Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

भारत के प्राचीन धर्मों का पालन करने से बहुजन निकलेंगे धार्मिक शोषण से बाहर

Janjwar Desk
18 Jan 2021 12:57 PM GMT
भारत के प्राचीन धर्मों का पालन करने से बहुजन निकलेंगे धार्मिक शोषण से बाहर
x
अब उन धर्मों का समय आ रहा है जिनमें नीति, नैतिकता, सहकार, भाईचारे और प्रेम की व्याख्या करने के लिए ईश्वर या सृष्टा की नहीं बल्कि प्रकृति और मन के नियमों की आवश्यकता होगी, अब जीवन के रहस्य सुलझाने के लिए ईश्वरीय विधानों की नहीं, बल्कि प्रकृति और मनोविज्ञान के रहस्य समझने की सलाह दी जाएगी....

युवा समाजशास्त्री संजय श्रमण का विश्लेषण

जर्मन भाषा में एक विशेष शब्द है 'ज़ाइडगाइस्ट' (Zeitgeist), इसका कोई सटीक हिन्दी अनुवाद नहीं है, लेकिन कुछ अर्थों में युग की सामूहिक चेतना या युग.चेतना के निकट आता है। यह शब्द कहता है कि जब समय परिपक्व होता है तब दुनिया और समाज के बड़े हिस्सों से एक जैसी मांग उठने लगती है और इस मांग को उठाने वाले समाज में एक खास किस्म का नेतृत्व भी उभरने लगता है।

एक उदाहरण से समझिए यूरोप में चर्च के दमन से छटपटाते हुए साइंस ने जब बगावत की तब यूरोप के कई देशों के विज्ञानियों ने एक साथ बगावत के सुर छेड़ दिए थे। इस साझी लहर ने विज्ञान और तकनीक को जिस ढंग से ऊंचाई पर पहुंचाया वह इतिहास में दर्ज है।

प्राचीन काल में जब कंदमूल फल बीनने या छोटे जानवरों का शिकार करने वाले समाज जब खेती करना सीखे तब भी एक खास किस्म की युग चेतना जन्मी थी। जंगली कबीलाई जीवन से खेती प्रधान ग्रामीण जीवन के आते ही परिवार, समाज और धर्म की नई व्याख्याओं का जन्म होता है। बाद में इन ग्रामीण जीवन मे जब राज्यों का उदय होता है, तब अचानक से युग चेतना फिर बदलती है और देवी-देवताओं सहित ईश्वर का जन्म होता है।

इसके बाद भौतिकवादी समाजों मे ईश्वर प्रधान धर्मों की सत्ता आ जाती है। इस तरह अलग-अलग महाद्वीपों मे एकदूसरे से कोई विशेष जुड़ाव या संवाद न होने के बावजूद वे कमोबेश एक जैसी जीवन व्यवस्थाओं का निर्माण करने लगते हैं।

यूरोप में विज्ञान के जन्म का उदाहरण लीजिए। फ्रांसिस बेकन ने जब मिथकों के खिलाफ झंडा बुलंद किया तो घोषणा की थी कि साइंस इंसानियत को भविष्य में ले जाएगा। इस बात को बेकन के पहले कोपरनिकस ने दर्ज किया था, बेकन के समकालीन गेलिलियो और खासतौर से न्यूटन ने गंभीरता से लिया। इसके बाद पश्चिम ने विज्ञान पैदा किया।

बेकन एक दार्शनिक थे, वे समय की मांग को देख पा रहे थे। उस समय यूरोप र्में इसाइयत ने एक संगठित चर्च के माध्यम से यूरोप की धार्मिक और नैतिक चेतना को एक खास ऊंचाई तक ऊपर उठाया दिया था। इस ऊंचाई पर आने के बाद विज्ञान और तकनीक की खोज का संगठित प्रयास आसान हो चला था।

दुर्भाग्य से यह सुविधा दक्षिण एशिया या अरब में निर्मित नहीं हो सकी। विज्ञान और तकनीक की सफलता ने जब समाज में काफी सुविधाएं उत्पन्न कर दीं और अलग-अलग समाजों और राष्ट्रीयताओं का आपस में मेलजोल बढ़ा तब समाज को समझने की आवश्यकता पैदा हुई। इस मेलजोल ने एक तरफ उपनिवेश और बड़े बड़े युद्ध पैदा किये तो दूसरी तरफ समाजशास्त्र और मानवशास्त्र सहित अन्य विज्ञानों का भी जन्म हुआ।

अचानक से सामने आ रही इस विराट विविधता और इसकी मांगों का शोषण करने के लिए एक तरफ उपनिवेशी आकाओं के लूट, युद्ध और षड्यंत्र चल रहे थे दूसरी तरफ इस नई और 'ग्लोबल गाँव' की तासीर लिए उभर रही मनुष्यता के सभी आयामों को समझने के लिए नए समाजशास्त्री और दार्शनिक नए सिद्धांत बना रहे थे।

इसी समय अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे प्रतिभाशाली और प्रभावशाली दार्शनिक अपने विश्लेषण लेकर आते हैं। विज्ञान की नई खोजों और तकनीक द्वारा पैदा की गयी सुविधाओं और खतरों के आईने मे ईश्वर और स्वर्ग-नरक का मूल्यांकन करते हुए मनुष्य और मनुष्यता को परिभाषित करने का एक नया दौर शुरू होता है। यह मूल्यांकन जैसे ही आगे बढ़ता है, वैसे ही ईश्वर की मौत हो जाती है।

अब ईश्वर की लाश को दफना देने के बाद समाजशास्त्री, मानवशास्त्री और अन्य दार्शनिक जब इंसान और इंसानियत को समझने निकलते हैं तब स्वर्ग-नरक देवी-देवताओं और पारलौकिक शक्तियों को रास्ते से हटाकर वे सीधे सीधे इंसान के मन में झाँकने लगते हैं।

इस तरह विज्ञान के आने के बाद और ईश्वर की मौत के बाद समाज और उसकी भौतिकवादी चेतना वहीं पहुँच जाती है जहां से उसने ईश्वर के नाम से पहले शुरुआत की थी।

जब आदिम समय में ईश्वर का जन्म नहीं हुआ था तब भी सभी समाजों ने भौतिकवादी दर्शनों को जन्म देकर प्रकृति और मन को समझने की कोशिश की थी। बीच में देवी देवताओं और ईश्वर का जन्म होता है और विज्ञान के आने के बाद ईश्वर की छुट्टी हो जाती है। ईश्वर की मौत के बाद अब पूरी दुनिया में मनुष्य और समाज के मनोविज्ञान को समझने की जो भयानक कोशिश चल रही है, वह अचानक एक नई युग चेतना को फिर से निर्मित कर रही है।

अब ईश्वरविहीन धर्म की तरफ फिर से नयी प्यास जग रही है। जंगलों में रहने वाले इंसानों को जब प्रकृति डराती थी या पुरस्कार देती थी तब प्रकृति की शक्तियां ही सर्वोपरि मानी गयीं। इसके बाद जब राज्यों और राजाओं का आगमन हुआ तब राजाओं को और राजपुत्रों को वैधता देने के लिए ईश्वर को पैदा किया गया। इन राज्यों ने यूरोप में वह अवसर पैदा किये जिसमे विज्ञान और औद्योगीकरण आया। अब तकनीक और उद्योगों ने वह सुविधा बना दी है, जबकि ईश्वर की कोई जरूरत नहीं रह गई है।

इसीलिए अब ईश्वर की सड़ती हुई लाश से चिपके धर्मों मे एक भयानक बैचेनी फैल गई है। अब उन धर्मों का समय आ रहा है जिनमें नीति, नैतिकता, सहकार, भाईचारे और प्रेम की व्याख्या करने के लिए ईश्वर या सृष्टा की नहीं बल्कि प्रकृति और मन के नियमों की आवश्यकता होगी। अब जीवन के रहस्य सुलझाने के लिए ईश्वरीय विधानों की नहीं, बल्कि प्रकृति और मनोविज्ञान के रहस्य समझने की सलाह दी जाएगी। यह सलाहें अब बड़ी सघनता से नजर भी आने लगी हैं। ईश्वर का ढोल बजाने वाले बाबा लोग विज्ञान और मनोविज्ञान से बहुत कुछ चुराने लगे हैं।

आदिम समय में प्रकृति की शक्तियों को समझने के लिए जिन भौतिकवादी दर्शनों का जन्म हुआ था अब उनकी गरिमा और महिमा फिर से लौट रही है। यूरोप में यह काफी पहले हो चुका है, अब भारत में यह मांग नजर आने लगी है। अब भारत में ईश्वर और ईश्वरीय विधानों से सताये गए करोड़ों करोड़ लोगों के बीच ऐसे धर्म की कल्पना आकार ले रही है, जिसमें ईश्वर की बजाय प्रकृति और मन के नियमों को आधार बनाया जाता हो।

अब भारत के बहुजनों के लिए सही समय आ रहा है। अब भारत के मूल भौतिकवादी धर्मों, बौद्ध, जैन, आजीवक, कोया-पुनेम, तंत्र आदि का समय आ रहा है। अब भारत के बहुजनों को संगठित होकर अपने प्राचीन धर्मों को फिर से अपनाकर नए युग के अनुकूल बनाना होगा। अगर इस तरह भारत के प्राचीन धर्मों का पालन करने लगते हैं तो बहुजन न सिर्फ धार्मिक शोषण से बाहर निकाल आएंगे, बल्कि एक नए किस्म के भारतीय पुनर्जागरण का भी जन्म होगा।

Next Story

विविध