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राजनीति

UP Election 2022: UP विधानसभा चुनाव हारेगी BJP? उत्तर पदेश बदलाव के रास्ते पर

Janjwar Desk
4 March 2022 10:13 AM GMT
UP Election 2022: UP विधानसभा चुनाव हारेगी BJP? उत्तर पदेश बदलाव के रास्ते पर
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UP Election 2022: UP विधानसभा चुनाव हारेगी BJP? उत्तर पदेश बदलाव के रास्ते पर

UP Election 2022: उत्तर प्रदेश का चुनाव अपने आखिरी पड़ाव पर है। पहले तो यह लग रहा था कि सिर्फ पश्चिमी उ.प्र. में ही जहां किसान आंदोलन का असर है समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी पर भारी पड़ेगा।

संदीप पाण्डेय की टिप्पड़ी

UP Election 2022: उत्तर प्रदेश का चुनाव अपने आखिरी पड़ाव पर है। पहले तो यह लग रहा था कि सिर्फ पश्चिमी उ.प्र. में ही जहां किसान आंदोलन का असर है समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी पर भारी पड़ेगा। हलांकि चुनाव से बहुत पहले ही सपा मजबूत होती हुई दिखाई पड़ने लगी थी लेकिन यही माना जा रहा था कि नरेन्द मोदी व योगी आदित्यनाथ की डबल इंजन सरकार अन्य इलाकों में कामयाब रहेगी। लेकिन जैसे जैसे चुनाव पूर्व की ओर बढ़ा अप्रत्याशित ढंग से एक मुद्दा - खुले पशुओं का - उठ गया और प्रधान मंत्री तक को चैथे चरण के प्रचार में उन्नाव में कहना पड़ा कि यदि भाजपा की सरकार पुनः बनेगी तो सरकार गाय का गोबर खरीद लेगी ताकि किसान पर अनुपयोगी पशुओं को खिलाने का बोझ न पड़े। मुख्य मंत्री ने चैथे चरण के मतदान से एक दिन पहले घोषणा की कि किसानों को प्रति पशु रु. 900 प्रति माह दिया जाएगा। खुले पशु के मुद्दे पर तो, कम से कम उ.प्र. में, भाजपा को 2019 का संसदीय चुनाव भी हार जाना चाहिए था किंतु रहस्यमयी ढंग से उसके उम्मीदवारों ने बड़े अंतरों से चुनाव जीता। लोगों को यह एहसास है कि 2019 में कुछ हेरा फेरी हुई थी, नही ंतो क्या वजह है कि इतने 'निर्णायक' ढंग से चुनाव जीतने के बाद भी कोई जश्न नहीं मनाया गया था।

अमित शाह ने बीच चुनाव में बयान दिया है कि मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को भी मत दे सकता है। अब अमित शाह का बसपा से क्या लेना देना है? लोगों को अंदाजा है कि शायद भाजपा एवं बसपा में कोई गोपनीय समझौता है जिसमें दोनों में से कोई भी एक दल दूसरे की सरकार बनाने में मदद कर सकता है। लेकिन आम लोगों से पूछा जाए तो लोग दो बातें कह रहे हैं। एक तो वे बदलाव चाहते हैं। वे इस सरकार से मंहगाई, बेरोजगारी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की चरमराई व्यवस्था, कानून व व्यवस्था के नाम पर डर व आतंक का माहौल, जनता के धन से अपनी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताने वाले विज्ञापन व कोविड के बाद एक असुरक्षा के माहौल जैसे मुद्दों पर तंग आ गए हैं। दूसरा लोग नाम लेकर कह रहे हैं कि अखिलेश यादव को पुनः मुख्य मंत्री बनना चाहिए। मुस्लिम व यादव तो इसमें एकमत हैं, अन्य जातियों के लोग भी, दलित से लेकर ब्राह्मण तक, इस बार ऐसा ही सोच रहे हैं। जहां पर सपा भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं है वहां लोग बसपा या अन्य जो भी उम्मीदवार भाजपा को हरा सकता है उसका समर्थन कर रहे हैं। यह एक अनोखी घटना है। मुसलमान तो इस बात के लिए जाना जाता है कि वह उसी उम्मीदवार का समर्थन करता है जो भाजपा को हराने की स्थिति में होता है। इस बार ऐसा सोचने वालों का दायरा बड़ा हो गया है। भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लोगों को यह डराते रहते हैं कि भारत में एक दिन मुसलमानों की जनसंख्या हिन्दुओं से ज्यादा हो जाएगी। ऐसा तो शायद कभी नहीं हो पाएगा लेकिन समाज का एक बड़ा वर्ग मुसलमानों की तरह सोचने लगा है - किसी भी तरह भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। भाजपा की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का ऐसा अप्रत्याशित परिणाम निकला है।

भाजपा नेताओं के तरकश के तीर खत्म होते नजर आ रहे हैं। एक तरफ योगी आदित्यनाथ बार बार कह रहे हैं कि सपा सरकार कब्रिस्तान की दीवार बनवाती थी और उन्होंने मंदिर बनवाए हैं तो दूसरी तरफ अमित शाह कह रहे हैं कि यदि सपा सरकार आएगी तो आजम खान, मुख्तार अंसारी व अतीक अहमद जेल से बाहर आ जाएंगे। वे यह जोड़ना भूल जाते हैं कि भाजपा फिर सत्ता में आई तो आशीष मिश्र व अजय मिश्र टेनी कभी जेल नहीं जाएंगे। अमित शाह को शायद यह अंदाजा नहीं है कि उ.प्र. का उस तरह लम्बे समय के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं किया जा सकता जैसा करने में उनके लोग गुजरात में सफल हुए हैं। योगी आदित्यनाथ लगने लगा है कि एक मुख्यमंत्री के बजाए बुलडोजर के ठेकेदार हैं। भाजपा के नेताओं की सृजन शक्ति क्षीण पड़ गई है। चैथे चरण के मतदान से एक दिल पहले भाजपा ने मुख्य पूरे पृष्ठ का विज्ञापन निकाल कर आम लोगों के मुद्दों पर केन्दित किया है। वह अब किसानों, बेरोजगारों, गरीबों व छात्रों की मांगों को पूरा करने का वायदा कर रही है। लेकिन यहां भी वह विपक्षी दलों की नकल करती नजर आ रही है जैसे महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, लड़कियों के लिए स्कूटी, गरीबों के लिए अन्नपूर्णा कैंटीन से न्यूनतम दाम पर भोजन, आदि वायदे।

दूसरी तरफ लोग अखिलेश यादव की परिपक्वता पर आश्चर्यचकित हैं। एक तरफ अखिलेश ने अपने दल के अंदर प्रतिस्पर्धा को समाप्त किया है। पिछली सपा सरकार में साढ़े चार मुख्यमंत्री बताए जाते थे। दूसरी तरफ अखिलेश ने भाजपा की नेताओं की पूरी फौज जिसमें एक दूसरे से ज्यादा जहर उगलने की प्रतिस्पर्धा होती है, का अकेले ही बिना विचलित हुए मुकाबला किया है। उन्होंने भाजपा के किसी जाल में फंसने के बजाए भाजपा को ही मजबूर किया है कि वह अपने पारम्परिक विभाजनकारी मुद्दों को छोड़ जन साधारण के मुद्दों पर बात करे। सपा के मतदाता ने भी बड़ी परिपक्वता दिखाई है। मुसलमान व यादव बिना शोर-शराबे के सपा का साथ दे रहा है। अन्य जाति के लोग भी इस बदलाव का खुशी खुशी हिस्सा बन रहे हैं। भाजपा को 10 मार्च को एक सदमे के लिए तैयार रहना चाहिए। उसे एक ऐसा नेता जिसकी उम्र भाजपा के राज्य व केन्द के सभी महत्वपूर्ण नेताओं की औसत उमं्र से कम है परास्त करने वाला है।

अखिलेश यादव ने एक तरफ राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), महान दल जैसे दलों के साथ उपयोगी गठबंधन बनाए हंै तो दूसरी तरफ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं जैसे ममता बनर्जी व शरद पवार, जिन्हें एक सीट भी दी है, का आशिर्वाद लिया है। प्रियंका गांधी पहले ही घोषणा कर चुकी हैं कि जरूरत पड़ने पर कांग्रेस सपा का साथ देगी। अखिलेश के पक्ष में चीजें जाती दिखाई पड़़ रही हैं जबकि भाजपा के पक्ष में कुछ भी काम करता नहीं दिखाई पड़ रहा बावजूद इसके कि उसके पास मजबूत नेतृत्व है, मजबूत ढांचा है जिसे रा.स्वं.सं. का भी सहयोग प्राप्त है, धन का कोई अभाव नहीं व अनुकूल चुनाव आयोग व प्रवर्तन निदेशालय जैसे सरकारी संस्थान भी साथ में है।

जब भी भारत के लोकतंत्र पर संकट के बादल मंडराए हैं तो मतदाता ने निर्णायक भूमिका निभाई है। पहली बार उसने ऐसा तब किया जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर लोगों के मौलिक अधिकार भी समाप्त कर दिए थे। अब मतदातओं को लग रहा है कि एक अघोषित आपातकाल की स्थिति है और संविधान खतरे में है, अतः वह पुनः निर्णायक भूमिका निभाने को तैयार है।

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