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समाज

Uttarakhand : आजादी के 75 साल बाद भी विकास की राह ताकता चंपावत का भिंगराड़ा गांव, रोजी-रोटी के लिए लगातार पलायन जारी

Janjwar Desk
16 Sep 2023 2:23 PM GMT
Uttarakhand : आजादी के 75 साल बाद भी विकास की राह ताकता चंपावत का भिंगराड़ा गांव, रोजी-रोटी के लिए लगातार पलायन जारी
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प्रतीकात्मक फोटो

शादीशुदा महिलाओं को माहवारी आने पर परिवार से बिल्कुल अलग थलग कर दिया जाता है, उन्हें घर के बाथरूम तो क्या खेतों से भी दूर कहीं गड्ढे में जिसे गांव के लोग खोला कहते हैं, स्न्नान करने के लिए भेजा जाता है...

हिमांशु जोशी की रिपोर्ट

Migration from Uttarakhand : उत्तराखंड के पहाड़ों में घूमते हुए आपको मुख्य सड़क से लगे कई रास्ते ढलान में जाते दिखते हैं, यह रास्ते उन गांवों तक जाते हैं जो देश में इस समय नाम की राजनीति से दूर विकास के लिए तरस रहे हैं। दिल्ली, देहरादून से चुनाव प्रचार के लिए आने वाले इन गांवों के नीति निर्माता शायद ही कभी इन रास्तों पर उतरते हैं। आजादी के सालों बाद भी इन गांवों का जीवन आज भी कठिन है और शायद यही कारण है कि उत्तराखंड के पहाड़ खाली हो रहे हैं। चम्पावत जिला मुख्यालय से लगभग 55 किलोमीटर दूर स्थित 'भिंगराड़ा' तक पहुंचने के लिए आपको टैक्सी मिल जाएगी।

गांव में पहुंचने पर आपको एक वहां जाने के लिए सड़क से ढलान मिलेगी, यह रास्ता कुछ मीटर ही पक्का है। जहां यह रास्ता खत्म होता है, लगभग वहीं आपको उद्यान विभाग का एक बोर्ड लगा मिलेगा। इसके बारे में जानने की उत्सुकता में हमें इस गांव के कमल भट्ट मिलते हैं। अपनी स्कूली शिक्षा सबसे नजदीकी मैदानी क्षेत्र टनकपुर से प्राप्त कर चुके कमल अब सहकारी समिति भिंगराड़ा में नौकरी करते हैं, वह कहते हैं कि बोर्ड में लिखी 'परम्परागत कृषि विकास योजना' से ग्रामवासियों को फायदा ही हुआ है। इससे उन्हें खेती के लिए मशीन व बीज उपलब्ध हो जाते हैं, मधुमक्खी पालन के लिए भी सहायता मिलती है।

कमल बताते हैं कि गांव में पहले लगभग सौ परिवार थे, अब यह संख्या पचास तक सीमित हो गई है। गांव के लोग रोजगार की तलाश में नजदीकी मैदानी शहर हल्द्वानी, खटीमा, टनकपुर पलायन कर जाते हैं। इस समय गांव की आबादी लगभग चार सौ होगी।

कृषि में मदद हेतु अच्छी सरकारी योजना के बावजूद पलायन के सवाल पर कमल कहते हैं कि गांव में हल्दी, अदरक, अरबी, मिर्च, लहसुन, मंडुआ होता है पर जंगली जानवर सब खराब कर देते हैं। पशुपालन गांव के लोगों का मुख्य व्यवसाय है पर उससे बस घर ही चल पाता है। पलायन रोकने के लिए जो भी सरकारी योजनाएं बनती होंगी, गांव में उसका कोई असर नहीं दिखता।


सरकारी कार्यालयों की बात करें तो गांव में सरकारी अस्पताल, बैंक, पोस्ट ऑफिस और उद्यान विभाग का कार्यालय है। कमल कहते हैं कि अस्पताल में पहले कोई डॉक्टर नहीं थे लेकिन अभी कुछ समय पहले से हैं, अस्पताल में सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है। कोई जांच कराने के लिए भी यहां से पैंतालीस किलोमीटर दूर लोहाघाट जाना पड़ता है। गांव में अगर किसी की तबीयत खराब हो जाती है तो उसे सड़क तक लाने के लिए दो किलोमीटर डोली पर उठाकर लाना पड़ता है।

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कमल कहते हैं कि हमारे गांव में जितने लोग भी बचे हैं वह मुख्य रूप से पशुपालन की वजह से ही रुके हुए हैं। गांव में लगभग डेढ़ सौ गाय और चार भैंस होंगी, जिसमें पचास गाय दूध देने वाली होंगी।

महीने में मिलने वाले वृद्धावस्था पेंशन के पन्द्रह सौ रुपए और किसान सम्मान निधि के पांच सौ रुपए भी जीने का सहारा बने हुए हैं। हां, इन पैसों की वजह से गांव वाले अब मेहनत भी कम करने लगे हैं। उन्हें अब बस अपना पेट भरते रहना ही पसंद आने लगा है।

गांव के कच्चे रास्ते में आगे बढ़ने पर तीन स्कूली छात्र नीलम भट्ट, खिलानन्द भट्ट और गौरव भट्ट भी मिल गए। नीलम भट्ट गांव के ही सरकारी इंटर कॉलेज में पढ़ते हैं, वह कहते हैं कि सरकारी प्राइमरी स्कूल और इंटर कॉलेज के अलावा गांव में आठवीं कक्षा तक एक प्राइवेट स्कूल भी है।

प्राइमरी में बारह बच्चे, इंटर कॉलेज में साढ़े तीन सौ और प्राइवेट में लगभग डेढ़ सौ बच्चे पढ़ते हैं। नीलम अपने भविष्य को लेकर अभी अनिश्चित हैं, वह कहते हैं कि गांव के अन्य बच्चों की तरह ही वह भी होटल मैनेजमेंट कोर्स, कला से ग्रेजुएशन या फिर पुलिस, फौज में नौकरी तलाशेंगे।

नीलम के पिता माधवा नन्द भट्ट घर में ही रहते हैं और उनके पास दो गाय, दो बछड़े हैं। नीलम कहते हैं कि उनके पिता पहले मनरेगा में मजदूरी कर घर का खर्चा चलाते थे पर अब उसमें भी महीने के पांच दिन ही काम मिलता है बाकी पच्चीस दिन पिता को खाली बैठना पड़ता है। बाहर जाकर प्राइवेट नौकरी कर रहे दो भाइयों की वजह से घर का चूल्हा जल रहा है।

खिलानन्द भट्ट की कहानी भी नीलम की तरह ही है। उनके पिता भी मजदूरी करते हैं, मनरेगा में काम न मिलने की वजह से अब ज्यादा समय घर पर ही रहते हैं। उनका एक भाई होटल मैनेजमेंट करने के बाद दिल्ली के एक होटल में काम करता है और दुसरा अक्षरधाम मंदिर में। खिलानन्द पढ़ाई के बाद फौज में भर्ती होना चाहते हैं, उनके घर में आठ गाय और एक बैल हैं, जिसमें दो गाय दूध देती हैं।

गौरव भट्ट के घर की आर्थिक स्थिति खिलानन्द और नीलम के घर से अलग है क्योंकि उनका कोई भाई नहीं है जो बाहर से पैसे कमा कर घर भेजे। उनके पिता भी मजदूरी करते हैं, उनके परिवार में दस गाय हैं। दस में से पांच गाय दूध देती हैं और गौरव का परिवार इसी दूध को डेयरी में बेच कर चलता है। वह कहते हैं इस दूध से महीने के लगभग आठ हजार रुपए मिलते हैं, जिसमें चार तो गाय के चारे में लग जाते हैं और बचे चार हजार से घर का खर्चा चलता है।

नीलम भट्ट कहते हैं कि गांव में कोई लाइब्रेरी नहीं है। वह लोग स्कूल की लाइब्रेरी में ही पढ़ते हैं, जहां प्रतियोगी परीक्षाओं को तैयारी से जुड़ी किताब ज्यादा पढ़ी जाती हैं। तीनों बच्चे और कमल भट्ट गांव में जातिवाद जैसी बात नकारते हुए कहते हैं कि इस गांव में सभी लोग एक ही जाति के हैं तो गांव में जातिवाद जैसी कोई बात नहीं है।

गांव की लड़कियों का विवाह 12वीं कक्षा पास करते ही कर दिया जाता, लड़कियां अगर फेल भी हो जाएं तब भी उनकी शादी कर दी जाती है। गांव में महिलाओं की स्थिति पर कमल भट्ट कहते हैं कि यहां की लगभग सभी महिलाएं घर के काम में ही लगी रहती हैं, उन्हें कोई ऐसी लड़की याद नहीं आती जो पढ़ लिख कर कहीं अच्छे पद पर पहुंची हो। शादीशुदा महिलाओं को माहवारी आने पर परिवार से बिल्कुल अलग थलग कर दिया जाता है। उन्हें घर के बाथरूम तो क्या खेतों से भी दूर कहीं गड्ढे में जिसे गांव के लोग खोला कहते हैं, स्न्नान करने के लिए भेजा जाता है।

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