शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के एक दशक बाद भी एमपी में बदहाल है शिक्षा
आश्रित कोटे से नौकरी के लिए बेटा और बेटी दोनों हकदार- राजस्थान HC
कैग रिपोर्ट के अनुसार 2010-11 में जहाँ सर्वशिक्षा अभियान के तहत अनुमोदित राशि का 55% व्यय हुआ था, वहीं 15-16 में केवल 46% राशि ही व्यय हो पायी। यानी सर्वशिक्षा अभियान के लिए आबंटित राशि का उपयोग शिक्षा विभाग द्वारा नहीं किया जा सका...
उपासना बेहार, स्वतंत्र टिप्पणीकार
‘शिक्षा का अधिकार कानून 2009’ को लागू हुए 9 साल हो गए हैं। इन सालों में शासकीय शालाओं में कई सारे सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं। इस कानून की सबसे बड़ी उपलब्धि पाठशालाओं में 6 से 14 वर्ष के बच्चों का लगभग सौ फीसदी नामांकन हैं, सघन व दूर-दराज के टोलों/गांवों से लेकर शहर की बस्तियों तक लगभग हर बसाहट या उसके करीब स्कूल खुल गए हैं।
मगर कानून के 9 साल होने के बाद भी शिक्षा को लेकर जितना परिवर्तन होना चाहिए था, वो देखने को नहीं मिल रहा है। कानून के उद्देश्यों को प्राप्त करने में अनेकों चुनौतिया और रुकावटें हैं। इन्हीं चुनौतियों और रुकावटों पर भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (कैग) की 2017 में जारी रिपोर्ट प्रकाश डालती है।
नामांकन की स्थिति
शिक्षा अधिकार कानून के अनुसार 6 से 14 साल के प्रत्येक बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बच्चों को शाला में दाखिला के लिए ‘स्कूल चलो अभियान’ चलाया जा रहा है, जिसके चलते वैसे तो नामांकन की दर बढ़ी है, लेकिन यह 2010-11 की तुलना में कम हुई है।
जहाँ 2010-11 में पहली कक्षा से आठवी कक्षा तक 154.24 लाख बच्चे नामांकित थे वही 2015-16 में 127.80 लाख बच्चे ही नामांकित थे, यानी लगभग 24त्र44 लाख की गिरावट हुई है। बीच में ही शाला छोड़ने वालों बच्चों की आंकड़े देखें तो 2010-16 में 10.25 लाख बच्चों ने 5वीं कक्षा के बाद शाला छोड़ दिया, जबकि 4.09 लाख बच्चों ने 7वीं के बाद 8वीं कक्षा में नामांकन किये बिना शाला छोड़ दिया था।
सरकार द्वारा अनेकों योजनाओं जैसे निःशुल्क पाठ्यपुस्तक, मध्याह्न भोजन, निशुल्क ड्रेस प्रदान करने के बावजूद भी परिवारों का रुझान बच्चों को सरकारी स्कूलों के बदले निजी पाठशालाओं में भेजने की रही है। इसका प्रमुख कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, शिक्षकों, आधारभूत सुविधाओं की कमी है।
इसी तरह इस कानून के अनुसार विद्यालय से बाहर बच्चे को अपने आयु के अनुसार कक्षा में प्रवेश दिया जाएगा, जिसके लिए बच्चे को विशेष प्रशिक्षण (कम से कम 3 माह व अधिकतम दो वर्ष) दिया जाएगा, लेकिन रिपोर्ट के अनुसार 2013-16 के दौरान प्रशिक्षण के लिए नामांकित विद्यार्थियों की संख्या निर्धारित लक्ष्य से कम थी जिसके कारण विद्यालय से बाहर बच्चों को मुख्यधारा में लाया नहीं जा सका।
रिपोर्ट में बच्चों के पुनरावृत्ति/रोकने की भी स्थिति सामने आई है। शिक्षा अधिकार कानून के अनुसार बच्चों को किसी भी कक्षा में रोका नहीं जा सकता पर प्रदेश में 2010-16 के दौरान कक्षा एक से पांच में 16।10 लाख और कक्षा छह से आठ में 5.10 लाख विद्यार्थियों को पुनरावृत्ति/रोका गया था।
पड़ोस में स्कूल की व्यवस्था
शिक्षा अधिकार कानून के अनुसार प्रत्येक बसाहट के पड़ोस में पाठशाला होनी चाहिए, इनकी संख्या में बढ़ोतरी तो हुई है, पर कैग रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश सरकार अनेक बसाहटों के लिए पड़ोस में शाला प्रदान करने में असमर्थ रही है और 15-16 में प्रदेश में 95,198 बसाहटों के लिए 83,872 प्राथमिक पाठशाला ही थे। राज्य सरकार ने शेष बचे 11326 बसाहटों के लिए न तो पड़ोस के शाला की व्यवस्था की और न ही अन्य पाठशालाओं में पहुंच के लिए पर्याप्त व्यवस्था की गयी।
शिक्षकों की स्थिति
मध्यप्रदेश सरकार शिक्षा अधिकार कानून के निर्धारित मानकों के अनुसार पाठशालाओं में शिक्षकों की उपलब्धता नहीं कर सकी और बड़ी संख्या में इनके पद रिक्त हैं। प्राथमिक पाठशालाओं में इसकी पूर्ति संविदा शिक्षकों और अतिथि शिक्षकों से करने का प्रयास किया गया, लेकिन तब भी मानक पूरा नहीं हो सका।
रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में प्राथमिक शालाओं में 24000 और माध्यमिक शालाओं में लगभग 71000 शिक्षकों की कमी थी। वहीं कई जिलों जैसे भोपाल, इंदौर और शाजापुर के प्राथमिक शाला में 381 शिक्षक मानकों से अधिक थे। 2011-12 में माध्यमिक शाला में जहाँ 2 शिक्षकों वाले 388 शाला थे, वो 2015-16 में बढ़कर 7937 हो गए। अगर एकल शिक्षक विद्यालय की बात करें तो मार्च 2016 में इनकी संख्या 18213 थी।
अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति एक वैकल्पिक और तात्कालिक व्यवस्था थी, न कि किसी पद के विरुद्ध पदस्थापना परन्तु सरकार ने इसे पूर्णकालिक सेवा का विकल्प बना लिया। इन अतिथि शिक्षकों के चयन की अहर्ता अलग थी जिसके चलते इनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की उम्मीद करना बेमानी है।
शिक्षकों को शैक्षणिक कार्यों के अलावा अन्य कामों की जिम्मेदारी सौप दी जाती है, जबकि कानून में साफ़ लिखा है कि जनगणना, आपदा और निर्वाचन से सम्बंधित कार्यों के अलावा किसी अन्य कार्यों में शिक्षकों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। निर्वाचन नामावली सुधार से सम्बंधित अन्य काम शिक्षकों को छुटटी के दिन, अशैक्षणिक दिवस और अशैक्षणिक समय के बाद करना है, लेकिन इसके बावजूद शिक्षकों को शैक्षणिक समय में अशैक्षणिक कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती है।
कानून के 9 साल बीत जाने पर भी पाठशालाओं में अधोसंरचना के मानकों की पूर्ति नहीं हो पायी है। 2015-16 में राज्य के 56 % पाठशालाओं में प्रधानाध्यापक के लिए कक्ष की कमी, 6% पाठशालाओं में लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक शौचालयों का न होना, 13% पाठशालाओं में मध्याह्न भोजन के लिए रसोईघर घर की अनुपलब्धता, 5% शालाओं में पेयजल, 39% खेल के मैदान ,9% शालाओं में पुस्तकालय और 47% पाठशालाओं में बाउंड्रीवाल अनुपलब्ध थे।
वहीं मार्च 2016 तक 12769 प्राथमिक और 10,218 माध्यमिक पाठशालाओं में छात्र-कक्षा का अनुपात मानकों के अनुपात में नहीं था। 4149 विद्यालयों के पास केवल एक कक्षा थी। राज्य शिक्षा केंद्र ने जून 2011 में निर्देश जारी किया था कि बालक और बालिकाओं को प्रत्येक साल दो जोड़ी ड्रेस की लागत राशि 400 रुपए की सहायता प्रदान की जायेगी, जो हर साल जून माह तक जारी कर दी जायेगी, लेकिन इसमें भी अव्यवस्था रही और समय से सहायता प्रदान नहीं की गयी।
निगरानी और शिकायत तंत्र
कानून में शिकायत और निगरानी तंत्र की व्यवस्था की गयी है, लेकिन ये अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर रहे हैं। राज्य सलाहकार परिषद् को हर साल 4 बैठक करनी है, लेकिन 2012 से 2016 तक 16 बैठकों में से केवल 5 बैठकें ही की गयी। शाला प्रबंधन समिति के ज्यादातर सदस्यों को उनकी जिम्मेदारी और भूमिका की जानकारी नहीं है।
वित्तीय स्थिति
कैग रिपोर्ट के अनुसार 2010-11 में जहाँ सर्वशिक्षा अभियान के तहत अनुमोदित राशि का 55% व्यय हुआ था, वहीं 15-16 में केवल 46% राशि ही व्यय हो पायी। यानी सर्वशिक्षा अभियान के लिए आबंटित राशि का उपयोग शिक्षा विभाग द्वारा नहीं किया जा सका, जबकि विभाग हमेशा बजट की कमी का रोना रोते रहते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की शिक्षा की स्थिति को लेकर सरकार द्वारा राज्य और जिला स्तर पर जारी आकंड़ों में ही विसंगतियां देखने को मिलती हैं। राज्य द्वारा सभी पात्र बच्चों की पहचान न की जा सकी और उनका पता भी नहीं लगाया जा सका। कानून में निर्धारित न्यूनतम अधोसंरचना और शिक्षकों की उपलब्धता के मानकों को अभी भी प्राप्त नहीं किया जा सका है।
अगर प्रदेश की सरकार शिक्षा के अधिकार कानून के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है तो उसे कानून में प्रदान मापकों की जल्द ही पूर्ति करना होगा। शिक्षा विभाग को वंचित तबकों के बच्चों की पहचान कर पाठशाला में दाखिला के लिए सघन प्रयास करना होगा। पाठशालाओं के अधोसंरचना की पूर्ति पर विशेष प्रयास करना होगा। शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने होंगे जिससे छात्र-शिक्षक अनुपात मानकों के हिसाब से हो और एकल विद्यालय समाप्त हो सके।
माध्यमिक पाठशालाओं में विषयवार शिक्षकों की नियुक्ति करनी होगी। शिक्षकों को अन्य कार्यों में नहीं लगाया जाए, जिससे वो अपना पूरा समय बच्चों को पढ़ने में दे। कानून में तय कार्यदिवस, घंटे को कठोरता से पालन किया जाए और शिक्षा की गुणवत्ता और बच्चों का स्तर में सुधार हो।
पाठशाला प्रबंधन समिति एक वैधानिक समिति है, जिसे सक्रिय किये जाने की जरुरत है। विभाग द्वारा बजट कम का तर्क देना एक बहाना है, जबकि आबंटित राशि का उपयोग पूरी तरह नहीं कर पाते हैं। अतः उस राशि का सही व उचित उपयोग किया जाना चाहिए।