उत्तर प्रदेश में हर एक पार्टी के पास मौजूद हैं अपने-अपने मुख्तार, गुंडों-माफियाओं का होता है पालन-पोषण
मनीष दुबे की रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो, लखनऊ। वाराणसी में डकैत देवेंद्र सिंह गब्बर का मुख्यमंत्री योगी के मंच पर कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने पर खूब बवाल मचा, लेकिन मजाल है जो पार्टी के भीतर या बाहर कोई चूँ तक किया हो। खुद योगी पर लदे मुकदमे वापस हुए। उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या के मुकदमें वापस हुए। सत्ता में खुद जब अपराधी किस्म के लोग बैठे हों तो अपराधियों को संरक्षण मिलना-मिलाना जायज ठहराया जा सकता है। मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, धनंजय सिंह इत्यादि को बनाया बढ़ाया आखिर सत्ताधारियों ने ही तो है। जो इन जैसों को अपने अपने मुताबिक यूज करते हैं।
अजीत हत्याकाण्ड में आरोपी बनाये गये पूर्व सांसद धनंजय सिंह जिस मामले में पुरानी जमानत कटाकर प्रयागराज में हाजिर हुआ था, उसी मामले में वह फिर से जमानत पाकर फतेहगढ़ जेल से बुधवार 31 मार्च की दोपहर रिहा हो गया। दोपहर में ही गुपचुप तरीके से अपने समर्थकों के साथ निकल गया। इसकी भनक लगते ही लखनऊ कमिश्नरेट पुलिस के होश उड़ गये। पुलिस ने बुधवार को ही अजीत हत्याकांड में धनंजय को रिमाण्ड पर लेने के लिये वारंट भी फतेहगढ़ जेल भेजा था। अब पुलिस का कहना है कि धनंजय की तलाश में फिर से दबिश दी जायेगी। उनके मामले में वह अभी भी आरोपी है।
धनंजय सिंह 5 मार्च को जौनपुर के खुटहन थाने में दर्ज पुराने मामले में एमपी-एमएलए स्पेशल कोर्ट में जमानत कटाकर हाजिर हुए थे। इसके बाद उन्हें नैनी जेल से फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया था। 25 दिन धनंजय जेल में बंद रहे लेकिन तब तक विभूतिखंड पुलिस ने अजीत हत्याकाण्ड में उनका वारन्ट नहीं लिया। खुटहन मामले में ही तीन दिन पहले धनंजय को फिर जमानत मिल गई थी। धनंजय के वकील आदेश कुमार सिंह का कहना है कि इस मामले में कोर्ट में दो बार अर्जी देकर पुलिस से पूछा गया था कि धनंजय पर अजीत हत्याकाण्ड में क्या आरोप लगाया है। लेकिन इस पर कोई जवाब नहीं मिला।
यूपी में हालिया लड़ाई डॉन मुख्तार अंसारी पर चल रही है। मुख्तार मऊ निर्वाचन क्षेत्र से विधान सभा के सदस्य के रूप में रिकॉर्ड पांच बार विधायक चुने गए हैं। वह अन्य अपराधों सहित कृष्णानंद राय हत्या के मामले में मुख्य आरोपी थे, लेकिन अंसारी को दोषी नहीं ठहराया जा सका। अंसारी ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के एक उम्मीदवार के रूप में अपना पहला विधानसभा चुनाव जीता, और अगले दो जिसमें एक स्वतंत्र के रूप में 2007 में चुनाव जीते। अंसारी बसपा में शामिल हो गए और 2009 के लोकसभा चुनाव में चुनाव लड़ा लेकिन हार गए, जिसके बाद बसपा ने 2010 में उन्हें आपराधिक गतिविधियों के कारण पार्टी से निष्कासित कर दिया, बाद में उन्होंने अपने भाइयों के साथ अपनी पार्टी कौमी एकता दल का गठन किया। वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2012 में मऊ सीट से विधायक चुने गए। 2017 में बसपा के साथ कौमी एकता दल को विलय कर दिया, और बसपा उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव में पांचवीं बार विधायक के रूप में जीते।
वहीं बात आती है अतीक अहमद की तो अतीक के खिलाफ 44 मामले दर्ज हैं। 1992 में इलाहाबाद पुलिस ने अतीक अहमद का कच्चा चिट्ठा जारी किया था, जिसमें बताया गया था कि अतीक अहमद के खिलाफ उत्तर प्रदेश के लखनऊ, कौशाम्बी, चित्रकूट, इलाहाबाद ही नहीं बल्कि बिहार राज्य में भी हत्या, अपहरण, जबरन वसूली आदि के मामले दर्ज हैं। अतीक के खिलाफ सबसे ज्यादा मामले इलाहाबाद में दर्ज हैं। अपराध की दुनिया में नाम कमा चुके अतीक अहमद को समझ आ चुका था कि सत्ता की ताकत कितनी अहम होती है। इसके बाद अतीक ने राजनीति का रुख कर लिया। वर्ष 1989 में पहली बार इलाहाबाद (पश्चिमी) विधानसभा सीट से विधायक बने अतीक अहमद ने 1991 और 1993 का चुनाव निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ा और विधायक भी बने। 1996 मे इसी सीट पर अतीक को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया और वह फिर से विधायक चुने गए।
अतीक अहमद ने 1999 में अपना दल का दामन थाम लिया। वह प्रतापगढ़ से चुनाव लड़े पर हार गए, और 2002 में इसी पार्टी से वह फिर विधायक बन गए। 2003 में जब यूपी यूपी में सपा सरकार बनी तो अतीक ने फिर से मुलायम सिंह का हाथ पकड़ लिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अतीक को फूलपुर संसदीय क्षेत्र से टिकट दिया और वह सांसद बन गए। उत्तर प्रदेश की सत्ता मई, 2007 में मायावती के हाथ आ गई। अतीक अहमद के हौसलें पस्त होने लगे। उनके खिलाफ एक के बाद एक मुकदमे दर्ज दर्ज हो रहे थे। इसी दौरान अतीक अहमद भूमिगत हो गए। उपचुनाव में जीत दर्ज कर पहली बार बसपा से विधायक बने राजू पाल की 25 जनवरी, 2005 को दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड में सीधे तौर पर सांसद अतीक अहमद और उनके भाई अशरफ को आरोपी बनाया गया था।
बसपा विधायक राजू पाल की हत्या में नामजद आरोपी होने के बाद भी अतीक सांसद बने रहे। यह उसका निजी रसूख था। इसकी वजह से चौतरफा आलोचनाओं का शिकार बनने के बाद मुलायम सिंह ने दिसम्बर 2007 में बाहुबली सांसद अतीक अहमद को पार्टी से बाहर कर दिया। कुल मिलाकर ये प्रादेशिक छत्रप प्रदेश की सत्ता हथियाकर इन बाहुबलियों को अपने साथ मिलाते हैं, कमाई करते हैं। जनता को डरा-धमकाकर वोट लेते हैं। अपने अपने काल में गुण्डों माफियाओं को पालते पोसते हैं। सुनील राठी द्वारा बागपत जेल में हुई मुन्ना बजरंगी की हत्या में धनंजय सिंह का नाम सामने आया था, लेकिन जांच दबा दी गई। सरकार भाजपा की ही थी तो यह कहने बताने की जरूरत नहीं ही है कि धनंजय सिंह पर किसका हाथ है।