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विमर्श

मानवाधिकार के मुद्दे पर अपने देश से ध्यान बंटाने के लिए शिकार की तलाश करते हैं लोकतांत्रिक देश- रिपोर्ट

Janjwar Desk
2 July 2021 10:57 AM GMT
मानवाधिकार के मुद्दे पर अपने देश से ध्यान बंटाने के लिए शिकार की तलाश करते हैं लोकतांत्रिक देश- रिपोर्ट
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भारत में तेजी से हो रहा प्रजातंत्र का खात्मा

हमारे देश में जिस तरह सरकार की नीतियों के विरोधी सरकार द्वारा राजद्रोही, पाकिस्तानी, अर्बन नक्सल और टूकडे-टूकडे गैंग के सदस्य इत्यादि बताये जाते हैं ठीक उसी तरह से पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प भी कभी आन्दोलनकारियों को ठग बताते रहे, कभी कहते हैं कि जब लूट होती है तभी लोग शूट किये जाते हैं...

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। दुनियाभर में कथित लोकतंत्र का राग अलापती सरकारें मानवाधिकार हनन में संलिप्त हैं। हमारे देश में मानवाधिकार का मतलब उच्च वर्ग के पुरुषों और बीजेपी समर्थकों का मानवाधिकार है, जबकि अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बीजेपी विरोधियों पर अन्याय कभी मुद्दा नहीं बनता। इसी तरह, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देश भले ही अपने आप को मानवाधिकार का पुरोधा बताती हों पर इन देशों में अश्वेतों, और जनजातीय नागरिकों को मानवाधिकार हनन कभी मुद्दा नहीं बनता। सभी लोकतांत्रिक देश मानवाधिकार के मुद्दे पर अपने देश से ध्यान बंटाने के लिए एक शिकार की तलाश करते हैं – आज के दौर में चीन के उइगर मुस्लिमों के अधिकारों की इस तरह चर्चा की जाती है, मानो चीन ही एकमात्र देश है जो मानवाधिकार हनन में संलिप्त है। इससे पहले म्यांमार के रोहिंग्या का जिक्र भी इसी तरह किया जाता था।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने हाल में ही एक नई रिपोर्ट अश्वेतों के हालात पर प्रकाशित की गयी है। इसमें बताया गया है किस तरह अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के देशों में पुलिस अधिकारियों द्वारा अश्वेतों की ह्त्या एक सामान्य घटना है, और ऐसे अधिकतर मामलों में शामिल पुलिस अधिकारियों को कोई सजा नहीं दी जाती। रिपोर्ट में विभिन्न देशों की सरकारों से अनूरोध किया गया है कि वे ऐसी परंपरा को बंद करें। इस रिपोर्ट में अश्वेतों की विभिन्न देशों में श्वेत पुलिस अधिकारियों द्वारा की गयी 190 हत्याओं का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार ऐसे मामलों में श्वेत पुलिस अधिकारियों को शायद ही कभी सजा दी जाती है। ऐसे मामलों में पूरी जांच ही नहीं की जाती, इसलिए पुलिस की भूमिका साबित ही नहीं हो पाती। यदि, पुलिस की भूमिका साबित हो भी जाती है तबभी सरकारें ऐसे मामलों को दबा देती हैं, जिससे उनके देश में रंगभेद का मसला दुनिया न जान पाए।

जिस तरह हमारे देश में अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों पर जुल्म की प्रक्रिया सनातन है, ठीक उसी तरह पश्चिमी देशों में अश्वेतों के विरुद्ध जुर्म भी सदियों से चला आ रहा है। यह सब इतना व्यापक है कि अश्वेतों पर जुर्म को अपराध समझा ही नहीं जाता। कुछ-कुछ वर्षों के अन्तराल पर अश्वेतों द्वारा अपने अधिकारों के लिए बड़े आन्दोलन करने पड़ते हैं। पिछले वर्ष अमेरिका से शुरू होकर लगभग पूरी दुनिया तक अपनी आवाज बुलंद करने वाला आन्दोलन, ब्लैक लाइव्ज्स मैटर, नामक आन्दोलन किया गया और इसका व्यापक प्रभाव भी पड़ा। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय की यह रिपोर्ट भी इसी आन्दोलन के कारण बनाई गयी है।

ब्लैक लाइव्ज्स मैटर के व्यापक प्रभाव को देखते हुए ही इसे वर्ष 2021 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया है। अमेरिका के लगभग हरेक शहर और कस्बे में इस आन्दोलन की गूँज सुनाई दी थी। अमेरिका के मिनेसोता में पिछले वर्ष के आरम्भ में जॉर्ज फ्लॉयड नामक 46 वर्षीय अश्वेत की श्वेत पुलिस वाले ने बीच सड़क पर भीडभाड के बीच हत्या कर दी, और इसके बाद से अमेरिका में लगभग हरेक शहर में अहिंसक प्रदर्शन किये गए। ऐसा नहीं था कि इन प्रदर्शनों में केवल अश्वेत ही हिस्सा ले रहे थे, बल्कि बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हैं।

मीडिया इसे भले ही 400 वर्षों से अश्वेतों पर किये जा रहे अत्याचार का असर मान रही हो, पर किसी भी शहर के प्रदर्शन के विडियो को देखकर यह बताना कठिन नहीं था कि प्रदर्शन एक देश को गर्त में ले जाने वाली सरकार और पुलिस ज्यादतियों के खिलाफ था। किसी भी प्रदर्शन को एक जातिवादी या नस्लवादी रंग देकर कमजोर करना आसान होता है और अमेरिका में भी यही किया जा रहा है। हमारे देश में तो यही परंपरा है, आप शाहीन बाग़ के आन्दोलन को याद कीजिये, जिसमें सीएए और एनआरसी के विरुद्ध आन्दोलन को सरकारी स्तर पर किस तरह हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा बना दिया गया था।

हमारे देश में जिस तरह सरकार की नीतियों के विरोधी सरकार द्वारा राजद्रोही, पाकिस्तानी, अर्बन नक्सल और टूकडे-टूकडे गैंग के सदस्य इत्यादि बताये जाते हैं ठीक उसी तरह से पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प भी कभी आन्दोलनकारियों को ठग बताते रहे, कभी कहते हैं की जब लूट होती है तभी लोग शूट किये जाते हैं। कभी ट्विटर पर कहते है कि दुनिया के सबसे खूंखार कुत्ते आन्दोलन कारियों पर छोड़ देने चाहिए तो कभी बताते हैं की प्रदर्शन से निपटने के लिए सुरक्षा बलों को दुनिया के सबसे घातक हथियार दिए जाने चाहिए। बस अंतर यह है की राष्ट्रपति ट्रम्प ऐसे वक्तव्य केवल ट्विटर पर देते हैं जबकि हमारे देश में तो ऐसे भाषण देश के मुखिया मंच पर खड़े होकर रामलीला मैदान से देते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि उनके समर्थक अहिंसक आन्दोलनों के बीच हिंसा करें और पुलिस की मदद से दंगे भी।

भारत में ऐसी किसी भी बर्बरता में शामिल पुलिस या सुरक्षाकर्मी को तुरंत पदोन्नति देकर सरकार समानित करती है तो अमेरिका में उनके खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं कर उन्हें आगे भी ऐसा ही करते रहने का सन्देश देती है। जॉर्ज फ्लॉयड की ह्त्या करने वाले पुलिस कर्मी पर भी ऐसे लचर से आरोप लगाए गए हैं की अनेक मानवाधिकार संगठन अभी से ही बता चुके हैं की उसे कुछ नहीं होगा। उस पुलिसकर्मी के साथ गश्त करने वाले तीन अन्य पुलिस कर्मियों पर तो कोई आरोप ही नहीं तय किये गए हैं।

पर, आन्दोलन का स्वरुप देखकर अमेरिका की सरकार और न्यायालय को भी इस बार झुकना पड़ा और जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे को 22 वर्ष से अधिक की कैद की सजा दी गयी है। किसी श्वेत पुलिस अधिकारी को अश्वेत को मारने के लिए अमेरिका में वर्षों बाद कोई गंभीर सजा दी गयी है, हालां की उसके बाद भी पुलिस बल ऐसी अनेक हत्याएं कर चुकी है। हाल में ही यूनाइटेड किंगडम में भी 24 वर्षों बाद किसी श्वेत पुलिस अधिकारी को अश्वेत की ह्त्या के लिए 8 वर्ष से अधिक की सजा दी गयी है। पुर्तगाल में भी ऐसे मामले में पहली बार किसी श्वेत नागरिक को सजा दी गयी है।

पर, सबसे बड़ा सवाल यही है कि अमेरिका की जनता तो जाग चुकी है, सरकार बदल चुकी है - पर क्या हमारे देश की जनता भी जागेगी और अपने साथ हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा करेगी और सरकार को बदल डालेगी?

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