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विमर्श

Bilkis Bano Gangrape : क्या बिलकिस बानो को इंसाफ मिल गया?

Janjwar Desk
21 Aug 2022 1:23 PM GMT
गैंगरेप केस में 11 दोषियों की रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची बिलकिस बानो, आदेश पर दोबारा विचार की मांग
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गैंगरेप केस में 11 दोषियों की रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची बिलकिस बानो, आदेश पर दोबारा विचार की मांग

Bilkis Bano Gangrape : बिलकिस बानो गैंगरेप केस में आरोपियों को बरी करना रेप के कानून का रेप करने जैसा है। यानि न्याय को सही तरीके से लागू नहीं करना भी उसका मजाक उड़ाने जैसा है।

Bilkis Bano Gangrape : गुजरात के 20 साल पुराने बिलकिस गैंगरेप मामले में कुछ दिनों पहले इस मामले के सभी आरोपियों को जेल से रिहा कर दिया है। उसके बाद से चर्चा इस बात हो रही है कि क्या इस फैसले तक पहुंचने के लिए दिमाग का इस्तेमाल किया गया। ये एक मानवीय मामला है। इसका फैसला किसी तकनीकी बिंदु के आधार पर नहीं किया जा सकता। इस फैसले से रेप सर्वाइवर के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है।

न तो दिमाग से काम लिया गया न मानवीय मूल्यों का रखा गया ख्याल

इस मामले में न तो दिमाग से काम लिया गया न ही मानवीय तरीके से इसे लिया गया। अफसोस की बात यह है कि 15 अगस्त को सभी 11 दोषियों को गोधरा जेल से रिहा कर दिया गया। इतना ही नहीं दोषियों को मिठाई खिलाकर उनका अभिनंदन भी किया गया। ये 11 लोग साल जिनका अभिनंदन किया गया वो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे थे।

शर्मशार करने वाली बात यह है कि दोषियों की रिहाई के कुछ समय बाद कमिटी में रहे भाजपा गोधरा से विधायक सीके राउलजी का एक बयान आया जिसमें उन्होंने इन दोषियों के बारे में कहा कि वैसे भी वो ब्राह्मण लोग थे। उनका संस्कार भी बड़ा अच्छा था। हो सकता है सजा करवाने के पीछे बद इरादा हो। बीबीसी से बातचीत में विधायक सीके राउलजी ने कहा कि समिति में किसी की अलग राय नहीं थी। सभी को लगा कि उन्हें मुक्त कर दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने कहा कि नियम के अनुसार सभी दोषियों का व्यवहार अच्छा था। उन्हें जो भी सज़ा दी गई। इन बेबस दोषियों ने उसे झेला है। जेल के अंदर उनका व्यवहार अच्छा था और इतना ही नहीं, उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है।

बता दें कि 2008 में मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने इस मामले में इन 11 लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था। हाल ही में इन दोषियों की रिहाई का फैसला गुजरात सरकार की बनाई गई एक समिति ने सर्वसम्मति से लिया था।

कैसे छूट गए गैंगरेप के सभी गुनहगार

दरअसल, गुजरात सरकार द्वारा गठित समिति ने इस फैसले तक पहुंचने के लिए 1992 की उस सजा माफी की नीति को आधार बनाया है। इस नीति के तहत किसी भी श्रेणी के दोषियों को रिहा करने पर कोई रोक नहीं थी। 1992 की नीति को आधार बनाने की वजह ये थी कि इन दोषियों में से एक राधेश्याम भगवानदास शाह की सजा माफी की अर्जी का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजा माफी पर विचार साल 1992 की नीति के आधार पर किया जाए क्योंकि अभियुक्तों को जिस समय सजा सुनाई गई थी उस समय 1992 की नीति लागू थी।

ये है गुजरात सरकार की नीति 2014

गुजरात सरकार ने साल 2014 में सजा माफी की एक नई नीति बनाई जिसमें कई श्रेणी के दोषियों की रिहाई पर रोक लगाने के प्रावधान हैं। इस नीति में कहा गया है कि बलात्कार और हत्या के लिए दोषी पाए गए लोगों को सजा माफी नहीं दी जाएगी। अगर किसी दोषी के मामले की जांच सीबीआई ने की है तो केंद्र सरकार की सहमति के बिना राज्य सरकार सजा माफी नहीं कर सकती। अगर सजा माफी के लिए इस समिति के प्रावधानों को आधार बनाया गया होता तो दोषियों की जेल से रिहाई नहीं होती।

ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या इस मामले में 2014 की नीति के बजाय 1992 की नीति के आधार पर फैसला लेना सही था।

समिति की निष्पक्षता पर सवाल

समिति का फैसला आने के बाद सजा माफी पर विचार करने वाली समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। दोषियों की रिहाई के बाद ये बात सामने आई है कि जिस समिति ने इन 11 दोषियों को सर्वसम्मति से रिहा करने का निर्णय लिया उसके दो सदस्य भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं। एक सदस्य भाजपा के पूर्व निगम पार्षद और एक भाजपा महिला विंग की सदस्य हैं।

अहम सवाल : बिलकिस बानो के साथ न्याय हुआ!

आइए, हम आपको बताते हैं कि क्या कहते हैं देश के वरिष्ठ और सेवानिवृत न्यायाधीश

फैसला न्यायिक मानदंडों के विपरीत : जस्टिस बशीर अहमद

जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस बशीर अहमद खान ने कहा कि इस मामले में दोषियों की सजामाफी का निर्णय रेप के क़ानून का रेप होने जैसा है। यह दुर्भावनापूर्ण, अनुचित, प्रेरित, मनमाना और न्याय के सभी मानदंडों के विपरीत है। निर्णय लेने के लिए गठित समिति में एक ही राजनीतिक दल के लोग हैं और ऐसे सरकारी कर्मचारी शामिल हैं जो उस पार्टी की सत्ताधारी सरकार के अधीनस्थ हैं। गुजरात सरकार ने कहा है कि इस मामले के दोषियों की सजा 1992 की नीति के आधार पर माफ की गई है जो गलत है। बशीर अहमद खान कहते है। कि एक कानूनी प्रावधान की आप कई व्याख्याएं कर सकते हैं। उसमें ये भी कहा जा सकता है कि 1992 की पॉलिसी को देखा गया जो उस समय लागू थी जब अपराध हुआ था। दूसरा तर्क ये है कि जब रिहाई का फैसला लिया जा रहा है उस समय जो पॉलिसी लागू है उसे देखा जाना चाहिए। इस लिहाज से गुजरात में लागू 2014 को फैसले का आधार होना चाहिए था। मेरी नजर में यह एक मानवीय मामला है। इस पर फैसला पीड़ितों की जान को खतरा पैदा हो गया है। अब आप उनकी रक्षा कैसे करते हैं, यह सवाल है। गुजरात सरकार को एक ऐसी समिति बनानी चाहिए थी जो निष्पक्ष हो। यह एक चौंकाने वाला फैसला ह। निर्भया मामले के बाद कानून को और सख्त बनाया गया और बलात्कार को लेकर जो वर्तमान सोच है उसके हिसाब से भी ये एक उचित निर्णय नहीं है और ये मानवीय तकाजों को पूरा नहीं करता है। अगर कोई समझदारी बची है तो केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए और इस फैसले को रद्द करना चाहिए।

यह न्याय का मजाक है : जस्टिस आरएस सोढ़ी

दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस आरएस सोढ़ी भी इस फैसले को मनमाना मानते हैं। वो कहते हैं 14 साल जेल में बिताने से आपको केवल आवेदन करने का अधिकार मिलता है। यह आपको छूट पाने का अधिकार नहीं देता है। सजा माफी मनमाने ढंग से नहीं हो सकती। इस हिसाब से तो क्या बलात्कार के दोषी सभी लोग रिहाई के हकदार है।। अगर न्याय को ठीक से लागू नहीं किया जा सकता है, तो यह न्याय का मजाक है। जब एक नीति है कि बलात्कारियों को माफी नहीं दी जाती है। फिर भी उन्होंने बलात्कार के दोषियों को रिहा करने का फैसला क्यों लिया?

रद्द हो चुकी पॉलिसी को आधार नहीं बना सकते : जस्टिस एसएन ढींगरा

दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस एसएन ढींगरा कहते हैं जब सजा माफी पर विचार किया जाता है तो वर्तमान में लागू नीति के आधार पर फैसला लिया जाता है। आप वही देखेंगे न जो पॉलिसी अपराध होने के वक्त लागू थी, उसे नहीं देखा जाता। अगर आप आज सजा माफी पर विचार कर रहे हैं तो आप 20 या 30 साल पहले की ऐसी पॉलिसी को आधार नहीं बना सकते जो रद्द हो चुकी है, जो पॉलिसी एक बार निरस्त हो जाती है वो फिर लागू नहीं होती, जो नवीनतम पॉलिसी है वही लागू होनी चाहिए। मेरी ये राय है। वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट से सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस गिरिधर मालवीय कहते हैं कि हमेशा से ऐसा रहा है कि बाद में लागू की गई नीति को वरीयता दी जाती है। पुरानी नीति को अनदेखा कर दिया जाता है। इस मामले में उसी पॉलिसी को देखा जाना चाहिए था जो आज लागू है। यानि 2014 की पॉलिसी लागू होगी न कि 1992 की।

समिति के फैसले को पक्षपातपूर्ण बताना बेतुका : वकील ऋषि मल्होत्रा

सजा माफी के लिए आवेदन करने वाले राधेश्याम भगवानदास शाह के वकील ऋषि मल्होत्रा से बीबीसी ने बातचीत में बताया कि 2008 में जब सजा सुनाई गई। तब 2014 की सजा माफी की नीति का जन्म भी नहीं हुआ था। 2003 के बाद से सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में लगातार ये मानता रहा है कि जो नीति एक ट्रायल कोर्ट द्वारा कन्विक्शन के समय लागू होती है उस नीति को ही सजा माफी पर विचार करते समय लागू करने की ज़रूरत होती है, न कि किसी ऐसी नीति की जो कन्विक्शन के बाद बनी हो। ये एक स्थापित कानून है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले में दोहराया है। ऋषि मल्होत्रा कहते हैं कि ये तर्क सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के बिल्कुल विपरीत है। इस बारे में हरियाणा राज्य बनाम जगदीश मामले में तीन. न्यायाधीशों की पीठ का फ़ैसला है जिसका सुप्रीम कोर्ट ने लगातार पालन किया है। उस पर कोई विवाद नहीं है।

तो आप सुप्रीम कोर्ट के जज की बुद्धिमता पर सवाल उठा रहे हैं : ऋषि मल्होत्रा

गुजरात सरकार ने सजा माफी के लिए जो समिति बनाई उस पर लग रहे पक्षपात के आरोपों पर ऋषि मल्होत्रा कहते हैं कि यह बेतुकी बात है। जेल सलाहकार समिति में जिलाधिकारी, एक सत्र न्यायाधीश, तीन समाजसेवी, दो विधायक और जेल अधीक्षक सहित कुल 10 सदस्य थे। ये 10 सदस्य इस मुद्दे पर फैसला कर रहे थे। सिर्फ ये कहना काफी नहीं है कि इस समिति में भाजपा के दो सदस्य थे। समिति में दो से तीन न्यायाधीश भी बैठे थे। क्या हम डीएम या सत्र न्यायाधीश की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठा रहे हैं? समिति के सभी सदस्यों ने 1992 की नीति की समीक्षा के बाद एक सचेत निर्णय लिया और ये भी देखा कि दोषी 15 साल से अधिक की सज़ा काट चुके थे। ऐसा नहीं है कि दो लोगों ने पिछले दरवाज़े से फैसला किया है। 10 सदस्यीय कमेटी ने फैसला किया है कि ये पूरा विवाद राजनीति से जुड़ा हुआ लगता है। 1992 की नीति के आधार पर फैसला करने का मत सुप्रीम कोर्ट का था। फिर तो विवाद पैदा करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज की बुद्धिमता पर सवाल उठा रहे हैं। क्या उन्हें काननू की जानकारी नहीं है या उन्होंने दोनों नीतियों को नहीं देखा है।

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