गांधी-आंबेडकर की जीत और आरएसएस की हार । Gandhi-Ambedkar's victory and RSS's defeat।
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नवल किशोर कुमार की टिप्पणी
Gandhi-Ambedkar's victory and RSS's defeat। भारतीय समाज का वह तबका कौन है जो हिंसा में सबसे अधिक विश्वास रखता है? यह सवाल बेवजह का सवाल नहीं है। इस सवाल का जवाब तलाशना हालांकि बहुत जटिल नहीं है। लेकिन इसके पीछे की मानसिकता को समझना बहुत जरूरी है तभी उन कारणों की तलाश की जा सकती है कि आखिर भारतीय समाज में हिंसा होती ही क्यों है? इसके पहले सवाल यह भी कि हिंसा होती कितने प्रकार की है?
तो सबसे पहले यह कि हिंसा का मतलब क्या है? हिंसा मतलब किसी को तकलीफ देना। मतलब मारपीट से लेकर मानसिक यातना तक और इसकी परिभाषा में किसी की हत्या भी शामिल है। अब यह कि हिंसा होती कितने तरह की है। एक हिंसा वह जिसे व्यक्तिगत हिंसा की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह की हिंसा में हिंसक आदमी किसी दूसरे आदमी के साथ व्यक्तिगत कारण से हिंसा करता है। इसमें अधिकांश कारण एकदत तत्कालिक होते हैं। वहीं कुछ व्यक्तिगत हिंसा के पीछे कारण अतीत और कुछ का संबंध भविष्य से जुड़ा होता है। लेकिन व्यक्तिगत हिंसा की एक सीमा होती है। हालांकि व्यक्तिगत हिंसा में हत्या भी शुमार होता है, लेकिन इसकी संख्या बहुत कम होती है।
एक हिंसा है सामुदायिक हिंसा। यह हिंसा का भयावह रूप है। वजह यह कि इसमें हिंसा करनेवाला कोई एक नहीं होता। वहीं हिंसा का शिकार होनेवाला भी कोई अकेला नहीं होता। इस तरह की हिंसा का मकसद व्यापक होता है। सामान्य तौर पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए इस तरह की हिंसा का प्रयोग किया जाता है। सांप्रदायिक व जातीय दंगों को इस तरह की हिंसा में शामिल किया जा सकता है।
अब एक खबर देखिए। खबर यह है कि कल बिहार के मोतिहारी जिले के स्टेशन रोड में बने एक चरखा पार्क में गांधी की प्रतिमा को खंडित कर दिया गया। प्रतिमा तोड़नेवाले के मन में गांधी के प्रति इतनी नफरत थी कि उसने गांधी की टांग तोड़ी, लाठी तोड़ी और फिर प्रतिमा की आंख फोड़ने की कोशिश की गयी। यह मुमकिन है कि तोड़नेवाले ने गांधी की प्रतिमा के उपर पेशाब करने जैसा घृणित कार्य भी किया होगा, क्योंकि वह गांधी से बहुत ज्यादा नफरत करता था और इसी नफरत के कारण उसने गांधी की प्रतिमा की आंख तक फोड़ने की कोशिश की। प्रतिमा के चेहरे को बिगाड़ने की कोशिश की।
अब एक अनुमान लगाइए कि गांधी से इतनी नफरत कौन कर सकता है? अधिकांश का मत होगा कि ऐसा घिनौना काम किसी आरएसएस के आतकंवादी ने किया होगा। उनका जवाब सही भी हाे सकताा है। ऐसा इसलिए कि अभी तक जिस व्यक्ति को मोतिहारी पुलिस ने प्रतिमा तोड़ने के आरोप में गिरफ्तार किया है, उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं दी गयी है। लेकिन वह गांधी से इतनी नफरत करता क्यों था कि उसने गांधी की प्रतिमा की आंख फोड़ने तक की कोशिश की? यदि वह कोई सामान्य अर्द्धविक्षिप्त होता तो निश्चित तौर पर कुछ और भी कर सकता था। मसलन यह कि पार्क का दरवाजा तोड़ देता। पार्क की दीवार तोड़ देता या फिर यह मुमकिन है कि कुछ और नुकसान करता। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने तो गांधी की प्रतिमा तोड़ी और उसकी आंखों को फोड़ने की कोशिश की। तो जाहिर तौर पर वह कोई सामान्य अर्द्धविक्षिप्त नहीं था। उसका कोई ना कोई राजनीतिक कनेक्शन जरूर होगा।
मोतिहारी जिला प्रशासन ने उस व्यक्ति का नाम सार्वजनिक किया है– राजकुमार मिश्रा। मानसिक रूप से स्वस्थ इस व्यक्ति की जाति ब्राह्मण है। यह बेलिसराय मुहल्ले का निवासी है। वह भाजपा का कार्यकर्ता रहा है। इसके अलावा वह आरएसएस का सदस्य भी रहा है। ऐसी जानकारी स्थानीय लोगों से मिली जानकारी द्वारा प्राप्त हुई है।
आप देखें कि नाथूराम गोडसे, वह चितपावनी ब्राह्मण, जिसने गांधी की सीने में धायं-धायं तीन गोलियां उतार दी थीं, उसके मन में भी गांधी के प्रति बेइंतहां नफरत थी। मुमकिन है कि ऐसी ही नफरत राजकुमार मिश्रा के मन में भी रही होगी। वर्ना वह गांधी की प्रतिमा को खंडित क्यों करता? आखिर एक उम्रदराज व्यक्ति की निष्प्राण प्रतिमा से उसे क्या नाराजगी होती कि वह उसकी आंख तक फोड़ने की कोशिशें करता?
दरअसल, यह बात समझने की आवश्यकता है कि भारतीय समाज का सवर्ण तबका अभी तक गांधी के विचारों को बर्दाश्त नहीं कर पाया है। उसके लिए डॉ. आंबेडकर भी सबसे बड़े शत्रु हैं। इसलिए आए दिन यह तबका डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाओं को आए दिन तोड़ता रहता है।
हालांकि गांधी और आंबेडकर के विचारों में तमाम तरह की विभिन्नताएं थीं, लेकिन दोनों में वैचारिक तौर पर मिलन के भी कई बिंदू थे। गांधी और आंबेडकर दोनों वंचित वर्गों को इंसाफ दिलाना चाहते थे। दोनों ने अपने-अपने विवेक से प्रयास भी किया। अब यह बात अलग है कि वंचितों को इंसाफ मिले, गांधी का एकमात्र लक्ष्य नहीं था। जबकि डॉ. आंबेडकर के लिए यह एकमात्र लक्ष्य था। एक ऐसा लक्ष्य, जिसके लिए वह हर कुर्बानी देने को आजीवन तत्पर रहे।
पूना पैक्ट के बाद मुमकिन है कि गांधी को यह अहसास हुआ हो कि उन्होंने दलित-बहुजनों के साथ अन्याय किया है। संभवत: इसलिए गांधी ने अपने अंदर वैचारिक बदलाव किया। इसी बदलाव के तहत उन्हें यह समझ में आ गया होगा कि यदि यह देश बंटा तो सत्ता ऊंची जातियों के पास चली जाएगी और पूरा देश फिर से अलग-अलग रियासतों में बंट जाएगा। जिस तरह की गंगा-जमुनी एकता की बात गांधी करते थे, उसका मकसद एकदम साफ था कि इस देश में किसी खास तबके का राज कायम ना रहे। सभी मिल-जुलकर रहें।
लेकिन सवर्ण तबका उनकी इस समझ का काइल नहीं था। वह गांधी से इस बात के लिए तो नाराज था ही कि उन्होंने धर्म के आधार पर मुल्क के बंटवारे का विरोध किया था। वह इस बात से भी खफा था कि उनके कारण ही डॉ. आंबेडकर संविधान निर्माता बने और उन्होंने वंचित जमातों के लिए अफरमिटिव एक्शन के तहत आरक्षण की व्यवस्था की। यह इन प्रावधानों का ही परिणाम है कि मेरे जैसा एक व्यक्ति जो कि कृषक परिवार का है और जो कि श्रमिक है, आज सवर्ण समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मानसिकता पर सवाल खड़े कर रहा है। और मैं कोई अकेला नहीं हूं। आज मेरे जैसे अनेकानेक लोग हैं, जो वर्चस्ववाद का मुखालिफत कर रहे हैं। यही आंबेडकर और गांधी की कामयाबी है और आरएसएस जैसे आतंकवादी संगठनों की हार।