दलितों की हजारों साल की संस्कृति को ब्राह्मणों ने खत्म कर अपनी संस्कृति थोप दी हम पर : मोहनदास नैमिशराय
राज वाल्मीकि की रिपोर्ट
"हमने जयपुर साहित्य उत्सवों को देखकर महसूस किया कि साहित्य को जन से काटकर बाजारवादी बनाया जा रहा था। सच कहें तो इसे एक उत्पाद में बदला जा रहा था। इसे काउंटर करना हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। हमारा एक सपना था कि दलित साहित्य संस्कृति का अपना उत्सव हो। धीरे-धीरे सहयोग मिलता गया और कारवां बनता गया। हमें लगा इसे अश्वेत आंदोलन से जोड़ना चाहिए। फिर लगा इसमें किन्नर और LGBT समुदाय को भी शामिल करना चाहिए। हमने किया। और आज हम तीसरा दलित साहित्य उत्सव मना रहे हैं जो हमारी उम्मीद से बढ़कर है। और आप जैसे लोगों का सहयोग मिलता रहा तो यह कारवां और आगे जाएगा। यह मनुष्यता को बचाने का कारवां है।" अंबेडकरवादी लेखक संघ से जुड़े प्रोफ़ेसर सूरज बड़त्या ने प्रस्तावना में ये बात कही।
'साहित्य से एक बेहतर दुनिया संभव है' इस टैगलाइन के साथ दलित साहित्य उत्सव का तीसरा दो दिवसीय (3-4 फरवरी) उत्सव आर्यभट्ट कॉलेज, साऊथ कैंपस, दिल्ली यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली में आयोजित किया गया। यह आयोजन अंबेडकरवादी लेखक संघ ने आर्यभट्ट कॉलेज और दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच (DASAM) के साथ मिलकर किया।
कार्यक्रम शुरू करने से पहले गुजर गए दलित साहित्यकारों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखा गया। इसके बाद संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर कार्यक्रम का विधिवत प्रारंभ हुआ। कार्यक्रम की शुरुआत ध्रुपद गायिका सुश्री सुरेखा कांबले के गायन से हुई। इसके बाद बुद्धवंदना हुई।
DASAM के प्रमुख संजीव डांडा ने कहा कि दलित साहित्य उत्सव के पहले दो कार्यक्रम करोड़ीमल कॉलेज में हुए। शुरुआत में मात्र पचास लोगों की इसमें शिरकत करने की अपेक्षा थी, पर इसमें उम्मीद के विपरीत करीब 2000 लोगों ने भागीदारी की। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी कार्यक्रम को खूब स्पेस दिया।
आर्यभट्ट कॉलेज के प्रिंसिपल मनोज सिन्हा ने लोगों का स्वागत करते हुए कहा इस तरह के कार्यक्रमों में शामिल होकर हमें भी बहुत खुशी है। दलित साहित्य और संस्कृति के लिए हमारा भी कुछ योगदान हो इसके लिए हम आगे भी तैयार रहेंगे।
तमिलनाडु से आईं थर्ड जेंडर कार्यकर्ता ग्रीस बानो ने कहा कि उन्हें ख़ुशी है कि दलित साहित्य उत्सव हमें स्पेस देता है और दलित साहित्य को भी अपना स्पेस खुद क्रिएट करना चाहिए। कब तक हम दूसरों पर निर्भर रहेंगे।
दिल्ली के हिंदी विभाग के प्रमुख प्रोफ़ेसर श्योराज सिंह बेचैन ने अपनी बात मे कहा कि जब भारत एक देश एक समाज है तो फिर बाबा साहेब अंबेडकर को "बहिष्कृत भारत" निकालने की जरूरत क्यों पड़ी। स्पष्ट है कि भारत अलग-अलग जातियों में बंटा हुआ था।
उन्होंने कहा कि हिंदी दलित साहित्य में सिर्फ हमारा ही योगदान नहीं है, बल्कि इसमें हमारे पूर्वजों का बड़ा योगदान है। उन्होंने कहा कि मेरे अध्ययन के अनुसार शुरू में करीब 100 ऐसे लेखक थी जिन्होंने छोटी-छोटी पुस्तकें निकालीं। उनका नेतृत्व बिहारीलाल 'हरित' जैसे साहित्यकार कर रहे थे। उन्होंने कहा कि युवाओं में यह भावना होनी चाहिए कि वे इस परंपरा को आगे बढ़ाएं। उन्होंने दलित साहित्य के बारे में बोलते हुए कहा कि दलित साहित्य और साहित्यकारों का उद्देश्य लोकतंत्र का निर्माण करना है। मनुष्यता को बचाना है।
वरिष्ठ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने अपने वक्तव्य में कहा कि दलित साहित्य की शुरुआत दलित संस्कृति और अस्मिता से हुई है। मेरे विचार में दलित साहित्य बाज़ार में आना चाहिए। हमारी हजारों साल की संस्कृति को ब्राह्मणों ने खत्म किया और अपनी संस्कृति हम पर थोप दी। आज हर जगह हिन्दू संस्कृति थोपी जा रही है। उन्होंने कहा कि हमें छोटे-छोटे गांवों में इस तरह के उत्सव करने चाहिए।
दलित साहित्यकार असंगघोष ने कहा कि दलित साहित्य उत्सव की किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है। दलित साहित्य उत्सव का उद्देश्य जन-जन तक समता, गरिमा और बराबरी की बात पहुंचाना है।
इस अवसर पर तीन पुस्तकों का विमोचन भी हुआ। इनमे चौथीराम यादव पर लिखी पुस्तक "बात कहूं मैं खरी-खरी", डॉ.बलराज सिंहम़ार की पुस्तक "हिंदी सिनेमा : आलोचनात्मक संवाद" और प्रोफ़ेसर सीमा माथुर के कविता संग्रह "जंग जारी है" का लोकार्पर्ण किया गया।
इसके अलावा दलित साहित्य पर शोध पत्र पढ़े गए। बीच-बीच में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। श्याम कुमार और नीयति राठोड ने नाट्य प्रस्तुति की। राहुल कुमार और राशिका द्वारा नृत्य प्रस्तुत किया गया।
कवि सम्मलेन में देश भर से आए कवियों ने अपने कविताओं का पाठ किया। कविताओं के माध्यम से समता, समानता, स्वतन्त्रता, गरिमा और न्याय जैसे मानवीय मूल्यों को श्रोताओं में प्रेषित किया गया।