Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

पहली बार किसानों ने बताया, कवियों ने कागज पर उतारा - 'भरोसा केवल कागजों पर होता है, PM पर नहीं'

Janjwar Desk
12 Dec 2021 11:24 AM GMT
पहली बार किसानों ने बताया, कवियों ने कागज पर उतारा - भरोसा केवल कागजों पर होता है, PM पर नहीं
x
तमाम हथकंडों के बाद भी किसान अडिग रहे। पहली बार किसानों ने स्पष्ट तौर पर बताया कि भरोसा केवल कागजों पर होता है, प्रधानमंत्री पर नहीं।

सरकारी पोस्टर से बाहर कविताओं में किसान पर महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

सरकारी पोस्टरों के किसान कुदाल उठाये, पगड़ी लगाए अपने परिवार के साथ खड़े मुस्कराते दिखते हैं और आज भी बैलों से हल जोतते हैं। इन पोस्टरों से बाहर जब किसान सडकों पर आये, ट्रैक्टरों से दिल्ली की सीमाओं पर उतरे और हरेक मौसम को ठेंगा दिखाते हुए तम्बुओं का शहर खड़ा कर दिया, तब कम से कम सरकार और मीडिया को भरोसा नहीं हुआ। सरकार और मेनस्ट्रीम मीडिया के अनैतिक गठबंधन ने बहुत सारी विरोधी आवाजों को कुचला था - पर तमाम प्रयासों के बाद भी किसानों को गुमराह नहीं कर पाए। तमाम हथकंडों के बाद भी किसान अडिग रहे और पहली बार किसानों ने ही स्पष्ट तौर पर बताया कि भरोसा केवल कागजों पर होता है, प्रधानमंत्री पर नहीं।

किसान सदियों से कविताओं के पात्र रहे हैं। राजेश जोशी की एक कविता है, इस आत्महत्या को अब कहाँ जोंडू| इसमें एक तथाकथित कृषि प्रधान देश के किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाया गया है|

इस आत्महत्या को अब कहाँ जोंडू/ राजेश जोशी

देश के बारे में लिखे गए हजारों निबन्धों में लिखा गया

पहला अमर वाक्य एक बार फिर लिखता हूँ

भारत एक कृषि प्रधान देश है

दुबारा उसे पढ़ने को जैसे ही आँखे झुकाता हूँ

तो लिखा हुआ पाता हूँ

कि पिछले कुछ बरसों में डेढ़ लाख से अधिक किसानों ने

आत्महत्या की है इस देश में

भयभीत होकर कागज पर से अपनी आँखे उठाता हूँ

तो मुस्कुराती हुई दिखती है हमारी सरकार

कोई शर्म नहीं किसी की आँख में

दुःख या पश्चाताप की एक झाईं तक नहीं चेहरे पर

परमाणु करार को आकुल–व्याकुल सरकार

स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को अपने कीचड़ सने जूतों से

गंदा करती एक बड़े साम्राज्य के राष्ट्राध्यक्ष को

कोर्निश बजाती नजर आती है

पत्रकारों और मिडियाकर्मी के प्रश्नों को टालती हुई

कि जल्दी ही विचार करेगी किसानों के बारे में....

गुस्से में बेसुध होकर थूकता हूँ सरकार के चेहरे पर

पर वह सरकार नहीं सरकार की रंगीन छवि है

और वह भी मेरे सिर से बहुत ऊपर

थूक के छींटे मेरे ही चेहरे पर गिरते हैं

खिसियाकर आस्तीन से अपने चेहरे को पोंछता हूँ

तभी कोई कान में फुसफुसाता है

एक किसान ने कुछ देर पहले आत्महत्या कर ली

तुम्हारे अपने गाँव में ...

आत्महत्या के आकड़ों में अब इसे कहाँ जोंडू ?

राजेश जोशी की दूसरी कविता, विकल, में खेती पर कॉर्पोरेट के वर्चस्व की चर्चा है और फिर किसान किस तरह एक दिहाड़ी मजदूर में तब्दील हो जाता है|

विकल/ राजेश जोशी

संकट बढ़ रहा है

छोटे –छोटे खेत अब नहीं दिखेंगे इस धरती पर

कॉर्पोरेट आ रहे हैं

कॉर्पोरेट आ रहे हैं

सौंप दो उन्हें अपनी छोटी–छोटी जमीनें

मर्जी से नहीं जबर्दस्ती छीन लेंगे वे

कॉर्पोरेट आ रहे हैं

जमीनें सौंप देने के सिवा कोई और विकल्प नहीं तुम्हारे पास

नहीं-नहीं, यह तो गलत वाक्य बोल गया मैं

विकल्प ही विकल्प है तुम्हारे पास

मसलन भाग सकते हो शहरों की ओर

जहाँ न तुम किसान रहोगे न मजदूर

घरेलू नौकर बन सकते हो वहां

जैसे महान राजधानी में झारखंड के इलाकों से आई

लड़कियां कर रही हैं झाड़ू-बासन के काम

अपराध जगत के दरवाजों पर नोवैकेंसी का

कोई बोर्ड कभी नहीं रहा

अब भी लामबंद न होना चाहो,लड़ना न चाहो अब भी

तो एक सबसे बड़ा विकल्प खुला है आत्महत्या का

कि तुमसे पहले भी चुना है यह विकल्प तुम्हारे भाई–बन्दों ने

लेकिन इतना जान लो ....

मृत्यु सिर्फ मर गए आदमी के दुःख और तकलीफें दूर करती है

लेकिन बचे हुओं की तकलीफों में हो जाता है

थोड़ा इजाफा और .....!

रमाशंकर यादव विद्रोही की छोटी कविता, नई खेती, में बड़े सरल शब्दों में बताया गया है कि किसान जो ठान लेता है, उसे जरूर पूरा करता है।

नई खेती/रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

मैं किसान हूँ

आसमान में धान बो रहा हूँ

कुछ लोग कह रहे हैं

कि पगले, आसमान में धान नहीं जमा करता

मैं कहता हूँ पगले!

अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है

तो आसमान में धान भी जम सकता है

और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा

या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा

या आसमान में धान जमेगा।

केदारनाथ अग्रवाल की कविता, किसान स्तवन, किसानों की आधुनिक स्तुति है।

किसान स्तवन/केदारनाथ अग्रवाल

तुम जो अपने हाथों में विधि से ज्यादा ताकत रखती हो

मेहनत से रहते हो, खेतों में जाकर खेती करते हो

मेड़ों को ऊँचा करते हो, मेघों का पानी भरते हो

फसलों की उम्दा नसलें हर साल नयी पैदा करते हो

लाठी लेकर रखवाली सबकी करते हो

कजरारी गौऔं के थन से पय दुहते हो

फिर भी मूँड़े पर गोबर लेकर चलते हो

तुम जो धन्नासेठों के तलवे मलते हो

तुम जो छाती पर पत्थर रक्खे जीने का दम भरते हो

अन्याओं से जोर जुलुम से मुट्ठी ताने लड़ मरते हो

तुम जो ठगते नहीं ठगे सब दिन जाते हो

तुम जो सरकारी पेटी में टैक्सों में पैसा भरते हो

अफसर के वेतन को अपने लोहू देकर मोटा करते हो

थाने की ड्योढ़ी पर जाकर बकरे जैस कट आते हो

मेहनत की मस्ती में ज्ञानी-विज्ञानी को शरमाते हो

तुम जो मेहनत की गेहूँ जौ की रोटी खाते हो

तुम जो मेहनत की भद्दर गहरी निंदिया में सो जाते हो

तुम अच्छे हो तुमसे भारत का भीतर-बाहर अच्छा है

तुम सच्चे, तुमसे भारत का सुन्दर सपना सच्चा है

तुम गाते हो, तुमसे भारत का कोना-कोना गाता है

तुमसे मुझको मेरे भारत को जीवन का बल मिलता है

तुम पर मुझको गर्व बहुत है, भारत को अभिमान बहुत है

यद्यपि शासन तुमको क्षण भर का कोई मान नहीं देता है

तुम जो रूसी-चीनी-हिंदी मैत्री के दृढ़ संरक्षक हो

तुम जो तिब्बत-चीन एकता के विश्वासी अनुमोदक हो

तुम जो युद्धों के अवरोधक शांति समर्थक युगधर्मी हो

मैं तो तुमको मान मुहब्बत सब देता हूँ

मैं तुम पर कविता लिखता हूँ

कवियों में तुमको लेकर आगे बढ़ता हूँ

असली भारत पुत्र तुम्हीं हो

असली भारत पुत्र तुम्ही हो

मैं कहता हूँ |

केदारनाथ अग्रवाल की दूसरी कविता, पैतृक संपत्ति, में किसानों की विपन्नता का वर्णन है।

पैतृक संपत्ति/केदारनाथ अग्रवाल

जब बाप मरा तब यह पाया,

भूखे किसान के बेटे ने:

घर का मलवा, टूटी खटिया,

कुछ हाथ भूमि-वह भी परती।

चमरौधे जूते का तल्ला,

छोटी, टूटी बुढ़िया औंगी,

दरकी गोरसी बहता हुक्का,

लोहे की पत्ती का चिमटा।

कंचन सुमेरु का प्रतियोगी

द्वारे का पर्वत घूरे का,

बनिया के रुपयों का कर्जा

जो नहीं चुकाने पर चुकता।

दीमक, गोजर, मच्छर, माटा-

ऐसे हजार सब सहवासी।

बस यही नहीं, जो भूख मिली

सौगुनी बाप से अधिक मिली।

अब पेट खलाये फिरता है

चौड़ा मुँह बाये फिरता है।

वह क्या जाने आजादी क्या?

आजाद देश की बातें क्या?

वर्ष 2020 में शुरू हुआ किसान आन्दोलन एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। इसी आन्दोलन से सम्बंधित एक कविता, सरकारी पोस्टर से बाहर किसान, को इस लेख के लेखक ने लिखा है।

सरकारी पोस्टर से बाहर किसान/महेंद्र पाण्डेय

सरकार ने पोस्टरों में कैद किया किसानों को

पोस्टर से झाँक रहा था

पगड़ी वाला, कुदाल लिए मुस्कराता किसान

जिसकी सीमा खेत से मंडी तक है

जो कभी शिकायत नहीं करता

आवाज जिसकी किसी ने सूनी नहीं

परेशां होता है तो बस आत्महत्या करता है

किसान जब पोस्टर से बाहर सडकों पर आये

तब सरकार ने कहा

ये किसान हो नहीं सकते

देशद्रोही हैं, बिचौलिए हैं, आतंकवादी हैं

पर किसान चुप रहे

यही चुप्पी और एकता उनका हथियार बनी

सरकार ने खरीदे हैं बहुत घातक हथियार

इजराइल से, अमेरिका से, रूस से, फ्रांस से

खरीदे जासूसी हथियार और जासूसी वाले ड्रोन

पर, चुप्पी और एकता के सामने फीके पड़े सारे हथियार

इस शातिर सरकार को भी

फिलहाल घुटने टेकने पड़े

कदम पीछे करने पड़े

अब, आने वाला समय बतायेगा

कि, यह किसानों की जीत है

या फिर

चुनाव जीतने की साजिश?

Next Story

विविध