21 साल के उत्तराखंड की अग्निवीर बनने की उम्र तो गई, बेरोजगार राज्य हाकम-प्रेम-कुंजवाल जैसों के हाथों लुटने को भी मजबूर
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री की टिप्पणी
स्थापना के बाद 21 वसंत देख चुके उत्तराखंड राज्य में विकास का पतझड़ कभी खत्म नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश का तत्कालीन पर्वतीय हिस्सा जो अब अलग होकर उत्तराखंड बना, में विकास की अधूरी यात्रा पर पेश है राज्य के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री का एक नजरिया
भारत सरकार की क्रांतिकारी ठहराई गई अग्निवीर योजना को राष्ट्र निर्माण की दिशा में बड़ी पहल बताया गया है। इस बहुप्रचारित भर्ती योजना की सभी छह श्रेणियों के लिए अलग-अलग पात्रता मानदंड परिभाषित किए हैं। किंतु एकरूपता यह है कि सभी छह श्रेणियों में आवेदन करने की न्यूनतम आयु 17.5 वर्ष और ऊपरी आयु सीमा 21 वर्ष है। अब अगर हम इस आयु सीमा को उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो राज्य ने यह सीमा पार कर ली है और यह अब अग्निवीर के लिए पात्रता गंवा चुका है।
वैसे भी किसी भी राज्य के बनने या बिगड़ने के शुरुआती दो दशक ही महत्वपूर्ण होते हैं। वह स्वर्णिम अवधि हम खो चुके हैं, अब तो सिर्फ पैबंद लगाने का काम ही शेष रह गया है। जैसे बरसात के बाद सड़कों की दशा होती है और जेब ढीली होने के कारण सिर्फ पैच वर्क से ही काम चलाना पड़ता है। पिछले 22 साल से हम यही देखते आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश की कार्बन कॉपी करते करते इस कदर बुरी तस्वीर बन गई कि उसे संवारा नहीं जा सकता। उसके साथ ही शहीदों के सपने खो गए और जिंदा लोगों की आकांक्षाओं को भ्रष्टाचार ने लील लिया।
जब स्थापना के डेढ़ साल में ही हम दो मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं कर पाए तो चौथी विधानसभा के कार्यकाल में तीन मुख्यमंत्री भी लोगों को देखने पड़े हैं। जबकि चौथी विधानसभा का कार्यकाल ही अग्निवीर भर्ती का काल था। उस अवधि में ही ठीक ठाक नेतृत्व मिला होता तो अग्निवीर का सपना पूरा होता लेकिन उसकी तो भ्रूणहत्या हो गई। नतीजतन आज उत्तराखंड की तुलना एक ऐसे युवा से की जा सकती है जो पढ़ लिखकर बेरोजगार बैठा है और हाकम, प्रेम, कुंजवाल जैसे लोगों के हाथों लुटने के लिए अभिशप्त हो चुका है।
इस बीच 22वें साल में प्रदेश की दशा - दिशा तय करने के लिए बड़े धूम धड़ाके के साथ चिंतन शिविर शुरू हुआ। नेताओं और अफसरों ने बड़ी शिद्दत के साथ गला साफ किया लेकिन कॉपी पेस्ट के अभ्यस्त अफसर मौलिक विचार नहीं रख पाए, यह स्थिति अफसोसजनक है। उदाहरण के लिए बेहद संजीदा माने जाने वाले काबिल अफसर ने शिक्षा मॉडल का खाका खींचा तो वह दिल्ली का शिक्षा मॉडल था। यानी जिस छलनी में हजारों छेद दिख रहे, उसे काबिल अफसरों ने मॉडल मान लिया।
मुझे याद है वर्ष 2008 में प्रदेश के लिए नया पंचायती राज एक्ट बनाने की कसरत हो रही थी। उत्तर प्रदेश और दो तीन अन्य राज्यों का एक्ट पढ़ कर सचिवालय में बैठे एक आला अफसर ने महज कुछ दिनों में कॉपी पेस्ट के जरिए एक एक्ट परोस कर खूब वाहवाही बटोर ली थी, जैसे आसमान से तारे तोड़ कर ले आए हों, उस एक्ट में पहाड़ की भौगोलिक विषमताओं के अनुरूप सहजता और सरलता की कोई गुंजाइश नहीं रखी गई थी। कहते हैं न जैसे देव, वैसे पुजारी।
हमारे जनप्रतिनिधि भी उसी परिपाटी पर चले आ रहे हैं। नौकरशाही ने जो पढ़ा दिया, वही तोते की तरह रट लिया। मौलिकता से कोई सरोकार नहीं, बस 21वीं सदी के तीसरे दशक को अपने नाम करने की माला जपते रहो, काम हो जायेगा। कौन भूला है इस तीसरे दशक में ही अग्निवीर बनने की राह पर चला बागेश्वर का युवक आत्महत्या कर बैठा तो दूसरा नौजवान केदार भंडारी पुलिस हिरासत से भाग कर गंगा में कूद गया। इसी दशक में सत्तारूढ़ दल से जुड़े एक नेता के बेटे और उसके सहयोगियों के हाथों अंकिता भंडारी की हत्या हो जाती है और जिस वीआईपी को विशिष्ट सेवा देने से इंकार करने पर अंकिता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है, उस वीआईपी के नाम का खुलासा करने में सत्ता प्रतिष्ठान और उसकी एजेंसियों की जीभ तालू से चिपक जाती है।
इसी तीसरे दशक में प्रदेश में हुए तमाम भर्ती घोटालों का खुलासा हुआ। यानी अग्निवीर बनने की आयु सीमा पार कर चुके युवाओं के सपनों पर भी ग्रहण लग गया। कौन भूला है? प्रदेश में शुरुआत में ही पटवारी और पुलिस भर्ती घोटाले हुए थे। बुनियाद ही घपले घोटालों के साथ पड़ गई तो वो भगीरथ कहां से लाएं जो स्वच्छ, निर्मल और पावन गंगा का अवतरण कर सके। अभी तो जो गंगा है, उसी को निर्मल नहीं कर पाए हैं। वह दिनों दिन मैली हो रही है।
तीसरे दशक की सबसे बड़ी चुनौती तो माफियाराज खत्म करने की थी, लेकिन इस दिशा में कुछ ठोस हुआ नहीं। जमीनों पर कब्जे की खबरें आप भी जब तब सुनते ही होंगे। खनन का कारोबार कितना साफ सुथरा है, यह बताने की क्या जरूरत है? पहाड़ में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। दिन में बंदर और रात में सुअर का नया मुहावरा बन गया लेकिन व्यवस्था में बैठे लोगों पर रत्तीभर असर नहीं हुआ।
अब तो गुलदार की दहशत और बढ़ गई है। आए दिन गुलदार द्वारा लोगों और खासकर बच्चों को निवाला बनाने की खबरें विचलित करने वाली हैं। आलम यह है कि वर्ष 2026 में जब विधानसभा क्षेत्रों का नए सिरे से निर्धारण होगा तो पहाड़ की 10 सीटें कम हो जानी हैं। पर्वतीय क्षेत्र की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के संघर्ष से बना राज्य मैदानों में सिमटता जा रहा है। पहाड़ में आज भी महिलाएं सड़क पर बच्चा जनने को मजबूर हैं। अस्पताल रेफरल सेंटर बन कर रह गए हैं जबकि स्कूलों की दशा के लिए दिल्ली मॉडल की पैरवी हो रही है। दिल्ली मॉडल कितना सफल है, यह कुछेक सालों में सामने आ जाएगा। सवाल यह है कि मौलिकता से नाता रहेगा या नहीं?l
अब तस्वीर के दूसरे पहलू की चर्चा भी कर ली जाए। वस्तुत: उत्तर प्रदेश में रहते यहां के लोगों की राजनीतिक आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती थी। कुल मिलाकर डेढ़ दर्जन विधायक पूरे उत्तराखंड से होते थे। तब वही लोग सफल होते थे, जिनका जनता से संवाद होता था या जनता जिनका अनुसरण करती थी। अपना राज्य बनने का एक फायदा यह तो हुआ ही है कि जो लोग ग्राम प्रधान बनने के योग्य तक नहीं वे किसी न किसी लहर के सहारे विधानसभा तक पहुंच गए हैं।
राजनीतिक शुचिता, पारदर्शिता और उत्तराखंडियत जैसे तमाम लोक लुभावन जुमलों ने जनता को खूब आकर्षित किया है। धन बल, बाहु बल जाति बल, क्षेत्र बल और जितने भी बल हो सकते हैं, सबका खुला प्रदर्शन देखने को मिल ही जाता है जबकि पृथक राज्य के लिए अपना जीवन, अस्मिता और सब कुछ होम करने वाले हाशिए पर हैं। कुछ लोग पेंशनजीवी होकर मौन साध गए तो बाकी मन मसोस कर रह गए।
इसके अलावा एक उजला पक्ष भी है। कुछ चीजें बताती हैं कि राज्य बनने से फायदा हुआ है। सड़कें चौड़ी और सुगम हुई तो यात्रा भी रिकॉर्ड स्तर तक पहुंची। राज्य का राजस्व बढ़ा तो लोगों की जेब में भी पैसा आया। पर्यटन का विकास हुआ तो मैदानों में उद्योग भी लगे। रोजगार बेशक पहाड़ियों को कम मिला लेकिन बाई प्रोडक्ट के रूप में अपसंस्कृति खूब बढ़ी। ऐसा नहीं है कि लोगों के जीवन में सुधार नहीं हुआ, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि, मानव विकास सूचकांक में वृद्धि और कई मामलों में उत्तराखंड ने बड़ी छलांग लगाई है, किंतु रोजगार के अवसरों की समानता, न्यायपूर्ण व्यवस्था, बिना भेदभाव समानता, निरापद सड़कें, शिक्षकों की उपलब्धता, नेताओं में नैतिकता देखनी अभी बाकी है।
ऐसा कैसे हो सकता है कि बैकडोर से भर्ती होने वालों को घर भेज दिया गया, लेकिन बैकडोर भर्ती करने के दोषी का बाल भी बांका नहीं हुआ। पता चला है कि सत्ता को नियंत्रित, परिचालित और अभिमंत्रित करने वाले एक महाशय को उत्तराखंड से विदा कर दिया गया लेकिन सवाल अपनी जगह जस का तस कायम है कि नौकरियों की बंदरबांट पर विराम लग पाएगा या नहीं।
खैर, जनता की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं अपनी जगह पर हैं, उत्तराखंड में एक वर्ग का तेजी से विकास हुआ है, लेकिन उन्हें लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगने के बाद भी तृप्ति नहीं हुई है। इसलिए अब प्रदेश के करीब डेढ़ सौ पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री अपनी पेंशन बढ़वाने के लिए दबाव समूह बना चुके हैं। जाहिर है अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के जरिए सरकारी नौकरी का युवाओं का सपना पूरा हो या नहीं लेकिन उनकी पेंशन जरूर बढ़ जाएगी।
देखना यह है कि यह प्रकरण किस मुकाम तक पहुंचता है। बहरहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में प्रदेश की तस्वीर और तकदीर जरूर बदलेगी तथा नया सवेरा होगा। अग्निवीर न बन पाए तो क्या हुआ? अभी रास्ते और भी हैं। शासन प्रशासन चलाने के क्षेत्र में भी तो मौके होते हैं और यह मौके अभी बरकरार हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि लम्बी रात के बाद सुनहरी सुबह सपनों की उड़ान को पूरा करेगी।