नागरिकों द्वारा दिये जाने वाले करों से चलती हैं देश की सरकारें सबसे बेतुका और अज्ञानता भरा तर्क !
(भारत में 75 फिसदी आबादी की आमदनी घटी)
डॉ. राजकुमार सिंह की टिप्पणी
यह लेख केंद्र सरकार, रुपया या मुद्रा, रोजगार और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के बीच जटिल अंतरसंबंध की जांच करता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में रुपये का विस्तार और संकुचन केवल भारत सरकार द्वारा करों और व्यय के माध्यम से किया जा सकता है। राज्य सरकारों और अन्य मुद्रा उपयोगकर्ताओं के विपरीत, केंद्र सरकार के लिए कर और व्यय एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। ज़ोर देने योग्य एक आवश्यक बात यह है कि संप्रभु राष्ट्रों में मुद्रा जारी करने का अधिकार केवल केंद्र सरकारों के पास है। राजकोषीय बाधाओं के विपरीत, उनकी सीमाएँ मुख्य रूप से संसाधन उपलब्धता के इर्द-गिर्द घूमती हैं।
देश में बेरोजगारी का मुख्य कारण पूरी तरह से आधुनिक मौद्रिक प्रणाली की अनदेखी के कारण केंद्र सरकार की गलत राजकोषीय नीतियां हैं। मुद्रा बनाने की केंद्रीय सरकार की शक्ति का लाभ उठाकर, देश के सभी बेरोजगार व्यक्तियों और संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है, जिससे एक खुशहाल, प्रदूषण मुक्त, नैतिक और समृद्ध भारत बन सकेगा।
क्या यह धारणा सत्य है कि हमारा पैसा केंद्र सरकार को वित्तपोषित करता है और देश को चलाता है?
कुछ लोग यह दावा करते हैं कि वे करों का भुगतान करते हैं, जिससे सरकार चलती है। इस कथन को पहली नज़र में सही माना जा सकता है, लेकिन बारीकी से जांच करने पर यह सबसे बेतुका तर्क है और अर्थव्यवस्था कैसे काम करती है, इसके बारे में पूरी तरह से अज्ञानता दिखाता है। करों से राष्ट्रीय संपत्ति और विकास नहीं होता।
वास्तव में, सच्ची समृद्धि प्राकृतिक विश्व में मेहनती जनता की गतिविधियाँ से उत्पन्न होती है। जैसे कि भूमि को जोतने से, धातुओं का खनन करने से, पेड़ों से,आवासों के निर्माण से, हमारे जीने के स्थानों और पर्यावरण की सफाई और संरक्षण करने से, महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा स्थापित करने से, कच्चे माल को मानव उपभोग के लिए तैयार उत्पादों में बदलने से, या गहन बौद्धिक प्रयासों के माध्यम से नए उत्पादों, प्रौद्योगिकियों या नवाचारिक प्रक्रियाओं को विकसित करने से। ये काम आबादी के विशाल बहुमत द्वारा किया जाता है, जिसमें किसान, श्रमिक, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक और अन्य पेशेवर शामिल हैं। श्रमिक आबादी और मेहनती जनता के पारिश्रमिक योगदान के बिना कोई भी वस्तु और सेवा मौजूद नहीं होती।
आधुनिक मौद्रिक प्रणाली के विकास को समझने में कराधान, मुद्रा, रोजगार और राष्ट्र-निर्माण के बीच महत्वपूर्ण परस्पर क्रिया को पहचानना शामिल है। ये तत्व किस प्रकार परस्पर क्रिया करते हैं और किसी देश के आर्थिक परिदृश्य और राष्ट्र निर्माण को आकार देते हैं?
1850 के आसपास ब्रिटिश उपनिवेश काल के दौरान अफ्रीका में मौद्रिक प्रणाली का विकास दिलचस्प अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। उस अवधि के दौरान जब अंग्रेजों ने अफ्रीका में उपनिवेश स्थापित किए, उनका सामना मुख्य रूप से आत्मनिर्भर अफ्रीकी समाजों से हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उपनिवेशीकरण के दौरान भारत में मौजूद अधिक संरचित मुद्रा प्रणाली के विपरीत, ये समाज आत्मनिर्भर आधार पर संचालित होते थे, जहां व्यक्ति अपना भोजन स्वयं उगाते थे और अपने कपड़े का उत्पादन करते थे।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की उस विशेष भूमि पर कॉफ़ी की खेती करने की इच्छा थी। हालाँकि, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्थानीय मजदूरों की भागीदारी आवश्यक थी। उपनिवेशवादियों को एक महत्वपूर्ण निर्णय का सामना करना पड़ा, उनके सामने केवल दो व्यवहार्य विकल्प थे: पहला था दासता का सहारा लेना, लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध जबरन श्रम के लिए मजबूर करना। दूसरे विकल्प में कर प्रणाली की स्थापना के माध्यम से अप्रत्यक्ष दृष्टिकोण लागू करना शामिल था।
झोपड़ी कर (Hut Tax) पहली बार 1849 में नेटाल, दक्षिण अफ्रीका में लागू किया गया था। बाद में इसे सिएरा लियोन, नाइजीरिया और केन्या सहित अफ्रीका में अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों तक बढ़ा दिया गया था। कर आम तौर पर प्रति झोपड़ी कुछ शिलिंग (एक पूर्व ब्रिटिश सिक्का और एक पाउंड के बीसवें हिस्से या बारह पेंस के बराबर मौद्रिक इकाई) की दर से निर्धारित किया गया था। झोपड़ी कर लगाने से अफ्रीकियों को अपनी झोपड़ियों की सुरक्षा के लिए कर दायित्वों को पूरा करने के लिए मुद्रा अर्जित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे अक्सर कृषि और अन्य उद्योगों में मजदूरों के रूप में उनकी भागीदारी की आवश्यकता होती थी, जो मुद्रा अर्जित करने के लिए औपनिवेशिक अधिकारियों की इच्छाओं के अनुरूप थी।
झोपड़ी कर का प्राथमिक उद्देश्य अफ़्रीकी श्रमिकों पर नियंत्रण स्थापित करना था। अफ्रीकियों को करों का भुगतान करने के लिए मजबूर करके, ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने उन्हें अपनी कर देनदारियों को पूरा करने के लिए आवश्यक धन उत्पन्न करने के लिए मजदूरी मांगने के लिए प्रभावी ढंग से मजबूर किया। यह व्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की श्रम मांगों को पूरा करने के लिए काम करती थी। इस प्रणाली से एक स्थानीय मौद्रिक प्रणाली का विकास होगा, जिसमें व्यक्तियों को करों का भुगतान करने के लिए मुद्रा अर्जित करने के लिए काम करना होगा, और यह मुद्रा केवल उपनिवेशवादियों/राज्य के माध्यम से ही पहुंच योग्य होगी। यह ऐतिहासिक संदर्भ अफ़्रीका में मौद्रिक आधारित अर्थव्यवस्था के विकास पर प्रकाश डालता है। और कराधान, मुद्रा और राज्य के उद्देश्यों/राष्ट्र निर्माण के बीच महत्वपूर्ण परस्पर क्रिया पर प्रकाश डालता है।
मुद्रा जारीकर्ता और मुद्रा उपयोगकर्ता में क्या अंतर है? देश में मुद्रा का विस्तार या संकुचन (घटना और बढ़ना) कैसे होता है और यह हमारी अर्थव्यवस्था और राष्ट्र निर्माण को कैसे प्रभावित करता है?
सत्ता, मुद्रा, अर्थव्यवस्था और राष्ट्र निर्माण में गहरा संबंध है। सत्ता द्वारा मुद्रा का निर्माण किया जाता है और अर्थव्यवस्था में लगाया जाता है और देश के नागरिक मुद्रा के उपयोगकर्ता होते हैं और उनका जीवन और भविष्य इस मुद्रा की आय पर निर्भर करता है। इस तरह नागरिकों, मुद्रा, अर्थव्यवस्था और सत्ता द्वारा राष्ट्र निर्माण होता है। इसका मतलब यह है कि उत्पादकों और अन्य नागरिकों को मुद्रा के लिए कार्य करना होता है जिससे वह अपना जीवन और भविष्य सुखमय और सुरक्षित बना सके।
केंद्र सरकार जो मुद्रा जारीकर्ता होता है या कहें मुद्रा का निर्माण करता है उसका उद्देश्य देश में मानव और प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोग कर राष्ट्र निर्माण करना होता है। उदाहरण के तौर पर जब अपने देश की केंद्र सरकार ₹100 खर्च करती है और ₹90 टैक्स के रूप में वापस लेती है तो हमारे देश में आर्थिक गतिविधि बढ़ती है और ₹10 देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा उपयोगकर्ताओं के पास रह जाते हैं और अगर केंद्र सरकार अपनी नीति और आर्थिक स्थिति को देखते हुए ₹100 अर्थव्यवस्था में खर्च करती है और ₹110 टैक्स के रूप में लेती है तो ₹10 मुद्रा उपयोगकर्ताओं से या कहें अपने देश की अर्थव्यवस्था से वापस चले जाते हैं और इन्हें जोड़ घटा कर हम पता कर सकते हैं कि हमारे देश की मुद्रा में क्या बदलाव हुए हैं जिससे हम समझ सकते हैं कि स्वतंत्रता के समय हमारे पास कुछ मुद्रा थी और अब अगर मुद्रा अलग है तो वह मुद्रा कैसे आई। अगर देश में बेरोजगारी गरीबी ज्यादा रहेगी तो निवेश नहीं होगा और यहां पर केंद्र सरकार को अपनी वित्त नीति से मुद्रा का निर्माण कर सभी लोगों को रोजगार देने की नीति अपनाना जरूरी हो जाता है।
करोड़ों बेरोजगार युवक और युवतियों को कहां या किस तरह का कार्य मिलेगा?
भौतिक, बुनियादी और समाज उपयोगी ढांचा जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, सुरक्षा, सफाई, पर्यावरण सुरक्षा, शोध, डिजिटल डाटा प्रबंधन व प्रशासन, मनोरंजन, खेलकूद, सामुदायिक सेवाओं, चाइल्ड केयर, ओल्ड एज केयर, जल संसाधन, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा आदि को विकसित और उन्नत करने की दिशा में बड़ी संख्या में रोजगार सृजन किया जा सकता है।
सरकारी खर्च के कारण भ्रष्टाचार पर कैसे लगाम लगाई जा सकती है?
हमारे देश में रुपए को डिजिटल कर दिया जाए तो वित्तीय लेन देन का आसानी से पता किया जा सकता है जिससे वित्तीय अनियमितताओं को पहचानने और नियंत्रण करने में मदद मिल सकती है।
डिजिटल तकनीकी का उपयोग कर डॉक्यूमेंटेशन पारदर्शिता, जवाबदेही और लोगों की भागीदारी बनायी जा सकती है और पेशेवर ढंग से कार्यों और प्रक्रियाओं की गुणवत्ता और ईमानदारी बनाए रखी जा सकती है।
सबको रोजगार की गारंटी होने से लोगों में आत्मविश्वास और नैतिकता का विकास होगा और देश में भ्रष्टाचार की संस्कृति खत्म होगी।
इतनी बड़ी संख्या में नौकरी प्रदान करने से क्या अर्थव्यवस्था उन्नत होगी या चरमरा जाएगी?
तकनीकी के विकास के कारण कृषि और उद्योग में सामान और सेवाओं को बनाने की अपार क्षमता विकसित हो गई है, लेकिन बेरोजगारी और गरीबी के कारण इन उत्पादों और सेवाओं को खरीदने वालों के पास पैसे न होने के कारण हम अपने देश की उत्पादक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग और विकास नहीं कर पा रहे हैं। इतने सारे रोजगार देने के कारण इनके पास सामान और सेवाएं खरीदने की क्षमता आएगी, जिससे अपने देश की कृषि और उद्योगों की क्षमताओं का उपयोग हो पाएगा और उनका डिमांड के हिसाब से विकास भी हो पाएगा। इस तरह हम पाते हैं कि सबको रोजगार देने की नीति से अपने देश की अर्थव्यवस्था में बहुत तेजी से विकास होगा।
(डॉ. राजकुमार सिंह दिल्ली टैक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।)