संसद से लाल क़िले तक के भाषणों से प्रधानमंत्री का जो रूप आया सामने, वह है जनता की चुप्पी से विचलित होते नरेंद्र मोदी का !
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वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय 15 अगस्त के ऐतिहासिक अवसर पर दिए गए अपने डेढ़ घंटे के उस भाषण को लेकर सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं जो आने वाले वक्त में देश के भविष्य को लेकर नया इतिहास रच सकता है! नेत्रहीन व्यक्तियों और हाथी की प्रचलित कहानी की तरह ही भक्तों, अंध-भक्तों और आलोचकों के झुंड इस समय इस समय भाषण के अलग-अलग अंशों को छूते हुए प्रधानमंत्री के असली इरादों की तह में जाने की कोशिशों में जुटे हैं। इस तरह की कोशिशें पहले नहीं देखी गईं।
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी का लाल क़िले से यह दसवाँ और उनके दूसरे कार्यकाल का अंतिम भाषण था। उनके सभी भाषणों का औसत लगभग डेढ़ घंटा रहा है। अतः कहा जा सकता है कि उन बदनसीब मुग़लों द्वारा बनाई गई ऐतिहासिक इमारत से, जिनके कि इतिहास वर्तमान सत्ता द्वारा ही जलाए जा रहे हैं, प्रधानमंत्री ने पिछले दस सालों में लगभग हज़ार मिनटों के संबोधन देश की जनता के नाम किए होंगे!
प्रधानमंत्री को उनके अब तक के कार्यकाल में केवल दो अवसरों पर सबसे ज़्यादा चर्चा में रहते हुए पाया गया है। पहला तो तब जब वे देश के हितों को प्रभावित कर सकने वाली बड़ी से बड़ी घटना पर भी लंबा मौन साध लेते हैं। दूसरा तब जब वे किसी अहम मौक़े पर भी इस तरह की रहस्यमय प्रतिक्रिया देते हैं कि उनके कहे के निहितार्थ को डीकोड करना मनोवैज्ञानिकों के लिए भी चुनौतीपूर्ण काम हो जाता है। पहली श्रेणी में चीन द्वारा लद्दाख में तीन साल पहले किए गए अतिक्रमण और हाल की मणिपुर की घटना को रख सकते हैं। दूसरी में लाल क़िले से पंद्रह अगस्त को दिये गए उनके उद्बोधन को।
चीन द्वारा कथित तौर पर हथिया लिए गए हमारे दो हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेकर पीएम द्वारा जून 2020 में दी गई एकमात्र प्रतिक्रिया ही अभी तक उपलब्ध है कि : 'न तो कोई घुसा था, न घुसा है और न घुसेगा।’ लाल क़िले से उद्बोधन में उनके नेतृत्व में किए गए सामरिक महत्व की उपलब्धियों के बखान के दौरान भी प्रधानमंत्री ने यह तो बताया कि सीमा क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण किया गया है पर चीनी घुसपैठ और उससे मुक़ाबले के लिए सड़कों के उपयोग का कोई ज़िक्र नहीं किया। दुनिया को जानकारी है कि मणिपुर में 4 मई को हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर बीस जुलाई को पीएम ने छत्तीस सैकंड की क्या प्रतिक्रिया दी थी!
लाल क़िले से दिये गए नब्बे मिनट के भाषण और उसमें अब तक के ‘मेरे प्यारे भाइयों और बहनों’ के स्थान पर पचास से अधिक बार इस्तेमाल किए गए शब्द ‘मेरे प्रिय परिवारजनों’ का एक पंक्ति में सार यही समझाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री देश को इस हक़ीक़त से सामना करने के लिए तैयार कर रहे थे कि अगले साल भी वे ही झंडा फहराने वाले हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के इस तंज को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा सकता कि मोदी अगले साल झंडा अपने घर में फहराएँगे। ऐसा इसलिए कि मोदी ने अब सत्ता को ही अपना स्थायी निवास मान लिया है।
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान लोकसभा के मंच का उपयोग चुनावी भाषण के लिए कर लेने के बाद लाल क़िले की प्राचीर से भी जनता को इस आशय का संदेश देने कि अगले पाँच सालों के लिए उन्हें फिर से सत्ता में आने से रोका नहीं जा सकता, मोदी आख़िर क्या संकेत देना चाहते हैं? क्या वे विपक्ष के साथ-साथ जनता को भी किन्हीं अज्ञात परिणामों को लेकर सचेत या भयभीत करना चाह रहे हैं? कर्नाटक विधान सभा के चुनावों के दौरान गृह मंत्री ने वहाँ के मतदाताओं को कथित तौर पर आगाह किया था कि अगर भाजपा को सत्ता में नहीं लौटाया गया तो राज्य को प्रधानमंत्री का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होगा। कर्नाटक की जनता ने गृहमंत्री के कहे की परवाह नहीं की!
सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री और उनके करीब की जमात ने ऐसा महसूस कर लिया है कि मौजूदा नेतृत्व से जनता का मोहभंग हो चुका है? पश्चिम बंगाल, पंजाब ,हिमाचल और कर्नाटक विधान सभाओं के चुनाव परिणाम उसके प्रमाण भी हैं। 26 मई 2014 के दिन ‘ग़रीब चाय वाले के बेटे’ की जिस छवि के साथ सार्क देशों के शासन प्रमुखों की मौजूदगी में मोदी ने राष्ट्रपति भवन के विशाल प्रांगण में पद की शपथ थी और जिस तिलिस्म को 2019 में भी अनेकानेक उपायों से जीवित रखा था क्या वह 2024 के पहले टूट चुका है?
कोई तो कारण रहा होगा कि 2014 और 2019 के दौरान के सभी प्रमुख सहयोगी दलों ने एनडीए का साथ छोड़ दिया है! राज्यों के वरिष्ठ नेता भाजपा का साथ छोड़ कांग्रेस और दूसरे दलों के दामन थाम रहे हैं! सारे संकेत इसी एक हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करते हैं कि विपक्षी दलों के बाद अब जनता ने भी डरना बंद किया है और यह सब सत्तारूढ़ दल के नेताओं की क्रोध भरी मुद्राओं में व्यक्त भी हो रहा है!
लोकसभा से लाल क़िले तक के भाषणों से प्रधानमंत्री का जो स्वरूप प्रकट हुआ है वह जनता की चुप्पी से विचलित होते हुए नरेंद्र मोदी का है। प्रधानमंत्री ने भाँप लिया है कि कन्याकुमारी से कश्मीर के बाद गुजरात से मेघालय तक की प्रस्तावित दूसरी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद राहुल गांधी को आगे बढ़ने से रोक पाना और भी मुश्किल होने वाला है!
पिछले नौ सालों के दौरान सत्ता के इर्द-गिर्द काई की तरह जमा हो गए निहित स्वार्थों के समूहों ने अब वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संविधानेतर तरीक़ों की मदद लेने के लिए प्रधानमंत्री को उकसाना प्रारंभ कर दिया है। इन तरीक़ों में यह भी शामिल है कि वर्तमान संविधान अपनी उम्र और ज़रूरत पूरी कर चुका है। अतः एक नये संविधान की देश को ज़रूरत है। इस ज़रूरत के संकेत तीन साल पहले ही तब मिल गए थे जब नीति आयोग के एक उच्चाधिकारी ने सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि देश में लोकतंत्र ज़रूरत से ज़्यादा है और इस कारण विकास बाधित हो रहा है।
अंत में सवाल यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद अगर एनडीए बहुमत प्राप्त कर पाने में विफल साबित हो जाता है तो क्या मोदी लोकतांत्रिक तरीक़ों से सत्ता-हस्तांतरण के लिए राज़ी हो जाएँगे? लाल क़िले की प्राचीर से किए गए प्रधानमंत्री के इस दावे पर कि अगले साल भी तिरंगा वे ही फहराएँगे, अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध अख़बार ‘द टेलीग्राफ’ की खबर का शीर्षक था :'चुनाव आयोग आराम करे, मोदी ने 2024 के नतीजे सुना दिए हैं!’ क्या देश की जनता मोदी के महत्वाकांक्षी दावों पर यक़ीन करना चाहेगी?
(श्रवण गर्ग के इस लेख को उनके ब्लॉग shravangarg1717.blogspot.com/ पर भी पढ़ा जा सकता है।)