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विमर्श

Nilotpal Mrinal Rape Case Controversy : डार्क हॉर्स- जो इतना तेज़ चला कि लड़खड़ाकर गिर पड़ा

Janjwar Desk
8 May 2022 9:15 AM GMT
Nilotpal Mrinal Rape Case Controversy : डार्क हॉर्स- जो इतना तेज़ चला कि लड़खड़ाकर गिर पड़ा
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साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल पर एक युवती ने लगाया 10 साल तक यौन शोषण का आरोप, दर्ज हुई एफआईआर

Nilotpal Mrinal Rape Case Controversy : नीलोत्पल शायद अपने ही मुखर्जी नगर में उस अंत को न ढूंढ पाएं, लेकिन बाकी साहित्यकारों को इसमें उनकी मदद ही करनी चाहिए, लेकिन फिलहाल साहित्यकारों की पूरी गैंग विमर्श से गायब, चुप्पी साधे है...

सौमित्र रॉय की टिप्पणी

Nilotpal Mrinal Rape Case Controversy : मातृ शक्ति को सम्मान देने के एक खास दिन यानी मदर्स डे की शुरुआत दुखद खबर से हुई है। नई पीढ़ी के चर्चित लेखक और साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल पर एक युवती ने 10 साल तक यौन शोषण का आरोप लगाया है।

इससे भी दुखद बात यह कि सोशल मीडिया पर सार्वजनिक आरोप लगाने और एफआईआर करने के बाद अब पीड़िता को ही ट्रोल किया जा रहा है। न सिर्फ मर्दवादी तबका, बल्कि महिलाएं भी बढ़-चढ़कर पीड़िता को ट्रोल कर रही हैं। खासकर यह सवाल बार-बार आ रहा है कि आखिर 10 साल बाद अब जाकर आरोप क्यों लगे?

प्रिया रमानी वि. एमजे अकबर के मामले में एडिशनल चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट रविन्द्र कुमार पांडेय ने 91 पन्नों के फैसले में साफ लिखा था- महिलाओं के पास दशकों बाद भी अपनी शिकायत को स्वेच्छा से किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर रखने का का अधिकार है। ट्रोल बिरादरी को पीड़िता के इस कानूनी हक़ का सम्मान करना चाहिए।

अभिव्यक्ति की कानूनी स्वतंत्रता में आजकल दो और बातें भी जायज़ हक बन गई हैं- ट्रोल करना और किसी भी मुद्दे पर जजमेंट सुना देना। समाज की यह निष्ठुरता न्याय की आस लिए बैठी पीड़िता की पीड़ा को हर क्षण बढ़ाकर हमेशा के लिए कलंक का एक ऐसा दाग बना देती है, जिसके लिए वह अकेली दोषी नहीं है।

डार्क हॉर्स की आस और आरोप

लेखक और साहित्यकार संवेदनशील प्राणी होते हैं। नीलोत्पल मृणाल "डार्क हॉर्स" उपन्यास के रचनाकार हैं। यह उपन्यास दिल्ली के मुखर्जी नगर में परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं के जीवन से जुड़ा है, जो कामयाबी के काले घोड़े की तलाश में हैं। नीलोत्पल पर आरोप लगाने वाली पीड़िता भी UPSC की तैयारी कर रही हैं। नीलोत्पल का उपन्यास उनके निजी जीवन और ताज़ा आरोप से जुड़ता है या पुलिस की जांच और अदालत की समीक्षा का विषय है, लेकिन इससे पहले ही ट्रोल जैसी हरकतें समाज में लगातार मज़बूत होती पितृसत्ता का परिचायक है।

16 साल में भी हालात नहीं बदले

दुनिया में मीटू आंदोलन 2006 में शुरू हुआ, लेकिन भारत की पितृसत्ता से इसे टकराने में 12 साल का लंबा वक्त लगा, जब अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने जाने-माने अभिनेता नाना पाटेकर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। उसके बाद लेखक चेतन भगत से लेकर मशहूर पत्रकार एमजे अकबर तक का नाम इस आंदोलन में आरोपियों के तौर पर सामने आया और हर मौके पर समाज की पितृसत्ता ने ऐसे आरोपों को इस कदर कड़ी चुनौती दी कि पीड़ित पक्ष को ही बार-बार अपने ज़ख्मों को कुरेदते हुए घाव दिखाने पड़े। बीते मार्च में सुप्रीम कोर्ट को सभी अदालतों से कहना पड़ा कि वे यौन उत्पीड़न के मामलों में समय से पहले जजमेंट या समझौते का दबाव नहीं बना सकते। खासकर रेप पीड़िता से राखी बंधवाने या शादी कर दोषमुक्त हो जाने जैसे सुझाव देकर। यानी व्यापक समाज के साथ ही अदालतों का रवैया भी मीटू के मामलों को लेकर उत्साहजनक नहीं रहा है। देश के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई का मामला जैसे-तैसे ही निपटाया गया। प्रिया रमानी के आरोपों से एमजे अकबर को बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था- "प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा गरिमा की कीमत पर नहीं की जा सकती।" लेकिन समाज ने इसे जल्दी ही भुला दिया।

डार्क हार्स के लेखक नीलोत्पल मृणाल पर UPSC की तैयारी कर रही पिछड़ी जाति की युवती ने लगाया 10 साल तक रेप का आरोप

बड़ी शख्सियतों पर ही आरोप क्यों?

और वह भी सोशल मीडिया पर? दरअसल, संविधान की नज़र में भले ही सब बराबर हैं, पर समाज का रसूखदार तबका धन, बल और संपर्कों के दम पर खुद को अभी भी एक संरक्षित प्रजाति समझता है। कानून भी ऐसे व्यक्ति की गिरेबां पकड़ने से पहले 10 बार सोचता है। लिहाजा, किसी अकेली महिला के लिए ऐसे शख्स पर यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज़ करना आसान नहीं होता। उसे समर्थकों की बड़ी ताकत चाहिए और वह उसे सोशल मीडिया पर अपनी बात रखकर ही मिल सकती है। नीलोत्पल के मामले में भी यही हुआ। लेकिन जैसा चलन 2018 से देखा गया है, लोग पक्ष और विपक्ष- दो खेमों में बंटकर नूराकुश्ती में उलझ गए हैं।

कहाँ छिपी है साहित्यकारों की गैंग?

डार्क हॉर्स में कई किरदार हैं और सभी की कहानियां बहुत तेज़ चलती हैं। आज की पीढ़ी को भी तेज़ चलना पसंद है, लेकिन इस तेज़ चाल के चक्कर में कई बार ठोकरें भी मिलती है और अक्सर कहानियां बिना सुखद अंत के खत्म भी हो जाती हैं। नीलोत्पल शायद अपने ही मुखर्जी नगर में उस अंत को न ढूंढ पाएं, लेकिन बाकी साहित्यकारों को इसमें उनकी मदद ही करनी चाहिए, लेकिन फिलहाल साहित्यकारों की पूरी गैंग विमर्श से गायब, चुप्पी साधे है। गोया किसी साज़िश की सुगबुगाहट हो।

ये साज़िशें कभी भी पूरा सच सामने नहीं आने देतीं और पीड़ित पक्ष पर पितृसत्ता अपने फायदे के लिए बदनाम करने की अंतिम कानूनी मुहर लगा देता है।

मंटो लिखकर चले गए-"मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी... मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है।"

लेकिन हमारे समाज को अभी तक कायदे का दर्ज़ी नहीं मिला।

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