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विमर्श

सत्ता हमेशा भूखी और लुटेरी होती है

Janjwar Desk
12 Sep 2021 4:31 PM GMT
सत्ता हमेशा भूखी और लुटेरी होती है
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सत्ता पर अनेक कविताएँ (poems) अलग-अलग आयाम पर लिखी गयी हैं, पर इतना तय है कि सत्ता के पक्ष में एक भी कविता नहीं लिखी जाती....

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। कबीलों के युग (Tribal Era) से आज तक सत्ता (Ruler) के गुण और धर्म नहीं बदला – जनता (Public) को पहले भी सरदारों (Tribes Head) की सत्ता लूटती थी, और आज सरदारों का नाम बदलकर प्रधानमंत्री (Prime Minister) और राष्ट्रपति (Rashtrapati) भले ही हो गया है, पर लूटपाट (Loot) आज भी जारी है। पहले शारीरिक ताकत (Physical Strength) के बल पर सत्ता हासिल की जाती थी और आज सत्ता के लिए पूंजी चाहिए। भले ही अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) के सत्ता में आते ही पूरी दुनिया में खलबली मच गयी हो, पर दुनिया के अधिकतर देशों में जो सत्ता पर काबिज है वह तालिबान ही है।

सत्ता पर अनेक कविताएँ (Poems) अलग-अलग आयाम पर लिखी गयी हैं, पर इतना तय है कि सत्ता के पक्ष में एक भी कविता नहीं लिखी जाती – हालांकि कुछ तथाकथित दरबारी कवि प्रयास करते तो हैं पर कविता लिख नहीं पाते। एक अदद कविता के लिए मस्तिष्क (brain) की जरूरत होती है और जाहिर है दरबारी होते ही सोचने की क्षमता मर जाती है।

कवि गोपाल प्रसाद व्यास (Gopal Prasad Vyas) की एक कविता है- सत्ता। इस कविता में उन्होंने सत्ता को गूंगा, बहरा और अँधा बताते हुए कहा है - सत्ता सती नहीं, रखैल है।

सत्ता

सत्ता अंधी है

लाठी के सहारे चलती है

सत्ता बहरी है

सिर्फ धमाके सुनती है

सत्ता गूंगी है

सिर्फ माइक पर हाथ नचाती है

कागज छूती नहीं

आगे सरकाती है

सत्ता के पैर भारी हैं

कुर्सी पर बैठे रहने की बीमारी है

पकड़कर बिठा दो

मारुति में चढ़ जाती है

वैसे लंगड़ी है

बैसाखियों के बल चलती है

सत्ता अकड़ू है

माला पहनती नहीं, पकड़ू है

कोई काम करती नहीं अपने हाथ से,

चल रही है चमचों के साथ से

सत्ता जरूरी है

कुछ के लिए शौक है

कुछ के लिए मजबूरी है

सत्ता सती नहीं, रखैल है

कभी इसकी गैल है तो कभी उसकी गैल है

सत्ता को सलाम करो

पानी मिल जाए तो पीकर आराम करो

सत्ता को कीर्तन पसंद है

नाचो और गाओ

सिंहासन पर जमी रहो

मरकर ही जाओ

और जनता?

हाथ जोड़े, समर्थन में हाथ उठाए,

आश्वासन लेना हो तो ले,

नहीं भाड़ में जाए

सत्ता शाश्वत है, सत्य है,

जनता जड़ है, निर्जीव है-

ताली और खाली पेट बजाना

उसका परम कर्तव्य है

कवि सज्जन धर्मेन्द्र (Sajjan Dharmendra) की एक कविता है- सत्ता की गर हो चाह तो दंगे करवाईये। इसमें उन्होंने लिखा है - कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में, पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये।

सत्ता की गर हो चाह तो दंगा करवाईये

सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये

बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये

करवा के क़त्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास,

रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये

कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में,

पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये

चलते हैं सर झुका के जो उनकी ज़रा भी गर,

उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें,

रधिया करे निकाह तो दंगा कराइये

मज़हब की रौशनी में व शासन की छाँव में,

करना हो कुछ सियाह तो दंगा कराइये

कवि ज्योति रीता (Jyoti Rita) की एक कविता है- सत्ता के खिलाफ मां। इस कविता में निकम्मी सत्ता से निराश एक मां की कहानी है।

सत्ता के खिलाफ मां

लाश हो चुकी माँ के पास

बिलखता बच्चा

क्या सोचता होगा?

माँ उठती क्यों नहीं

आज पुचकारती भी नहीं

मेरे रोने पर

सीने से लगाती भी नहीं

इतनी देर तक कभी सोई भी तो नहीं?

ज़रूर थक गई होगी

थक कर चूर हो गई होगी,

हाँ!

माँ थक गई होगी

निरंकुश सत्ता के आगे,

और चुप होकर

सो गई होगी गहरी निंद्रा में,

हाँ सचमुच!

माँ!

मुझे लेकर बहुत दूर तक चली थी,

भूख और प्यास भी लगी थी,

माँ!

बहुत देर तक रोई भी थी,

निकम्मी सत्ताधारी से निराश भी थी,

माँ घर ही तो जाना चाहती थी

क्या माँ बहुत दूर जाना चाहती थी?

मैं माँ की अकाल छाती से सटा था

तभी यह हादसा हुआ

और

महीनों से जगी माँ

सो गई

हमेशा के लिए

निर्दयी निरूपाय सत्ता के खिलाफ़

कवि अनामिका सिंह अना (Anamika Singh Ana) की कविता है- सत्ता की मेहराब। इसमें सत्ता का किसानों से व्यवहार का वर्णन है – कृषक हितों की बात छलावा, पूंजीवाद महान।

सत्ता की मेहराब

धरती का भगवान हुए क्यों

सपने लहूलुहान

नीति नियंता कभी न अफ़रे

जितने भी आए

तारणहार तुम्हारे हमने

छद्म गीत गाए

सत्ता की महराब, पीर क्या

समझें छप्पर छान

उचित मूल्य फ़सलों का हलधर

कब-कब हैं लाए

खड़ी फ़सल चौपाये चरते

पथ पर दोपाये

कृषि प्रधान है देश हमारा

भूखा मगर किसान

खेतों तक कब जन की सत्ता

आएगी चलकर

कृषक सुबकते, हाक़िम भरते

नित कुबेर का घर

कृषक हितों की बात छलावा

पूँजीवाद महान

प्रसिद्ध कवि देवी प्रसाद मिश्र (Devi Prasad Mishra) की एक कविता, सत्ता का विकेंद्रीकरण – हमारे देश की सत्ता का आइना है।

सत्ता का विकेंद्रीकरण

गृहमंत्री इस बात से ख़ुश थे कि पुलिस प्रमुख ने बहुत नावाजिब किस्म की क्रूरता दिखाई

जो इस बात से प्रसन्न था कि एस० पी० ने कम क्रूरता नहीं दिखाई

जो इस बात से ख़ुश था कि डी० एस० पी० ने अप्रतिम संवेदनहीनता दिखाई

जो इस बात से भरा-भरा था कि

इंस्पेक्टर ने शर्मिंदा कर देने वाला वहशीपन दिखाया

जो इस बात से मुतमइन था कि

सब इंस्पेक्टर ने दिल दहला देने वाली हिंसा का मुज़ाहिरा किया

जो कांस्टेबल की क्रूरता से अत्यन्त सन्तुष्ट था।

तो इस पहेली का जवाब मिलता दिख रहा है कि

चौराहे पर हिलते नामामूलम सिपाही में गृहमंत्रियों के चातुर्य

उनकी अपारदर्शिताएँ, आत्ममुग्धताएँ, दबंगई, क्रूरताएँ, मक्कारियाँ

एक साथ क्यों पाए जाते हैं।

इस आलेख के लेखक (writer of this article) की भी एक छोटी कविता है – सत्ता का इतिहास

सत्ता का इतिहास

एक ने पत्थर उठाया

दूसरे ने उसे नुकीला बनाया

तीसरे ने उसे आकार दिया

चौथे ने उसे उठाया

पांचवें ने उससे शिकार किया।

एक महिला ने उसे साफ़ किया

दूसरी ने उसे काटा

तीसरी ने चूल्हा जलाया

चौथी ने उसे पकाया

पांचवीं महिला ने उसे परोसा।

एक मवाली आया, सारा खाना लूट ले गया

वही अंत में कबीला सरदार बना

और, शेष उसके गुलाम|

यही परंपरा आज भी जारी है

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