पहले होते थे अधिकार-विहीन गुलाम, मगर जबसे गुलामों के अधिकारों की चर्चा शुरू तबसे पूरी जनता ही सत्ता की गुलाम
वास्तविकता में जनता लोकतंत्र में कहीं नहीं होती, बस उसकी याद सत्ता को और सत्ता पर आँख गडाए लोगों को मतदान के दिनों में आती है
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। लोकतंत्र/प्रजातंत्र/गणतंत्र (Democracy) की परिभाषा में सबसे ऊपर जनता (Public) होती है, पर वास्तविकता में जनता लोकतंत्र में कहीं नहीं होती, बस उसकी याद सत्ता को और सत्ता पर आँख गडाए लोगों को मतदान के दिनों में आती है। जनता के सन्दर्भ में अब लोकतंत्र की परिभाषा नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है। पपहले होते थे अधिकार-विहीन गुलाम, मगर जबसे गुलामों के अधिकारों की चर्चा शुरू तबसे पूरी जनता ही सत्ता की गुलाम
हिंदी कविता में छायावाद के दौर तक जनता हिंदी साहित्य का हिस्सा नहीं रही, पर उसके बाद जबसे यथार्थवाद का दौर आया, तबसे जनता की हालत तो नहीं सुधरी पर अपनी बदहाली के साथ जनता साहित्य का, विशेष तौर पर कविताओं का पात्र बन गया। अंग्रेजों के दौर से आज तक के बीच जनता की बस यही उपलब्धि रही है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) यथार्थवाद के पुरोधा रहे हैं और जनता के सन्दर्भ में कविताओं की चर्चा उनके बिना शुरू कर पाना असंभव है। इमरजेंसी के दौर से ठीक पहले जयप्रकाश नारायण (Jaiprakash Narayan) की अगुवाई में सरकार के विरुद्ध देशव्यापी प्रदर्शन के दौरान दिनकर जी की पंक्तियाँ, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, चारों दिशाओं में गूंजती थीं।
सिंहांसन खाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता;
गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
कवि डीएम मिश्रा (D M Mishra) ने अपनी कविता, "जनता को तू समझ रहा नादान, तू कितना नादान" में सत्ता को आगाह किया है कि जनता भले ही शांत हो पर नादान समझने की भूल कुठाराघात से कम नहीं है। जनता देश के लिए स्थाई है, पर सत्ता की डोर केवल पांच वर्षों के लिए ही बंधी होती है।
जनता को तू समझ रहा नादान, तू कितना नादान
जनता को तू समझ रहा नादान,तू कितना नादान
लोकशक्ति का नहीं तुझे अनुमान तू कितना नादान
कागज़ के कुछ नोटों के अतिरिक्त क्या है तेरे पास
फिर भी समझ रहा ख़ुद को धनवान तू कितना नादान
तोड़ दिया लोगों का तूने ख़्वाब भोग रहा अभिशाप
बेच दिया तूने अपना ईमान तू कितना नादान
गाल बजाकर चला है बनने वीर अन्दर से भयभीत
बाघ दिखें है तुझको पाकिस्तान तू कितना नादान
कितने झूठ अभी बोलेगा यार डूब न जाये यान
छल करके तू बन बैठा कप्तान तू कितना नादान
जनता समझ रही है सारा खेल रख इसका भी ध्यान
पाँच साल की होती ये दूकान तू कितना नादान
कवि कौशल किशोर (Kaushal Kishor) ने अपनी कविता, जनता, में जनता की तुलना शहर की दीवारों से की है, जिसपर चुनावों के समय रंगीन सब्जबाग वाले पोस्टर लगाए जाते हैं और चुनावों के बाद सन्नाटा पसर जाता है।
जनता
जनता
मेरे शहर की
सबसे ऊँची दीवार की तरह है
जिसकी सपाट पीठ पर
हरेक चुनाव से पहले
लिख दी जाती हैं रंगीन बातें
उसकी आंखों के रुपहले परदे पर
हसीन सपने
और चुनाव के बाद
गुम हो जाता है सब
न जाने किस तहखाने में
जनता के हाथ
कुछ नहीं आता
हाँ, आता है अगले चुनाव तक
इन्तजार,
बस, इन्तजार।
"जनता की सेवा में" शीर्षक से एक कविता गोपाल कृष्ण शर्मा मृदुल (Gopal Krishn Sharma Mridul) ने लिखा है, जिसमें कवि ने जनता को कलयुग की कामधेनु कहा है – सत्ता भले ही जनता की उपेक्षा करे, पर जनता हमेशा सत्ता को मां-सम्मान और गद्दी देती है।
जनता की सेवा में
जनता कि सेवा में जाने कितना दूध-दही
लिखो लाभ का पूरा ब्योरा, छोटी पड़े बही।
तीन साल में तीस गुना धन,
सब भौचक्के हैं
ताक-झाँक करते फिरते जो,
चोर-उचक्के हैं।
करें विरोध
कहें नेता जी है परवाह नही
बना रहे जन-तंत्र और
यह जनता बनी रहे
माया-मोह न छूटे इसका,
प्रण की धनी रहे
कोर-कसर पूरी कर लेंगे
आगे रही-सही
यह कलयुग की कामधेनु
जो माँगो देती है
मन में करो कामना,
यह पूरी कर देती है
इसके जैसा दाता-दानी,
कोई और नहीं।
कवि बल्ली सिंह चीमा (Balli Singh Cheema) की कविता, जनता के हौसलों की सडकों पर धार देख, में जनता के दमन, अभिव्यक्ति पर पहरे और जनता की ताकत का एक साथ वर्णन है।
जनता के हौसलों की सडकों पर धार देख
जनता के हौंसलों की सड़कों पर धार देख
सब-कुछ बदल रहा है चश्मा उतार देख।
जलसे-जुलूस नाटक, हर शै पे बन्दिशें,
करते हैं और क्या-क्या भारत के ज़ार देख।
तू ने दमन किया तो हम और बढ़ गए,
पहले से आ गया है हम में निखार देख।
हैं बेलचों, हथौड़ों के हौंसले बुलन्द,
ये देख दु्श्मनों को चढ़ता बुखार देख।
तेरी निजी सेनाएँ रोकेंगी क्या इन्हें,
सौ मर गए तो आए लड़ने हज़ार देख।
सच बोलना मना है गाँधी के देश में,
फिर भी करे हिमाक़त ये ख़ाकसार देख।
राजनेताओं की सभा, बेतुकी बयानबाजी और सभा से लौटती जनता के मनोविज्ञान को कवि प्रेमशंकर रघुवंशी (Premshankar Raghuvanshi) ने अपनी छोटी कविता, लौटती जनता, में प्रस्तुत किया है।
लौटती जनता
वे, सड़क, पानी
बिजली को मुद्दा बनाते
और वे, मंदिर-मस्जिद को।
और दोनों की
सभाएँ सुनकर लौटती जनता
पहले से ज़्यादा
गंजापन लिए
सिर पर हथेलियाँ फेरती-
घर लौट आती है।
इस लेख के लेखक ने अपनी कविता, जनता की आवाजें, में आज के दौर में जनता की परेशानियों को उजागर किया है और यह बताया है कि खामोश जनता कभी भी सत्ता को हिलाने की ताकत रखती है।
जनता की आवाजें
सड़कें हैं, जनता है
संसद है
जनता की आवाजें नहीं हैं
गालियां हैं, हंगामे हैं।
न्यायालय हैं
न्याय नहीं है
पैसा है, तमाशा है।
समाचार चैनल हैं
समाचार नहीं हैं
प्रचार है, झूठ है।
पुलिस है
न्याय व्यवस्था नहीं है
लूटपाट है, रिश्वत है।
विकास है
लोग नहीं हैं
धर्म हैं, जातियां हैं।
कश्मीर है
स्वर्ग नहीं है
गोलियां है, मौत है।
सड़कें हैं
और बनी रहेंगी
विद्रोह की चिंगारी
यहीं शुरू होती है।
जनता है
पिस रही है, खामोश है
पर, चिंगारी से अंगारा बनायेगी
बदल देगी पूरी व्यवस्था
चूर कर देगी सारा दंभ।