!
क्रिया मात्र की
नैसर्गिक हिंसा से!

अहिंसा और असहयोग
की नई-नई आधारभूमियों की खोज
कर्म की पदार्थता
को छूने की कोशिश
कह दो सभी ताकतों से
भविष्य के किसी भी
छोटे बड़े महान प्रयोजन के लिए
हमारे काम उपलब्ध नहीं हैं!
मेहनत के सिवा, अतिरिक्त, बेशी कुछ नहीं
हमने व्यवस्था से हाँथ खींच लिए हैं
और ख़त्म कर दिया है
श्रम, क्रीड़ा, और प्रार्थना के
बीच का अंतर!!
हर वह पैंतरा,
तरकीब, तर्क, समझ
जो आज के दाय को
यहाँ, इस वक़्त, अभी
जो मैं कर रहा हूँ,
कल के खतों के ज़वाब,
क़ानून के पेचो-ख़म जो
मुझे समझने हैं,
छोटे, बड़े, मामूली,
फ़रसूदा से काम,
उन्हें भविष्य या
इतिहास के समीकरणों
में उलझा दे
मैं उनसे बाज़ आया
कर्ता के अहं से
कार्य की स्वतंत्रता
के बचकाने आग्रहों से
मैं कतराया!

कितनी बार चढ़ाया
है वर्तमान को
भविष्य की वेदी पर
कभी सुविधा,
कभी ज़िम्मेदारी,
कभी नैतिकता,
तो कभी व्यवहारिकता
का हवाला दे दे कर
पर यह वर्तमान??
ये मेरे लोग, दूसरे, अपने,
स्वजन, परिजन
ये पेड़, पौधे, जंगल, नाले
जो अभी सांस ले रहे हैं
ये धरती जो इस वक़्त घूम
रही है, ये रक़्त जो सामने
बह रहा है इनकी ज़िम्मेदारी
कौन ले? कौन गहे इनका हाथ?
अपने तमाम विचलनों के बावजूद
वर्तमान में व्यापना ही तो वैष्णवता है!
ना इतिहास का बोझ ना भविष्य का भय
ये सनातनता नहीं तो और क्या है??

अन्यथा क्या भविष्य के लिए,
या बीते हुई की दुहाई दे देकर,
मान लिया जाए आज
को साधन ही महज़?
और अन्य को अपनी
इक्षाओं का लक्ष्य मात्र ही?
मैं पूछ रहा हूँ और मानो
बूढा आदमी कह रहा है
स्वतंत्र हैं दूसरे हमारे प्रेम से भी!
मैं सोच रहा हूँ
और धीरे-धीरे नब्ज़ पर
उतर रहा है कुछ
अपनी रिक्तताओं को भरने
के लिए दूसरों का इस्तेमाल
उन्हें और अपने आप को
कितना कम कर देता है!!
लैंगिक चेतना से छूटने
का प्रयास नोआखाली की
त्रासदियों के बीच,
किस लिए भला?
भीतर और बाहर,
धर्म, लिंग, जाति, राष्ट्र
और क्या-क्या कहाँ-कहाँ
दूसरा, चाहे किसी रूप में भी हो,
उसके अनाहत अस्तित्व
की मूलभूत शर्त निबाहने
की जद्दोजहद
एक शिशुवत मित्रता
का संधान
जो आत्मा पर ज़रा
भी दबाव ना बनाये
एक ऐसी मित्र
सम्भावना की तलाश!
कहो लगता नहीं कि जैसे
ब्रह्मचर्य देह का विराग नहीं
मित्रता का समाजवाद है!!
मित्रता का तीसरा क्षण
नातेदारी और
दुनियादारी के परे
सचमुच महान होते हैं
मित्रता के पूर्वाग्रह
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
एक रहस्मयी मित्र के साथ
भटकता एक कवि
उस तीसरे क्षण को जीता-मरता
समझ रहा है कविता और संघर्ष
की अनहारी असमाप्तता को!
धँसना, गलना,
उभरना, शेष होना,
मित्र के साथ
उसकी अभेदता, अबूझता के संग
पहुंचना कहीं फिर भटकना
पर इस भटकने पहुंचने में
खुद कविता का रास्ता हो जाना
खुरदुरा, कँटीला, अनन्तमय
ग़ैर-उपकरणात्मक
अंतहीन प्रयोजनों की आश्रमता
मित्रता के पूर्वाग्रह, मित्रता की ज़िद
क्या दांव धर सकती है इनपे सत्ता कभी?
वह सत्ता जो शर्तों, समझौतों, अनुबंधों,
और नागरिकों के मूक अनुयायीपन पर टिकी है?
वह जिसे बीच की जगह चाहिए
जो पैठना चाहती है
सम्बन्धों के ताने-बाने के भीतर
छुप कर खींसे-निपोर कर
चेशायर बिल्ली की तरह!!
वह जो समुदायों के बीच
बह रही नदी का
कॉपीराइट चाहती है!!
उसे डर लगता है
सामान्यता के संकीर्तन से
वह भयभीत होती है कि
लोग अपनी पहचानों
के चोले उतार कर
नदी के रास्ते किसी और
जगत में उतर जाएंगे
जहाँ उसकी कोई
ज़रुरत ही नहीं होगी!!
वह सत्ता की आँख में चुभ रहा
असभ्य नंगा फ़क़ीर!
और सत्ता की ही क्यों
उस शख़्स की भी
आँख की किरकिरी जो
अपने आपको ऑथेंटिक
हिन्दू कहता आया है
वह जिसका जन्म
यही कोई सौ-डेढ़ सौ साल पहले
उस जगह पर हुआ
जिसे आज आधिकारिक रूप से
अंग्रेज़ी में 'इंडिया' और हिंदी में 'भारत' कहते हैं
इस शख़्स ने पैदा होने के बाद
अपने लिए एक माँ ईजाद की!
और उसे नाम दिया भारत माँ!!
चूँकि ये माँ दैहिकता में नहीं
अलौकिकता में निरूपित थी
इसलिए बदन के राग, द्धेष
नहीं थे उसमें
वह एक 'आदर्श' माँ थी
सदा रजवन्ती पर
मासिक धर्मी नहीं !
फिर उस शख़्स ने
कल्पित किया एक काल
जब वे दोनों, माँ और बेटे,
एक दूजे से अभिन्न थे
माँ उसकी समस्त इच्छाओं
का लक्ष्य थी
तो वह भी माँ की
कामनाओं का केंद्र था
उसने इस युग को
नाम दिया 'सतयुग'!
और कभी इतिहास,
कभी मिथकों के
हवाले से बताया
कि उसकी मेधा
इस दौर में अपने शीर्ष पर थी
उसका पुरुष अखण्ड था !!
जन्म के बाद उसने
अपनी कल्पित माँ की ममतामयी आँखों में
खुद को पहचानना शुरू किया,
एक आकार पाया
जो और भी पुख़्ता हुआ
यूरोप के चमकदार आईने में
उसने स्वयं को
अनम्य आर्यत्व की छवि में
अविभक्त अनुभव किया
और कहा के, 'ये मैं हूँ !'
पर छवियों में ख़ुद को पहचानना
ख़ुद से दूर हो जाना भी तो होता है
और आत्मबोध के लिए अन्याश्रित होना
एक सतत अलगाव !
छवियों से छवाई पहचान
छूट-छूट जाती थी
वो खुद से पराया होने लगा
मानो उसकी पहचान एक ऐसी भेंट थी
जो उस तक पहुंची भी थी और नहीं भी
तस्वीर का पूरापन तो मिल भी जाता था
पर आत्मा से झांकते अंतरालों का वो क्या करता !!
इन विपर्ययों के बीच झूलते हुए
उसने झुंझलाकर, बेचैनी में
अपने भीतर बोलती
अन्यताओं को झुठलाकर
एक अपवर्जक अस्मिता की दावेदारी की
और कहा,
'मैं हिन्दू हूँ!'
और कालान्तर से यह भी
कहता आया है कभी-कभी बौखलाकर,
'हम हिन्दू हैं!'
इधर 'माँ-बेटे' के सम्बन्ध का
प्राकृत स्वरुप
वह मोहक अवस्था
वो पहला-पहला 'पहलापन'
उसे भीतर तक सालने लगा था
पर इस बात ने तो उसे और भी तोड़ दिया के,
माँ अगर कल्पित भी की जाये तो भी आदर्श नहीं रहती
जब देखो तब औरत हो जाती है!
उसने देखा की माँ पर अनाहूत अतिथि
डोरे डालते आये हैं
और माँ भी सदा उसके लिए,
उसके पास नहीं रहती
घर से बाहर भी जाती है
और बहरूपियों को घर में
ले भी आती है अहिल्या की तरह !
कभी तुर्क-कभी गोरे
कभी विपथ-पथभ्रष्ट-बन्धुजन
वह सोचने लगा 'माँ' भी
कितने छलावों का नाम है !!
उसने समूचे लिखित इतिहास में
माँ को अपभ्रंश होता पाया
और इस पूरी तवारीख़ पर
मलामत भेजते हुए कहा
कलयुग!

उसे लगा वो माँ की
घेराबंदी कर लेगा
और नयी-नयी ज्यामितिक
तिकड़में भिड़ाने लगा
कभी लक्ष्मण रेखाएं खींचता
कभी परिधियों के भीतर
परिसीमित करता माँ को
पर माँ जो निरी औरत निकली
ये रेखाएं पार करती ही रही
अभिहर्ताओं से अभिहास करती ही रही !
उसे यक़ीन हो चला
के कुछ तो है उसके अलावा भी
जो माँ को भाता है
उसने ख़याल कीं
माँ की सारी बदकारियां,
और सोचा ये भारत माता भी कैसी
ना-शाइस्ता निकली !
उसने तसव्वुर किये सुरूर के ढेरों मंज़र,
वे तमाम प्रतिमान जो माँ को संतुष्ट करते हैं
और भीतर तक खोखला हो गया !
पर इस मूलभूत रिक्ति ने
उसके भीतर इच्छाओं को जन्म दिया
कामनाओं की सामाजिक तमीज़ दी
और उसे लालसाओं के तंत्र में रोप दिया
उसने दुनिया के सौदागरों से चाहने के तौर सीखे
और कामनाओं में विकसने लगा
विस्तार की कामना,
वित्त की कामना,
और अपने
नवीनतम संस्करण में
विकास की कामना !
कुछ ही समय में वो
माँ की चाहना में बीते
लड़खड़ाते 'शैशव' से निकलकर
पिता की प्रशस्त राह पर था !
पिता की यह राह ही
पिता की शख़्सियत थी
और उसे एहसास हो चुका था
कि 'रक्त' की सही पहचान
एक ही माँ से पैदा होने में नहीं
एक ही पिता की संतति होने में है!!

उसने इस बंधुत्व को नाम दिया हिंदुत्व
और मातृभूमि के बरक्स
पितृभूमि-पुण्यभूमि का
आवाहन किया !!
माँ की कल्पना मानो
अपना ऐतिहासिक दाय पूरा कर चुकी थी
या यूँ कहें की
अपनी मिथकीय भूमिका
निभा चुकी थी
जो उसे यह सिखलाने में थी कि
कामनाएं ऋणात्मक तो होती ही हैं
बात तो तब है
जब वे सत्तात्मक हो जाएँ !!!
ऐसा नहीं की माँ का प्रयोग
अब शेष हो चुका है
वैसे भी यज्ञ की अग्नि
तो अमर होती है बुझती कहाँ है
और आज भी देवताओं के नाम पर
दी जाने वाली हर आहुति निर्भर है
उसी की संवाहकता पर!
उसी के वसीले पर!
हर बलि लेने के बाद
वो आज भी
हमेशा गंभीर स्वर में दोहराता है
‘मे द गॉडेस स्माइल’
‘मे द गॉडेस स्माइल’
उसके लिए
उस आधिकारिक हिन्दू के लिए
वह देह
धुंधली परछाई सी झीनी-बीनी
वह तथाकथित राष्ट्रपिता
हिन्दू कुछ कुछ ईसाई सा
मुसलमान सा कुछ कुछ
औरत निरी औरत!!
बदकार माँ का साथी
आशिक़, रसिया, सूफ़ी
बहुत कुछ दलित
समूची सभ्यता की शर्म
पूरी मानवता का प्रायश्चित
पूर्वाग्रह ग्रसित मित्र
हिंसक अहिंसा का सिपाही
उसकी बलि
इस आधुनिक यज्ञ की
सबसे महान आहुति रही है!!

फिर वह जो
धर्म को सेवा
शहादत को मोक्ष
और प्रतिशोध को नहीं
सेवा को राष्ट्र
कहता रहा हो
उसे तो मरना ही था
कल मरा वो गोली से
आज आहुति दी उसकी
उसे सैनिटरी इंस्पेक्टर बनाकर!!
उसे बनिया कह तो दिया
पर उस बनिए की डील का क्या
जिसमें स्वदेशी बिना स्वराज के अर्थहीन
स्वराज बिना स्वधर्म के बेमानी है!!
टीका-टिपण्णी,
आरोहण-अवरोहण,
समीक्षाएं, पालतू बनाने के हथकंडे
क्या बूझ सकें हैं
बीसवीं सदी के सबसे
बृहद महाकाव्य का अर्थ?

महज़ दो शब्दों की कविता
हे राम!!
इन दो शब्दों की छाया में
जगह ढूंढते कुछ अनाथ शब्द
कुछ अयाचित अनुभूतियाँ
कुछ सत्य, कुछ हम, कुछ तुम
कुछ शर्मिंदा, कुछ ढीठ,
कुछ अनभिज्ञ,
उभरते साम्राज्य के निवासी
कहो कुछ रीढ़ में लोहा बचा है??
किन्हीं स्मृतियों की गूँज,
किसी अधूरेपन का बोध,
कुछ भी शेष है?

कोई सम्भावना
कोई उम्मीद, कोई नैतिकता
बंधुत्व का भाव
कहो ये अब भी प्यारे शब्द हैं ना?
या हम समूची ताक़त से
राष्ट्रपिता की गाली उछाल कर
अब हमेशा के लिए,
वन्स फॉर ऑल,
उऋण हो जाना चाहते हैं?
क्या वे दो शब्द
अब कभी हमारे जेहन में
किसी अनहारी आस
से डबडबायेंगे
या बिना हिसाब की दमड़ी की तरह
विमुद्रित मुद्रा से श्रीहीन
टूटे वायदों की ज़मीन पर
वीभत्स अट्टहासों की
गर्जना में खो जाएंगे?
क्या पता?

शायद काल अब भी कहीं
मौन स्वर में जपता हो
हे राम!, हे राम!
आने वाली नस्लें
कातर होकर टेरती हों
हे राम!, हे राम!
हमारे साझे स्वप्न
चुपचाप
सुमिरते हों हे राम! हे राम!
अँधेरे की तहों में खोई
कोई दीपशिखा थरथराती हो
हे राम!
हे राम!
हे राम!

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