पिंकी करमाकर ने लंदन ओलंपिक में हाथ में थामी थी मशाल, अब चाय बागान में 167 रुपये की दिहाड़ी पर मज़दूरी करने पर मजबूर
(लंदन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पिंकी करमाकर आज चाय बागान में 167 रुपये की दिहाड़ी करने को मजबूर)
(photo source:social media)
जनज्वार। देश के लोगों की याददाश्त से बहुत सी बातें काफी जल्दी विस्मृत हो जाती हैं। कुछ ऐसा ही खिलाड़ियों या कुछ और क्षेत्रों के सेलिब्रेटिज के मामलों में भी हो रहा है। एक तरफ हालिया संपन्न टोक्यो ओलंपिक्स में देश के लिए पदक जीतने वाले खिलाड़ियों की तारीफों के कसीदे गढ़े जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ, देश के लिए अच्छा प्रदर्शन कर चुके कुछ खिलाड़ियों को इस कदर भुला दिया गया है कि उन्हें परिवार का पेट भरने में भी मुश्किल हो रही है।
देश की रीति है कि ऐसे हर्ष के मौके क्षणिक बनकर रह जाते हैं और उन क्षणों में हीरो बन खिलाड़ी कुछ यूं विस्मृत कर दिए जाते हैं जैसे कभी उनका अस्तित्व ही न रहा हो। खिलाड़ी ज़िन्दगी लगाकर पदक लाता है और ये भूलने में लोगों और ख़ासतौर पर सरकारों को ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। सरकारों की उपेक्षा का एक ऐसा ही बहुत दुखद उदाहरण असम से सामने आया है।
हम बात कर रहे हैं साल 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर ओलंपिक मशाल थामने वाली खिलाड़ी पिंकी करमाकर की। 2012 लंदन ओलंपिक्स में असम के डिब्रुगढ़ ज़िले की 17 साल की पिंकी करमाकर ओलंपिक मशाल लेकर लंदन की सड़कों पर दौड़ी थीं। जब पिंकी अपने राज्य वापस लौटी तो उनका वैसा ही स्वागत हुआ था जैसा किसी ओलंपिक पदक विजेता का होता है।
डिब्रुगढ़ के तब के सांसद सरबानंद सोनोवाल पिंकी को लेने के लिए एयरपोर्ट पर पहुंचे थे। पिंकी को ओपनटॉप गाड़ी में बैठाया गया और जहां से भी उनका काफ़िला गुज़रा लोगों ने उनका जय जयकार कर उत्साहवर्धन किया था। पर देशवासियों और सरकारों की याददाश्त कितनी कमजोर होती है कि एक वक्त की हीरो आज किस हाल में है, कोई सुधि लेनेवाला नहीं।
न तो सरकारों और नेताओं ने उस वक्त के वादे पूरे किए, न ही कोई और सामने आया। लिहाजा, लंदन ओलंपिक्स की वही टॉर्च बियरर आज अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए मजदूरी करने को विवश हो चुकी है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, पिंकी करमाकर असम के चाय बागान में 167 रुपये प्रतिदिन की पगार पर मज़दूरी करने को विवश है। पिंकी फिलहाल बोरबोरुआ चाय बगान में मज़दूरी कर रही है। पिंकी अपने स्कूल में यूनिसेफ़ की स्पोर्ट्स फ़ॉर डेवलपमेंट प्रोग्राम भी चलाती थी और हर शाम 40 अशिक्षित महिलाओं को पढ़ाती थी। वही पिंकी आज अपने घर से कमाने वाली इकलौती शख़्स हैं।
पिंकी की पिछले दस सालों से ज़िन्दगी बड़ी ही कठिनाईयों से गुजर रही है। पिंकी ने इन दस सालों में बहुत कुछ देखा और दाने दाने की मोहताज होने तक की नौबत आ गयी। पिंकी का कहना है की सरकार की तरफ से उन्हें काफी मदद की उम्मीद थी लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। पिंकी को सिर्फ और सिर्फ निराशा का सामना करना पड़ा।
पिंकी के बड़े सपने थे, वो उन सपनों को साकार करने के लिए काम ही कर रही थी लेकिन विपरीत परिस्थितियों में वो अकेले पड़ गईं। दुख की बात है कि पिंकी को सरकार की मदद नहीं मिली। "मेरे बड़े सपने थे लेकिन अब कोई उम्मीद नहीं बची है। मेरी मां की मौत के बाद मुझे कॉलेज छोड़ना पड़ा क्योंकि पैसों की बहुत कमी थी। मैंने घर चलाने के लिए चाय बगान में मज़दूरी करना शुरू किया।" पिंकी ने कहा।
पिंकी का कहना है कि उसकी जीत को कभी सभी ने मिलकर सराहा था और आज उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा। "सरकार और यूनिसेफ़ ने मेरी मदद नहीं की। आज तक मुझे कोई आर्थिक मदद नहीं मिली। सच्चाई यही है कि मज़दूर की बेटी मज़दूर ही रह गई।", पिंकी ने कहा।