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उत्तर कोरिया में लगा हंसी पर प्रतिबंध, मगर हमारे देश में सत्ता ने जनता को हंसने लायक ही नहीं छोड़ा
इस देश ने लगा दी हंसने पर पाबंदी, नहीं कर पाएंगे अंतिम संस्कार, जानिए कहाँ का है मामला? (file photo)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Poetry of the day : आजकल हरेक देश का मुखिया उत्तर कोरिया के तानाशाह का प्रतिरूप बन गया है। इस तानाशाह ने केवल 11 दिनों के लिए अपने देश में हंसाने पर पाबंदी लगाई है, जाहिर सी बात है उत्तर कोरिया में लोग हंसते तो हैं। हमारे देश में तो सत्ता ने जनता को हंसने लायक छोड़ा ही नहीं है – गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, निरंकुशता और शासकीय अराजकता ने कदम-कदम पर विशुद्ध हास्य तो उत्पन्न किया है, पर तमाम परेशानियों से घिरी जनता हँसना ही भूल चुकी है।
अब केवल सत्ता अट्टाहास है, अपने फरेबों पर, अपनी नाकामियों पर, और अपने नापाक इरादों पर। जिस देश का शासक अपने हरेक दौरे पर रेड कारपेट और सैकड़ों कैमरामैन को रखता है, तब जाहिर है हरेक कदम पर हास्य उत्पन्न होता है, पर दुर्भाग्य यह है कि विपन्न जनता इस हास्यबोध को समझ नहीं पाती। सत्ता तो मंदिरों से लेकर नदी के भीतर तक रेड कॉरपेट से उतरती नहीं और मीडिया इसे समाचार बनाकर देशसेवा, समर्पण और त्याग का नाम देता है, जबकि सत्ता इसे विकास बताती है।
हास्य कवितायें तो बहुत हैं, पर हंसी से सम्बंधित कवितायें कम है। हंसी कभी कवियों का प्रिय विषय रहा भी नहीं। रघुवीर सहाय की एक चर्चित कविता है, हंसो हंसो जल्दी हंसो।
हंसो हंसो जल्दी हंसो
हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है
हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे
हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए
जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूँज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है
हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !
अज्ञेय जी की एक मार्मिक और जीवंत कविता है, मुझे आज हँसना चाहिए...
मुझे आज हँसना चाहिए
एक दिन मैं
राह के किनारे मरा पड़ा पाया जाऊँगा
तब मुड़-मुड़ कर साधिकार लोग पूछेंगे :
हमें पहले क्यों नहीं बताया गया
कि इस में जान है?
पर तब देर हो चुकी होगी।
तब मैं हँस न सकूँगा।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इतिहास का काम
इतने से सध जाएगा कि
एक था जो-था
अब नहीं है-पाया गया।
पर जो मैं जिया, जो मैं जिया,
जो रोया-हँसा
जो मैं ने पाया, जो किया,
उस का क्या होगा?
उस के लिए भी है एक नाम :
'आया-गया'
इस नाम को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए
मेरे जैसे करोड़ों हैं
जिन से इतिहास का काम
इसी तरह सधता है:
कि थे-नहीं हैं।
उन का सुख-दुःख, पाना-खोना
अर्थ नहीं रखता, केवल होना
-या अन्ततः न होना।
वे नहीं जानते इतिहास, या अर्थ;
वे हँसते हैं। और लेते हैं
भगवान् का नाम।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इसी लिए तो
जिस का इतिहास होता है
उन के देवता हँसते हुए नहीं होते :
कैसे हँस सकते?
और जिनके देवता हँसते हुए होते हैं
उन का इतिहास नहीं होता :
कैसे हो सकता
इसी बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।।।
रमा द्विवेदी की पूरे सरकारी तंत्र का माखौल उडाती एक कविता है, मैं हँसना चाहते हूँ...
मैं हँसना चाहता हूँ
न तो मैं दीवाना हूं,
न तो मैं अफ़साना हूं,
मैं हूं एक आम इंसान,
इसलिए मैं हँसना चाहता हूं।
जैसे चाट-पकौड़ी खा,
लोग करते हैं जायका परिवर्तन,
वैसे ही मन हँसने को करता है,
मगर हँसी का 'खोमचा',
नहीं लगता चौराहे पर,
बात अन्तर्मन की है,
कई दिनों से मन-,
कर रहा था हँसने को,
किन्तु-,
हँसी आती है मगर,
कितनी सतही? कितनी क्षणिक?,
अन्तस की हर कली के साथ,
मन तरस गया है हँसने को,
यूं तो हँसने के लिए,
नहीं कमी हालातों की,
किन्तु उन पर हँसना,
मुसीबत को दावत देना है।
हँसने के लिए एक क्षेत्र-,
सुरक्षित है-,
आम आदमी की बेचारगी पर,
हँस सकते हैं,
किन्तु देखकर उसे,
हँसने की जगह रोना आता है।
सोच समझ कर मैंने लिया निर्णय,
क्यों न हँसने की रिहर्सल की जाए?,
किन्तु प्रश्न था जगह का,
जहाँ कोई रिस्क न हो?,
आखिर में मैंने कहा,
अपने सहकर्मी से,
मैं आफिस के कमरे में,
हँसना चाहता हूं।
सुनते ही वह बरस पड़ा,
आफिस में हँसना चाहते हो?,
क्या इसके लिए परमीशन ली है?,
तुरन्त मैंने परमीशन की अर्जी,
आगे भिजवा दी।
कार्यालय में हंगामा हो गया,
उच्चाधिकारी खफ़ा हो गया,
वे दौड़े-दौड़े आए और फ़रमाए,
अचानक आप को क्या हो गया है?,
आप क्यों हँसना चाहते हैं?,
मुसीबत में क्यों पड़ना चाहते हैं?,
और हमें भी मुसीबत में क्यों डालना चाहते हैं?,
मैंने सहजता से कहा-,
मुसीबत की क्या बात है?,
मैं तो सिर्फ हँसना चाहता हूं,
वे बोले यही तो मुसीबत है,
आप अधिकारी होकर हँसना चाहते हैं,,
यदि हँसेंगे आप-,
अन्य कर्मचारियों पर क्या पड़ेगा प्रभाव?,
सारा डेकोरम और डिसिप्लिन,
हो जायेगा बर्बाद ।,
मैंने कहा कुछ भी हो,
मैं हँसूंगा जरूर।
वे बोले ठीक है, हँसने का फार्म,
दीजिए भर-,
और करिए प्रतीक्षा कुछ दिनों तक,
फार्म मंगवाया,गौर से पढ़ा,
नाम, पद, श्रेणी, उचित कारण के साथ,,
हँसने का दिन, समय, अवधि,
और लाभ बताना था।
अंतिम कालम पर मैं ठिठक गया,
पिछली बार हँसने की तिथि भरनी थी,
मुझे याद नहीं ,
मैं पिछली बार कब हँसा था?,
शायद तब!,
जब मां ने गोद में ले,
दूध पिलाया था,या,
पिता ने उंगली पकड़ -,
चलना सिखाया था,
या प्रथम बार पाठ्शाला में जा,
नन्हे-नन्हे साथियों के साथ बैठ,
शायद ! अन्तस की हर कली के साथ-,
तब ही हँसा था।,
पश्चात ईर्ष्या,द्वेष,तनाव,
अंधी दौड़ के सिवा,कुछ याद नहीं,
पिछली बार हँसने की सही तिथि,
मुझे याद नहीं,
अत: मुझे हँसने की अनुमति,
मिल न सकी।,
अब आप ही बताएं,
मैं क्या करूं??क्योंकि-,
मैं हँसना चाहता हूं।,
मैं हँसना चाहता हूं।
माधव कौशिक की एक गजल है, हंसी की बात क्या है...
हंसी की बात क्या है
हँसी की बात क्या है ग़र मुझे हँसना नहीं आता।
ये क्या कम है किसी भी हाल में रोना नहीं आता।
कोई तूफान को जाकर बता दे बात इतनी सी,
मेरे घर के चिराग़ों को अभी बुझना नहीं आता।
ये कैसा वक्त है जब हो गया हर चीज़ का पानी,
अगर दिल भी निचोड़े खून का कतरा नहीं आता।
चलो अब बन्द भी कर लोग दो दिलों के साथ दरवाज़े,
सुना है खिड़कियों के रास्ते दरिया नहीं आता।
उन्हीं आँखों की खातिर हो गईं नम मेरी आँखें भी,
कभी सोते हुए जिनको कोई सपना नहीं आता।
उसी पँछी ने आख़िर कर लिया सर आसमाँ इक दिन,
जिसे लोग कहते थे इसे उड़ना नहीं आता।
वर्तमान राजनीतिक चरित्र पर इस लेख के लेखक की एक कविता है, हुजूर अब वह हंसाने लगा है...
हुजूर, अब वह हंसाने लगा है/महेंद्र पाण्डेय
वह हँसता रहता था, हरदम हँसता था
संकुछ लुटा चूका था, कुछ नहीं था पास
पिता कर्ज के बोझ किसान थे
बोझ बाधा, आत्महत्या कर ली
मां, साहूकार और पुलिस की नजर भांप चुकी थी
मरकर ही इज्जत बच सकती थी
छोटा भाई मर गया, भूख ने मारा
अब वह है, हँसता रहता है
व्यवस्था पर, सत्ता पर
जहां सरकारी योजनायें तो हैं
पांच वर्षों में नेता पांच दिन
इसका नाम लेते हैं
जनता को ही जनता की योजनायें बताते हैं
आजकल, योजनाओं का नाम बदल गया है
अब यह सत्ता की सौगात है
बाकी दिनों में जनता को लूटा जाता है
शायद इसीलिए अब चम्बल के बीहड़ों में
डाकू नहीं हैं
जिस तरह उत्तम प्रदेश में
सारे अपराधी सत्ता पर काबिज हैं
नेता उदास थे, चमचे हैरान थे
प्रजा आश्चर्यचकित थी
वह हँसता क्यों है?
रहने को घर नहीं, खाना नहीं, परिवार नहीं
फिर भी हमेशा हँसता कैसे है
नेता ने चमचों की बैठक बुलाई
हुक्म दिया, जांच आयोग बिठाओ
पता करो हँसता क्यों है
कहीं विपक्ष की करतूत तो नहीं
पड़ोसी मुल्कों की साजिश तो नहीं
विपक्ष ने कहा, इनके राज में जनता रोती है
इसलिए हंसाने वाला भाड़े पर रखा है
प्रजा परेशान थी, गरीबी से बेरोजगारी से
पता नहीं उसे कौन सा खजाना मिल गया
जांच की रिपोर्ट आई
लिखा था हंसाने का कारण नहीं मालुम
पर, देश के लिए बड़ा खतरा है
देश की शांति खंडित कर रहा है
हंसी संक्रामक होती है
कहीं और लोग हंसाने लगे तो?
उसे कैद में डाल दिया गया
सत्ता खुश थी
पर, तभी कहीं दूर से
हंसी की आवाज गूजी
सत्ता की शीर्ष जांच एजेंसियां
अब हंसने वाले को खोज रही हैं
इस बार, मृत्यु दंड पहले से तय है