The Kashmir Files: " द कश्मीर फाइल्स" जैसी फिल्में सच तो आधा ही दिखाती हैं लेकिन फसाद पूरा मचता है!
द कश्मीर फाइल्स
कुमार विवेक की रिपोर्ट
The Kashmir Files : "राहत कैंप में सिलाई मशीन पर तेजी से कपड़ों की सिलाई कर रही यामीन पूरी तन्मयता से अपने काम में जुटी है। यामीन जिस शर्ट की सिलाई कर रही है उस एक शर्ट की सिलाई के बदले में उसे बमुश्किल छह रुपए ही मिलेंगे। दिन भर खून पसीना एक करने के बाद भी यामीन तकरीबन 10 शर्ट ही सिल पाएगी। ऐसे में उसकी दिनभर की आमदनी 60 से 70 रुपए ही हो पाएगी। कभी यामीन का भी हंसता खेलता घर था, गांव था पर आज उसके पास कुछ भी नहीं। राहत कैंप की छत है और पेट भरने के लिए शर्ट सिलाई का यह काम पर इससे भी निवाला जुटाना इतना आसान नहीं।" यह कहानी द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files) की तो नहीं है पर इस कहानी को अगर ऐसा ही कुछ सिनेमैटिक नाम देना हो तो इसे मुजफ्फरनगर फाइल्स जरूर कह सकते हैं। मुजफ्फरनगर के फगुना गांव (Phaguna Village) की यामीन का मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान सब कुछ लुट गया, घर जला दिया गया था, उसके बाद से वह 17 राहत कैंपों में से एक में दूभर परिस्थतियों के बीच रहने को मजबूर है। यामीन की तरह ही पलायन का यह दर्द देश के अलग-अलग हिस्सों में कई जगहों पर लोग झेलने को मजबूर हैं। पर उनकी कहानी कहने वाली कोई फिल्म आज तक नहीं बन पायी है।
जम्मू और कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के पलायन पर बनी फिल्म द कश्मीर फाइल्स इन दिनों चर्चा में है। देश भर से लोगों का समर्थन फिल्म को मिल रहा है। देश के कई भाजपा शाषित राज्यों में फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया है और बिहार जैसे कई राज्यों में इस फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांग उठ रही है। आखिर इस फिल्म मे ऐसा क्या कि एक खास विचारधारा के बीच इस फिल्म को लेकर गजब का समर्थन है। लोग सोशल मीडिया से लेकर सिनेमाघरों तक में फिल्म को लेकर कसीदे गढ़ रहे है। पर क्या ये सब केवल उतना ही है जितना सामने दिख रहा है या इन सबके पीछे कुछ और भी है।
फिल्म कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से पलायन पर बनी है जो 1990-1991 में कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन में तेजी आने के दौरान हुई थी। इस पूरी फिल्म में उसी दर्द को काफी खूबसूरती से उकेरा गया है। फिल्म अच्छी बनी है और इसलिए लोगों को पसंद आ रही है यहां तक बात ठीक है। पर इसी फिल्म में कश्मीर की एक बहुसंख्यक कम्युनिटी को विलेन के तौर पर चित्रित किया गया है क्या वह भी कश्मीरी पंडितों के पलायन जितना ही सही है। शायद नहीं। इन दृश्यों में फिल्मकार के एक खास विचारधारा से प्रेरित होकर कुछ कहना खास तौर देखा जा सकता है। ऐसे में यह कहना कि यह फिल्म किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित नहीं है सौ फीसदी सही नहीं लगता है।
कश्मीर से पंडितों का पलायन हुआ यह गलत था, परिस्थितियां चाहे जो भी रहीं हो। उनके पलायन को रोके जाने की कोशिशें उस वक्त होनी चाहिए थीं। ऐसे में उनके दर्द की कहानी कही जानी चाहिए। पर उनके साथ-साथ देश में दूसरे जगहों पर जो पलायन की समस्याएं आईं है उन पर भी कहानी कहे जाने की जरुरत है, जो दुर्भाग्य से नहीं कही गयी है। पर हमारे सिनेमा या किसी और माध्यम ने शायद ही ऐसी कोई सगजता दिखायी है। जैसी सजगता द कश्मीर फाइल्स की कहानी कहने में दिखायी गयी है वैसी ही सजगता दूसरे मामलों में भी दिखनी चाहिए।
पलायन की एक और दर्दनाक कहानी छत्तीसगढ़ से जुड़ी है। जून 2005 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान की शुरुआत हुयी थी. सलवा-जुडूम को शुरू करने में छत्तीसगढ़ (Chattishgarh) कांग्रेस पार्टी के कद्दावर आदिवासी नेता और बस्तर का शेर कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा की अहम भूमिका थी। लेकिन नक्सलियों का सफाया करने के उद्देश्य से शुरू हुआ सलवा जुडूम अभियान खुद बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के लिए जी का जंजाल बन गया. इस आंदोलन के बाद हजारों अदिवासी परिवारों को अपने घर-बार छोड़ कर बाहर के प्रदेशों में बसना पड़ा। सरकारी आकड़ों और उस ज़माने में छपी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सलवा जुडूम की बदौलत दंतेवाड़ा के 645 गांव खाली हो गए थे। हज़ारों की तादाद में इस अभियान के दौरान आदिवासी विस्थापित हो गए थे।
सलवा जुडूम पर आरोप लगे थे कि उन्होंने गांव में रहने वाले आदिवासियों को ज़बरदस्ती सलवा जुडूम के कैंपों में स्थानांतरित कर दिया था। हत्या, आगज़नी, बलात्कार जैसी वारदातों को अंजाम देने के लिए सलवा जुडूम बदनाम हो गया था. सरकार के सरंक्षण में चल रहे सलवा जुडूम अभियान के तहत बहुत से गांव जला दिए गए थे। ऐसे वाकये हुए जहां ग्रामीणों को घर जलाने की धमकी देकर जुडूम के साथ जुड़ने को कहा जाता था। गांवों पर हमले होते थे जिसमे घर जला दिए जाते थे, बकरी, मुर्गा, अनाज, महुआ, टोरा आदि चीज़ें लूट ली जाती थीं और ग्रामीणों पर जुडूम से जुड़ने का दबाव बनाया जाता था। सलवा जुडूम के दौरान हजारों की संख्या में आदिवासियों का पलायन हुआ। उन्हें अपना घर जमीन सब छोड़कर आंध्र प्रदेश में जाकर बसना पड़ा।
सलवा जुडूम के कारण हुए पलायन से करीब 20 साल पहले एक और पलायन हुआ था बिहार के भागलपुर में। बिहार का भागलपुर जिला साल 1989 में एक भयानक दंगे का गवाह बना था। दंगों में हजारों लोगों ने अपना सबकुछ गंवा दिया था और अंतत: उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था। भागलपुर शहर से करीब 14-15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित लौगांय गांव 24 अक्टूबर 1989 से पहले एक साधारण-सा गांव हुआ करता था, जिसकी अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं थी और वह देश के छह लाख गांवों की तरह ही का एक गांव था, जहां मिश्रित आबादी थी। लेकिन, 1989 के भागलपुर दंगों में सामूहिक नरसंहार का यह गांव सबसे बड़ा प्रतीक बन गया, जहां एक समुदाय के 115 लोगों का कत्लेआम हुआ था और दंगाइयों ने उन्हें खेत में दफनाकर उस पर गोभी की खेती कर दी थी।
1989 के भागलपुर दंगे (1989 Bhagalpur Riots) में किसी एक जगह हुआ यह सबसे बड़ा कत्लेआम था। इस नरसंहार के 22 दिन बाद सूचना के आधार पर घटनास्थल से खुदाई कर 105 शवों को निकाला गया था। 1989 के भागलपुर दंगे ने लौगांय (Logain Village) की पहचान ही बदल दी। गांव से मुसलिमों का पलायन हो गया, वे दूसरी जगह जाकर बस गए। आज तक इस गांव के पलायन के शिकार हुए हजारों लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में दूभर जिंदगी जीने को मजबूर हैं। इनका दर्द भी कश्मीर से पलायन किए किसी व्यक्ति से कम नहीं है। साल 2013 में मुजफ्पफरनगर दंगों के बाद हाल-फिलहाल के वर्षों में हुआ सबसे पड़ा पलायन हुआ।
ऐसे में क्या यह उचित है कि हम अपनी एक आंख मूंद लें और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों में केवल आधा सच देखें। "कश्मीर फाइल्स" जैसी फिल्में सच तो आधा ही दिखाती हैं लेकिन फसाद पूरा मचता है! क्या इस देश में दर्द की और कहानियां नहीं कही जानी चाहिए। क्या देश में बेरोजगारी, गरीबी, पोषण और स्वास्थ्य संसाधनों के सुधार पर बात नही होनी चहिए। पर हम ऐसा करने से बच रहे हैं क्योंकि शायद यह वर्तमान परिदृश्य में संभव नहीं है। क्योंकि फिलहाल सत्ता अपनी रिमोट कंट्रोल से यह भी तय करने की कोशिश कर रही है कि हम क्या देखें, कहां रोएं और कहां हंसे। जो उसे पसंद नहीं आएगी वह कहानी पर्दे पर नहीं उतारी जाएगी शायद। हमें केवल वही दिखाया जाएगा जो उस रिमोट कंट्रोल से निर्देशित होगा। केवल उतना ही दिखाया जाएगा जो कुर्सी को बरकरार रखने में और लोगों के भावनात्मक समर्थन की उगाही के लिए जरूरी होगा। अमीर और गरीब के बीच की खाई बनी रहेगी और आम आदमी जूझता रहेगा। उसका सामाजिक, आर्थिक और अब सांस्कृतिक शोषण होता रहेगा। शायद यही सच है।