Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

स्टेन स्वामी का महत्वपूर्ण लेख: जमीन अधिग्रहण के नए तरीकों से ग्रामीण जीवन को बर्बाद करती सरकार

Janjwar Desk
6 July 2021 9:30 AM IST
स्टेन स्वामी का महत्वपूर्ण लेख: जमीन अधिग्रहण के नए तरीकों से ग्रामीण जीवन को बर्बाद करती सरकार
x

गंभीर रूप से बीमार होने पर बार-बार अनुरोध के बावजूद स्टेन स्वामी को नहीं दी गयी थी जमानत और अंततः हिरासत में रहते हुए हुई थी उनकी मौत

पूंजीपतियों ने किसानों की जमीन अधिग्रहण के लिए नए तरीके ढूंढ निकालें है, इस बात का अहसास राज्य और पूंजीपति दोनों को है कि सीधे-सीधे हिंसात्मक तरीके से काम नहीं चलेगा, इसलिए जरूरी है किसानों को जमीन देने के लिए राजी किया जाये

जनज्वार। वह दिन अब गुजरे जमाने की बात हो गयी जब पूंजीपति उद्योग स्थापित करने के लिए सरकार के पास जमीन अधिग्रहण के लिए जाते थे, कि वह किसानों से जमीन लेकर उन्हें दें। कुछ सालों से सरकार जमीन अधिग्रहण करने के प्रयासों का अनुभव बहुत ही करवा रही है। कलिंग नगर, सिंगुर, नंदीग्राम इसके जीवंत उदाहरण हैं। इसके कारण अब सरकारें पूंजीपतियों को कहती है कि वह अधिग्रहण की जिम्मेदारी खुद ही लें। चाहे तो जमीन खरीद लें या फिर किसानों से लीज पर लें।

इसलिए पूंजीपतियों ने किसानों की जमीन अधिग्रहण के लिए नए तरीके ढूंढ निकालें है। इस बात का अहसास राज्य और पूंजीपति दोनों को है कि सीधे-सीधे हिंसात्मक तरीके से काम नहीं चलेगा। इसलिए जरूरी है किसानों को जमीन देने के लिए राजी किया जाये। इसके लिए जो तरीका अपनाया जाता है उसको निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है-

1) पहला चरण

सबसे पहला काम गांव के कुछ असंतुष्ट युवाओं को चिह्नित करना है जिन्हें पैसे और कंपनी में नौकरी के वादा के द्वारा लुभाया जा सके। इस तरह के युवाओं को किसी भी गांव में तलाश करना कोई मुश्किल काम नहीं है। सामान्यतः ये युवा थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे लेकिन बेरोजगार होते हैं, जिनका ज्यादातर समय आवारागर्दी में व्यतीत होता है। इन युवाओं में अपने समाज के प्रति एक असंतुष्टि होती है। लेकिन समाज जिन चुनौतियों से जूझ रहा होता है, उसके समाधान के लिए किसी भी रचनात्मक जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं होते हैं। उन्हें इस सत्य का आभास होता है कि वर्तमान समाज में अंततः पैसा ही है, जिसका महत्व है। इन युवाओं का कृषक समाज के खेती के कामों से भी इस हद तक अलगाव रहता है कि वह भविष्य में अपने खेतों पर भी काम नहीं करना चाहते हैं।

इन युवाओं के लिए जमीन से जुड़ाव जैसी कोई संवेदना भी नहीं होती है। आदिवासी समाज के सन्दर्भ में, यह उन युवाओं का समूह होता है जिसमें परंपरागत आदिवासी समाज के नेतृत्व के प्रति कोई विशेष सम्मान या आदर की भावना नहीं रहती है। ना ही वह गांव के बड़े-बुजुर्गों के विचारों को मानते हैं। इस तरह के युवाओं को सबसे पहले कंपनी द्वारा मोटर साइकिल और दैनिक भत्ता दिया जाता है। उनको कंपनी द्वारा यह भी बता दिया जाता है कि जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में उन्हें सक्रिय भूमिका निभानी होगी। इस तरह यह युवा गांव के ऐसे पहले परिवारों में आ जाते हैं जो अपनी जमीन कंपनी को देने के लिए तैयार होते हैं। इस तरह गांव के समाज को विभाजित करने का पहला चरण पूरा हो जाता है।

2) दूसरा चरण

गांव के बाकी लोगों को मुख्यतः दो भागों पर बांटा जा सकता है। एक समूह होता है, बहुसंख्यक लेकिन खामोश लोगों का जो दिल की गहराई में अपनी जमीन देना तो नहीं चाहते हैं। लेकिन एक शक्तिशाली कंपनी, प्रशासन एवं पुलिस के साथ सीधे-सीधे संघर्ष में असहाय महसूस करते है। साथ-ही-साथ इन लोगों को कंपनी, परियोजना की प्रकृति, परियोजना का पर्यावरण पर प्रभाव, मुआवजे की विस्तृत जानकारी, पुनर्वास की गुणवत्ता इत्यादि संबंधों के बारे में कम जानकारी होती है। दूसरे शब्दों में यह एक ऐसा समूह होता है, जिसको अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार करने के लिए फुसलाया जा सकता है।

कंपनी इन लोगों पर काम करना शुरू कर देती है। कंपनी के लोगों को इस बात का इल्म रहता है कि इन भोले-भाले लोगों के साथ इस तरह से रिश्ते बनाने हैं, जिससे यह परियोजना को स्वीकारने और विस्थापित होने के लिए तैयार हो जाये। पहले से ही खरीद लिए गए युवा समूह के द्वारा बातचीत आगे बढ़ाई जाती है। अब यह युवा समूह कंपनी और गांववालों के बीच दलाल की तरह काम करने लगता है।

इस क्षेत्र में कुछ लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की जरूरत रहती है। इन जरूरतों को चिह्नित किया जाता है। कंपनी अपने कुछ अफसरों को गांववालो के पास भेजती है। यह लोग खरीदे गए युवाओं के साथ मिलकर गांववालों को इक्कट्ठा करते हैं, जहां पर वह अफसर गांववालों से पुनर्वास योजनाओं के बारे में बड़े-बड़े वादे करते हैं, और बताते है कि जमीन देने की स्थिति में उनको क्या-क्या फ़ायदा होगा। कंपनी साथ-ही-साथ प्राथमिक शाला को बनाने, उनको चलाने और जरूरी सामान मुहैया कराने का प्रस्ताव गांववालों के सामने रखती है। इसके साथ ही छोटे स्तर का अस्पताल, सामुदायिक भवन, हैंडपंप इत्यादि अपने खर्चे पर शुरू करने का प्रस्ताव रखती है। यही लोग जमीन और संपत्ति के लिए ज्यादा बेहतर मुआवजा का वादा करते हैं। हरेक घर से एक व्यक्ति को कंपनी में नौकरी दिलाने का विश्वास दिलाया जाता है। संक्षेप में धरती पर ही स्वर्ग का वादा किया जाता है।

गांव के कुछ लोगों को उन स्थानों पर घुमाने के लिए ले जाया जाता है, जहां पर इसी कंपनी ने किसी दूसरी परियोजना में विस्थापित लोगों का इस खूबसूरत तरीके से पुनर्वासित किया गया हो। इसका मकसद यह होता है कि लोगों को यह लगे कि पहले की तुलना में आज यह समूह काफी बेहतर स्थिति में रह रहे हैं। धीरे-धीरे, एक समय के बाद बहुत से किसान कंपनी को अपनी जमीन देने के विरोध में नहीं रहते हैं। इस तरह प्रतिरोध के आरम्भ में ही कमजोर होने की शुरुआत हो जाती है।

इस तरह गांव के लोगों को बांटने का दूसरा चरण पूरा हो गया।

3) तीसरा चरण

इसके बाद भी गांव में प्रबुद्ध और मुखर लोगों का एक समूह बचता है जो कि परियोजना और कंपनी के विरोध में रहते हैं। यह लोग अपनी जमीन के साथ जुड़े हुए होते हैं। आदिवासी समुदाय वाले गांव में यह समूह अपनी जमीन को केवल आजीविका का एक मात्र साधन नहीं मानते हैं, बल्कि ये अपने पुरखों की पवित्र विरासत होती है, जहां उनकी आत्माएं बसती है। वह इस बात से भी वाकिफ होते हैं कि कंपनी उनको उनकी जमीन से हटाना एवं विस्थापित कर अपनी परियोजना शुरू करना चाहती है। उन्हें इस बात का बोध हो चुका होता है कि कंपनी यहां पर जो भी निवेश कर रही है, वह केवल और केवल अपने फायदे के लिए कर रही है। ना की गांव वालों के विकास कार्य के लिए। उनके अनुभव से उन्हें यह पता रहता है कि उद्योगपति पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसलिए वह बहुत स्पष्ट और बुलंद आवाज में बता देते है कि वो अपनी जमीन किसी भी कीमत पर वह कंपनी को नहीं देंगे।

चलिए देखते है कि उद्योगपति इस समूह से किस प्रकार निपटता है:

पूंजीपति इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि गांव के इस तबके को किसी भी तरह से जमीन देने के लिए मनाना संभव नहीं है। इसलिए इस मुखर लोगों से निपटने के लिए कठोर तरीके का इस्तेमाल करना होगा। इसके लिए स्थानीय प्रशासन, स्थानीय पुलिस और पहले से ही कंपनी द्वारा खरीदे गए युवाओं के साथ मिलकर विस्तार में योजना बनाई जाती है, कि किस प्रकार आक्रोश से भरे हुए परियोजना का विरोध कर रहे इन लोगों को किनारे किया जाये। किस-किस को किस प्रकार डराया जा सकता है। अगर उनको डराया नहीं जा सकता है तो किस प्रकार उनको झूठे मुकदमों में फंसाया जा सकता है, जिससे वे लोग किसी भी तरह से पूरे परिदृश्य से गायब हो जाएं।

झारखंड में इस तरह की बहुत सारी घटनाएं है। जब प्रतिरोध आंदोलन के नेताओं को गैर जमानती मुकदमों में फंसाया गया। उनमें से कई लोग है जिनको निचली अदालतों ने जमानत देने से मना कर दिया और उच्च न्यायालय से जमानत लेने की प्रक्रिया में उन्हें एक साल से ज्यादा का समय लग गया। इन सबके कारण उन लोगों को कई महीनों तक जेल में बंद रहना पड़ा। यहां तक की परंपरागत आदिवासी समाजों के परंपरागत बुजुर्ग नेताओं पर भी बलात्कार और हत्या जैसे संगीन आपराधिक जुर्मों का आरोप लगाया गया। परियोजना का विरोध कर रहे जवान कार्यकर्ताओं को इस स्थिति में ला दिया जाता है कि वह गिरफ्तार होने के डर से स्थानीय हाट भी नहीं जा पाते हैं। पुलिस द्वारा पकड़े जाने के भय से या कंपनी द्वारा भाड़े पर लिए गए गुंडों द्वारा पिटाने के डर से बस पकड़ने भी नहीं जा पाते हैं।

इन सबके बीच में पूंजीपति दिखावे के लिए 'लोक सुनवाई' के सफल आयोजन में व्यस्त जो जाते हैं। इस बात का पुख्ता इंतजाम किया जाता है कि किस प्रकार इन 'उपद्रवी तत्वों' को दूर रखा जा सकें। परियोजना के अनुमोदन के लिए भी एक सुनियोजित योजना तैयार की जाती है। एक बार जब यह अनुमोदन प्राप्त हो जाता है, तब मीडिया के सामने आकर यह घोषणा की जाती है कि जनता ने ना सिर्फ इस परियोजना को स्वीकृति प्रदान की है, बल्कि इन परियोजना का स्वागत भी किया है और सहर्ष अपनी जमीन देने के लिए तैयार है।

इस तरह गांव के बांटने का तीसरा चरण भी पूरा हो जाता है।

4)इस सबके बावजूद भी इस तरह की घटनाएं हैं, जब प्रभावित लोगों ने अपने बीच किसी तरह का विभाजन नहीं होने दिया और लगातार मिलकर परियोजना का विरोध जारी रखा। इस तरह के असाधारण स्थिति असाधारण समाधान की मांग भी करती है। इस स्थिति से निपटने के लिए राज्य सरकार, स्थानीय शासन एवं पुलिस बल का एक साथ आना महत्वपूर्ण हो जाता है और राजकीय आतंक का सबसे घिनौना चेहरा सामने आता है। झारखंड के कोयल कारों का उदाहरण हमारे सामने है, जब निहत्थे शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहें लोगों पर पुलिस ने गोली चला दी थी। इस हत्याकांड में आठ लोगों की जान गयी एवं कई लोग घायल हुए।

2005 में कलिंग नगर में जब टाटा कंपनी जमीन खाली कराने के लिए बुलडोज़र के साथ गयी तो उसके साथ हथियारबंद पुलिस की 11 पलटन भी साथ थी। लोगों ने अपनी जमीन खाली करने से मना किया और पुलिस फायरिंग में 11 लोग मारे गए। यह लोगों को उन्हीं की जमीन से बेदखल कर, पराया कर देने के बनायी गयी औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ लोगों के संघर्ष पर अंतिम और अनुमानित वार होता है।

संघर्ष फिर भी जारी है:

अभी तक जो भी कहा गया है इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि जनता यह संघर्ष हार चुकी है। जल्दी ही वे पूंजीपतियों के तिकड़म को समझने लगते हैं। इन परिस्थितियों में भी अपनी खुद की एकता बनाएं रखने की रणनीति तैयार कर लेते हैं और निर्णयात्मक रूप से अपनी जमीन पूंजीपति को ना देने का मन बनाकर संघर्ष में जुट जाते हैं। इसके बाद की लड़ाई के लिए यह जरूरी है कि बाकी लोग भी अपने अंतरात्मा की आवाज पर इन संघर्षरत किसानों के समर्थन और सहायता में खड़े हो जाएं।

यह लेख Sanhati में पहले प्रकाशित हो चुका है। हिंदी अनुवाद सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पम ने किया है।

Next Story

विविध