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विमर्श

Exit poll 2022 : एक्जिट पोल करने वाली एजेंसियों की संरचना में भी जातिवाद, जातिवादी पैटर्न पर सर्वेक्षण का करती हैं दावा

Janjwar Desk
9 March 2022 10:27 AM IST
UP Election 2022 Exit Poll : कितने भरोसेमंद होते हैं एक्जिट पोल?
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UP Election 2022 Exit Poll : कितने भरोसेमंद होते हैं एक्जिट पोल?

Exit poll 2022 : एक्जिट पोल का महत्व यह भी है कि आम आदमी कुछ सोचे-विचारे, खाली नहीं बैठे, यही बाजार चाहता है, हुक्मरानों को भी इससे कोई ऐतराज नहीं...

नवल किशोर कुमार की टिप्पणी

Exit poll 2022 : आदमी को जीने के लिए सबसे अधिक किस चीज की जरूरत होती है? यह सवाल कोई ऐसा सवाल नहीं है, जिसके लिए माथा खपाया जाय। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह महत्वपूर्ण नहीं है और इसका कोई जवाब संभव ही नहीं है। यदि गालिब की मानें तो वह जीने के पीछे ख्वाहिश को महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने तो ख्वाहिशों को लेकर कालजयी रचना भी रची– हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले। यदि किसी असाहित्यिक व्यक्ति यही सवाल पूछा जाय तो उसका जवाब निश्चित तौर पर यही होगा कि हवा, पानी और भोजन आदि जीने के लिए जरूरी हैं। मेरा मानना है कि जीने के लिए कारण का होना आवश्यक है।

मैं जिन कारणों की बात कर रहा हूं, वे अमूर्त नहीं हैं। हम कुछ भी करते हैं तो एक कारण जरूर होता है। बिना कारण के कोई भी आदमी कुछ नहीं करता। मैं तो सियासत में भी यही पाता हूं। बिना कारण कुछ भी नहीं होता। यहां तक कि एक्जिट पोल भी नहीं। लेकिन एक्जिट पोल के पीछे का कारण क्या हो सकता है?

जहां तक मैं जानता हूं एक्जिट पोल कोई आज की बात नहीं है। वर्ष 1957 से ही यह बदस्तूर जारी है। नतीजे के पहले कयासबाजियों का दौर चलता है। आम लोग इन कयासबाजियों में शामिल होना चाहते हैं। उन्हें इससे सुख-दुख दोनों मिलते हैं। दरअसल हम इस तरह की अनुभूति करते रहना चाहते हैं। दुख की अनुभूति भी लोगों के लिए एक कारण बन जाती है। कइयों के लिए तो एक्जिट पोल रोमांच का अवसर प्रदान करता है। वे लोकतंत्र को जुआ का खेल समझकर आनंद लेते हैं।

इन सबसे अलग एएक्जिट पोल का महत्व यह भी है कि आम आदमी कुछ सोचे-विचारे, खाली नहीं बैठे, यही बाजार चाहता है, हुक्मरानों को भी इससे कोई ऐतराज नहीं...?

खास बात यह कि भारत में बाजार का मतलब केवल बाजार नहीं होता। यहां जातिवाद भी शामिल है। जो एजेंसियां एक्जिट पोल करती हैं, उनकी संरचना में भी जातिवाद होता ही है। वे एक खास तरह के जातिवादी पैटर्न पर सर्वेक्षण करने का दावा करती हैं। मसलन, अभी जो पांच राज्यों के चुनाव के संबंध में एक्जिट पोल सामने आए हैं, उनके बारे में एक एजेंसी ने यह दावा किया कि उसने यूपी के हर विधानसभा क्षेत्र में दो हजार लोगों से बातचीत की।

इस एजेंसी का दावा सही भी हो सकता है और गलत भी। हम इसकी सत्यता की जांच नहीं कर सकते। वजह यह कि हमें तो यह पता भी नहीं चलता है कि कोई सर्वेक्षण भी कर रहा है। यहां हम का मतलब कॉमन मैन से है। हम पत्रकार भी कॉमन मैन ही होते हैं।

खैर, मुद्दा यह है कि एक्जिट पोल में भाग कौन लेते होंगे या फिर यह कि किन्हें शामिल किया जाता होगा? मसलन, जिस एजेंसी ने हर विधानसभा क्षेत्र में दो हजार लोगों का सैंपल सर्वे करने का दावा किया है, उसने किन लोगों को शामिल किया होगा? मुझे नहीं लगता है कि उनमें से सबने वोट भी किया होगा? यदि किया होता तो यूपी में मतदान का प्रतिशत 50 से 60 प्रतिशत के बीच नहीं रहता।

लेकिन मेरे कहने का मतलब यह भी नहीं है कि एक्जिट पोल कराने वाली एजेंसियां कुछ नहीं करती हैं। मैं तो वर्ष 2012 को याद कर रहा हूं। इस साल हुए यूपी चुनाव के समय एक्जिट पोल एजेंसियों (जिन्हें आप कंपनियां भी कह सकते हैं) ने त्रिशंकु विधानसभा की बात कही थी। जब परिणाम आए तो समाजवादी पार्टी को 224 सीटें मिलीं और वहां अखिलेश यादव सीएम बने। एजेंसियां अनुमान लगाने में विफल रहीं। वहीं वर्ष 2017 में इन एजेंसियों ने सही आकलन किया और एक्जिट पोल में भाजपा को जीत मिलने की बात कही।

अब एक बार फिर एक्जिट पोल परिणाम हमारे सामने हैं। इन एजेंसियों के मुताबिक, भाजपा फिर से यूपी में सरकार बनाने जा रही है। हालांकि ऐसे ही सरकार बनाने और नहीं बनाने संबंधी बातें बिहार के संदर्भ में भी कही जाती रही हैं। वर्ष 2015 में एजेंसियों ने अपने सर्वेक्ष्ण में भाजपा को बिहार का तख्त दे दिया था। तब राजद और जदयू साथ में थे।

परिणाम जब सामने आया तो इस गठबंधन के पक्ष में 178 सीटें थीं और भाजपा के पास केवल 57। हाल ही में पश्चिम बंगाल चुनाव के समय लगभग सभी एजेंसियों ने भाजपा के पक्ष में माहौल होने की बात कही। हालांकि सबने यही कहा कि वहां भाजपा को बहुमत मिल जाएगा। लेकिन परिणाम ठीक इसके उलट था। ममता बनर्जी को बहुमत मिला।

बहरहाल, एक्जिट पोल जैसी चीजें होती रहनी चाहिए। लोगों के पास जीने के कारणों में इजाफा हो। मेरे जैसा आदमी जो जीवन से इतना प्यार करता है, वह तो यही कह सकता है। बाकी जो है वह तो कल यानी 10 मार्च को सामने आ ही जाएगा। लेकिन मैं सुप्रीम कोर्ट के बारे में सोच रहा हूं। दरअसल, कल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण की मजलिस में एक मामला आया। मामला यह था कि वीपीपैट का मिलान परिणामों के घोषणा से पहले कराया जाय। मुख्य न्यायाधीश ने इस बारे में जो कहा, वह मेरे हिसाब से ठीक नहीं है। उनका कहना था कि मतगणना के एक दिन पूर्व वह कोई निर्देश कैसे जारी कर सकते हैं।

खैर, सुप्रीम कोर्ट भी जब कमजोर और बेबस लग रहा है तो फिर क्या कहा जा सकता है। कल एक कविता तब सूझी जब मन रोमांटिक हो रहा था।

अब हो पास तो अरज भी सुन लो

मेरे अनकहे शब्दों को चूम लो

छू लो मेरे चांद-सितारों को तुम

सूरज को दूसरे पहर जगा दो तुम

तब देखेगी दुनिया हमारे नजारे।

तुम हर आगाज का अंजाम हो

मेरे सपने और मेरे अरमान हो

मनमोहिनी हो या हो सम्मोहनी

सुन लो सरों के दरख्त सी रोशनी

तुम संग नेह लगा हाय हम तो हारे।

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