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विमर्श

गीतकार शैलेंद्र का पुश्तैनी गांव अख्तियारपुर वाया फणीश्वरनाथ रेणु की तीसरी कसम

Janjwar Desk
30 Aug 2021 4:30 PM GMT
गीतकार शैलेंद्र का पुश्तैनी गांव अख्तियारपुर वाया फणीश्वरनाथ रेणु की तीसरी कसम
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शैलेन्द्र जीते जी जिस पुश्तैनी इलाके को नहीं भुला पाए और बच्चों के लिए डायरी में अपना पता ठिकाना छोड़ गए, दुर्भाग्य से उस बिहार ने अपने इस चमकते हीरे को सम्मान देकर आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बना कर नहीं रखा....

गीतकार शैलेंद्र के सफर को याद कर रहे वरिष्ठ लेखक यादवेन्द्र

जनज्वार। पटना लिटरेरी फेस्टिवल 2019 में शिरकत करने दुबई से जब अमला शैलेन्द्र मजुमदार पटना आयीं तो अपने साथ पिता की डायरी से वह पन्ना भी लेकर आयीं जिसपर शैलेन्द्र की हस्तलिपि में दादा, पिता का और गाँव का नाम लिखा हुआ था - अख्तियारपुर, आरा। अख्तियारपुर वैसे कोई अनूठा नाम नहीं है और इस नाम के गाँव बिहार के अलग अलग जिलों में होने की जानकारी हमें मिली। थोड़ा भ्रम इसलिए भी पैदा हो गया क्योंकि एक अख्तियारपुर आरा शहर के पास है, दूसरा रोहतास जिले में (पहले रोहतास जिला आरा का ही हिस्सा था जो बाद में अलग जिला बन गया)। सो, तत्कालीन आरा जिले में दो अख्तियारपुर गाँव सचमुच अस्तित्व में थे।

लिटरेरी फेस्टिवल के आयोजकों ने वैसे तो अमला जी को अख्तियारपुर जाने से मना किया पर उनकी इच्छा को देखते हुए हमने श्रीकांत और शिवानंद तिवारी जी, जो राज्यसभा सांसद और उस इलाके को अच्छी तरह से जानने वाले पूर्व विधायक और राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हैं, को साथ चलने का अनुरोध किया तो वे खुशी-खुशी राजी हो गए। आरा में कहानीकार मित्र नीरज सिंह भी हमारे साथ हो लिए। पर पटना से आधे रास्ते पहुँचकर यह दुविधा फिर से सामने आ खड़ी हुई कि हमें शैलेन्द्र जी के पुश्तैनी गाँव के लिए आरा शहर के पास के अख्तियारपुर में जाना है या वहाँ से ढाई तीन घंटे के फ़ासले पर रोहतास के अख्तियारपुर गाँव में जाना होगा।

बहरहाल यह तय किया गया कि पहले आरा वाले गाँव में चलते हैं, कुछ दिन बाद रोहतास वाले गाँव में जाकर पता करेंगे। हम अख्तियारपुर गाँव पहुँचे जहाँ शिवानंद जी ने कुछ लोगों को पहले से यह सूचना दे दी थी जो वहाँ पहुँचने पर हमें अख्तियारपुर के उस टोले में ले गए जहाँ शैलेन्द्र जी के पूर्वज रहते थे, हालाँकि उनको गाँव छोड़े हुए सौ साल से ज्यादा हो गए थे। आधी धुप आधी छाँव वाले बेहद तंग गलियों और फूस और खपरैल की झोपड़ियों वाले टोले में हम बैठे तो धीरे धीरे कई लोग आकर बात करने लगे।

एक सम्भ्रांत स्त्री (गाँव की बेटी) के आने से घरों के अंदर बंद औरतों की अमला जी को देख लेने की उत्सुकता परदे के अंदर होने के बाद भी जाहिर थी यद्यपि उनमें से किसी ने भी उनसे सीधी बात करने की पहल नहीं की - आगे आगे लोगों से बात करते शिवानंद जी, पीछे पीछे हम टोले के सबसे बुजुर्ग वासी के घर पहुँचे और शैलेन्द्र जी के दादा के बारे में बात करने लगे .....वे बुजुर्ग हालाँकि हाँ में सिर हिलाते रहे पर साफ़ लगता था स्मृतियों के तार उनके साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं - वजह बुढापे के चलते उनका स्मृतिलोप हो या फिर सौ साल से ज्यादा के अंतर को पाट न पाने की मजबूरी। देश दुनिया में लोगों के सिर चढ़ कर बोलने वाला शैलेन्द्र जी नाम गाँववालों को गर्व की अनुभूति तो करा रहा था और वे ज्यादा जानकारी जुटा कर इत्तिला करने की बात कह रहे थे पर आधे घंटे के लिए इस अख्तियारपुर जाकर हम शैलेन्द्र जी की जड़ों को तलाशने में कामयाब नहीं हो पाए यह सच है।

हर कोई अमला जी से उनका पता और फोन नंबर लेने को लालायित था और चलते चलते गाँव में अच्छी पक्की सड़क बनवा देने का आश्वासन भी - सफलता असफलता के बोध के बीच अमला जी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव दिखे तो हमें तसल्ली हुई। जल्दी जल्दी में पटना लौटते हुए एक कसक मन में बनी रही कि लोगों के आग्रह के बाद भी हम एक ग्लास पानी पिए बगैर वहाँ से लौट आये।

पटना के समाजविज्ञानी मित्र श्रीकांत ने जैसे ही पूर्णिया चलने का प्रस्ताव रखा मैंने फौरन हामी भर दी , वैसे भी कभी उत्तर में मुजफ्फरपुर से आगे गया नहीं था और फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं की माटी, नदी और पेड़ पौधे छूने देखने की पुरानी इच्छा जाग गयी।युवावस्था में दरअसल किसी लेखक के जिस कथा संकलन ने मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी थी वह रेणु की "ठुमरी" था - उपन्यासों का कथा वितान बहुत बड़ा होता है सो किशोर वय के लिए उनकी बात थोड़ी बोझिल है। सीमित शब्दों में भिन्न भिन्न कहानियों के माध्यम से एक पूरा भौगोलिक और भावनात्मक संसार रच देना आसान नहीं है।

किसी सांस्कृतिक तौर पर सजग परिवार में जाहिर है किशोर वय प्रेमचंद की कहानियों की पंखुड़ियाँ खुलने के साथ परिभाषित होती है - मेरे साथ भी यही हुआ। घर में "मानसरोवर" के आठों खंड थे सो उनकी कहानियों को मानक मानते हुए साहित्यिक कथा संसार से परिचय हुआ पर उनमें शामिल कहानियों की बड़ी संख्या 'डराती' थी और सीधी सरल भाषा कुछ कुछ स्कूली पढ़ाई जैसी मालूम होती थी। इनके अलावा अम्मा कीलाइब्रेरी में रबीन्द्र नाथ ठाकुर ,शरत चंद्र ,बंकिम चंद्र और बिमल मित्र सरीखे बड़े लेखक थे जो किशोर वय में ज्ञान विस्तार के नए द्वार तो खोलते थे पर खिलंदड़पन के साथ गुदगुदी कम कर पाते थे - कुछ नया और एकदम नया देखने सुनने की अकुलाहट बढ़ती जाती थी .... मेरा किशोर मन सिनेमा जैसी शब्दावली ढूँढ़ रहा था जिसमें हर पल कहीं कुछ नया होता रहे। रेणु से उन्हीं दिनों पाठक के रूप में मुलाकात हुई .... सो उनकी दुनिया में प्रवेश पाते ही मन खिल उठा।

पूर्णिया अररिया जाने का सबब बनते ही जिस बात ने मेरे मन के अंदर सबसे ज्यादा जोर मारा वह रेणु के गाँव जाने का स्वर्णिम अवसर था। दरभंगा से आगे निकलने पर राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर मीलों दूर तक पकते धान के खेत ,पोखर ,बँसवाड़ी और कोसी नदी और उसके कछार और तटबंध दिख रहे थे ..... पर गाँव बहुत कम और आबादी विरल। गाँवों में जो घर दीखते थे उनमें बहुतायद फूस और बाँस के बने हुए थे - पक्के मकान बहुत कम। चौड़े राजमार्ग के किनारे एक जगह हमें 'रेणु ग्राम' लिखा दिखा तो हम आह्लादित होकर अंदर की सड़क पर उतर आये। पर वह सड़क नाम को डामर वाली पक्की सड़क थी, बड़े बड़े गड्ढे इतनी संख्या में थे कि सारी ख़ुशी मिनट भर में काफूर हो गयी।

आवाजाही बहुत कम ,जो थे भी उनमें मोटरबाइक का बड़ा हिस्सा - हीरामन की बैलगाड़ी तो अब स्मृतियों में रह गयी। 'ठुमरी' की कहानियों में कभी मोटरबाइक या कार की चर्चा नहीं मिली - वैसे मेरे मन के इस आग्रह का कोई आधार नहीं था....पर मेरा जिद्दी मन था कि रेणु के गाँव के नाम पर ठेस,तीसरी कसम,रसप्रिया,लाल पान की बेगम,पंचलाइट और सिरीपंचमी का शगुन के चलते फिरते किरदारों के घर और शक्लें साठ साल बाद भी ढूँढ़ रहा था।

बीच में एक छोटा सा बाजार पड़ा और वहाँ भी हमें रेणु द्वार दिखा। धान के खेतों के बाद मूँगफली और आलू के हरे भरे खेतों और खूब घुमावदार रास्तों से होते हुए हम 'औराही हिंगना' गाँव में पहुँचे - वहाँ जब हमारे ड्राइवर ने विधायक जी का घर पूछा ( रेणु जी के बड़े बेटे पराग पद्मराय वेणु एक टर्म के लिए विधायक रह चुके हैं पर अब सदन में नहीं हैं ) तो मुझे अचरज भरा गुस्सा आया - रेणु जी के नाम से दुनिया में मशहूर गाँव में उनका घर क्यों नहीं पूछा ? घुमावदार रास्तों और बाँस के सघन झुंडों के बीच बसे ज्यादातर कच्चे घरों वाले गाँव के बीचों बीच हमें गुलाबी रंग का एक नया बना पक्का दुमंजिला दिखाई दिया - यह राज्य सरकार द्वारा निर्मित 'रेणु स्मृति भवन' है जो लोगों के बताए अनुसार दो साल पहले से बन कर ताला बंद पड़ा है और इसके अंदर संग्रहालय के अलावा रेणु अध्येताओं के ठहरने की जगह भी बताई गयी।

रेणु जी के बेटे दक्षिणेश्वर पप्पू ने बताया पिछले कुछ वर्षों में राज्य के मुख्यमंत्री पाँच बार गाँव में आये पर भवन आबाद नहीं हुआ। रेणु जी के घर पहुँचते ही हमें ख़ास तरह ही सुघड़ कलात्मकता के दर्शन हुए - ऐसा लगा जैसे उनके शब्दों जैसी खानदानी सुरुचि यहाँ घर दुआर में संरक्षित है और आधुनिक हस्तक्षेप बहुत कम हुआ है।

बाहर फूस और बाँस का बना दालान बीसियों लोगों को एकसाथ आमने सामने बिठा सकने में सक्षम - रेणु जी का सम्पूर्ण साहित्य जिस सामाजिक सरोकार की भीत पर खड़ा है उसका साक्षात प्रतिरूप और बाद में बेटे पराग राय की राजनीति का केन्द्र भी। पराग जी के साथ उनके छोटे भाई पप्पू जी और भतीजे आँगन पार कर के हमें घर के अंदर ले गए - आँगन में मूँगफली के पौधे और बकरियों की सहज उपस्थिति बहुत नॉस्टैल्जिक थी।जिस प्रशस्त आँगन में 'तीसरी कसम' फ़िल्म की शुरुआत में गोबर से लिपी फ़र्श बुहारते हुए रेणु जी की पत्नी दिखाई देती हैं हम उसको पार कर के जब रेणु जी की कोठरी में गए तो मन तन एकदम से सिहर उठा,कितने आख्यान और चरित्र वहाँ बैठ कर गढ़े गए हैं....भारत ही क्या नेपाल की राजनीति में क्रांतिकारी बदलाव करने वालो कितनी रणनीतियाँ बनाई गई हैं इस कोठरी में। दीवार पर टंगे आठ दस फ्रेम में रेणु और उनकी दोनों जीवन संगिनियाँ उपस्थित थी.....'ठुमरी' संकलन की आधार उक्ति "मैंने तेरे लिए कितनों के बोल सहे" का एक बड़ा पर बदरंग पोस्टर भी टंगा हुआ दिखा।

जब हमने रेणु जी की हस्तलिपि या डायरी देखने की बाबत कहा तो जवाब मिला - वह सब तो पटना में रखा हुआ है - मालूम नहीं सचमुच ऐसा था या न दिखाने का बहाना।बिहार के मुख्यमंत्री भी उस आन्दोलन की उपज हैं जिसमें फणीश्वर नाथ रेणु ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा ही नहीं लिया था बल्कि विरोधस्वरूप पद्मश्री और सरकारी वृत्ति भी लौटा दी थी, वे खुद को समाजवादी भी मानते हैं इसलिए रेणु जैसे लेखक की स्मृति को सम्मानजनक ढंग से संरक्षित रखने की उम्मीद उनसे की जाना स्वाभाविक है। सरकारी भवन बना कर ताला बंद किये रहने का औचित्य हमें समझ नहीं आया।

सरकार यदि न भी ध्यान दे (यह जगजाहिर है कि जातियों के समीकरण बिहार के सरकारी फैसलों में सर्वोपरि होते हैं) तब भी रेणु परिवार को महान लेखक की वस्तुओं को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में बेहतर ढंग से संजो कर एक जगह रखना चाहिए - पटना की बजाय औराही हिंगना में उनको बचा कर रखना ज्यादा सार्थक होगा।"तीसरी कसम" में हीराबाई का हीरामन से यह कहना - तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या? - अनायास या निष्प्रयोजन नहीं है। अजीब लगा कि दक्षिणेश्वर पप्पू बार बार अपने घर की ध्वस्त होती चहारदीवारी दिखा कर सरकार द्वारा उसको बना देने की गुजारिश करते रहे। कहानी की बात - हीराबाई चली गयी, मेला अब टूटेगा ..... अब मेले में क्या धरा है, खोखला मेला - इस धरती को सचमुच विषबुझे तीर की तरह लग गयी।

घर के बाहर रेणु जी की बेहतरीन कहानी 'पंचलाइट' पर बनी प्रेम प्रकाश मोदी की नई फिल्म का अधफटा पोस्टर चिपका देख कर मैंने पूछा - इस फ़िल्म की शूटिंग क्या इस इलाके में हुई है? पप्पू ने बताया , मोदी जी ने हमसे फिल्म बनाने के अधिकार तो लिए पर सारी शूटिंग झारखंड में की और झारखंड सरकार ने इसको करमुक्त भी कर दिया है - पर बिहार सरकार ने कुछ नहीं किया। औराही हिंगना में रेणु जी के परिजनों से बात करते हुए मैंने पूछा कि रेणु की रचनाओं में यह इलाका जिस तरह से चित्रित हुआ है उस में और अब में क्या फर्क आया है तो उन्होंने बताया

कि बार-बार उन की रचना में मेलों का(फारबिसगंज मेला,चंपानगर मेला,बनैली मेला,कमलबाग़ मेला इत्यादि) का जिक्र होता है - गुलाब बाग का मेला इस अंचल का बहुत मशहूर मेला हुआ करता था - लेकिन उनको उजड़े अब जमाना हो गया। मुझे रेणु की कहानियों में बार-बार बैलगाड़ी का आना चाहे जीविका के लिए हो या कहीं आने जाने के लिए हो याद आता रहा। 'लाल पान की बेगम' में यह एक उत्सव की तरह उपस्थित है पर इस यात्रा में बैलगाड़ी पर नजर बिल्कुल नहीं पड़ी।इस इलाके में हम तीन दिनों तक रहे और गाँवों के अंदर जाते रहे लेकिन हमें न तो गाँव में न शहर में एक भी बैलगाड़ी दिखी।हाँ, बाँस और मूँज प्रचुर मात्रा में अब भी वहाँ उपलब्ध हैं...पटसन की खेती वैकल्पिक चीजों के आ जाने के चलते वैसे ही उजड़ गयी जैसे नील की खेती। वैसे पटसन की डंठल के गुच्छों के ऊपर गोबर लपेट कर इंधन के ढेर हर जगह दिखाई दिए - कुछ दशक पहले पटसन इस इलाके की मुख्य नकदी फसल हुआ करती थी।लोगों ने बताया अब मूंगफली वहाँ की मुख्य नकदी फसल हो गयी है।

अब भी आधुनिक औद्योगिक विकास से अछूता यह अंचल बेहद हरा भरा है - कोसी की बाढ़ से कमोबेश मुक्ति मिल गयी है पर जमीन में पर्याप्त नमी रहती है। कोसी के अलावा कजरी ,परमार सरीखी नदियाँ हरियाली को बनाए रखती हैं। यह अनायास नहीं है कि रेणु जी अपनी कहानियों में इस हरे भरे अंचल में रहने वाली किसिम किसिम की चिड़ियों - कूखनी, कोयल, पंडुक, महोक इत्यादि की बात करते हैं। यह इलाका किसी जमाने में बड़े जमींदारों के आतंक का रहा है पर गरीब किसानों के जीवन में अत्याचार था तो उसको काटने वाले मेले , नौटंकी , लोक संगीत( बिदापत, रसप्रिया, बिरहा, चांचर, लगनी, बारहमासा, निरगुन इत्यादि ) भी कम नहीं थे - रेणु के कथा साहित्य में उनकी उपस्थिति बड़ी प्रचुर है।

यह महज संयोग नहीं है जब शैलेन्द्र स्थापित गीतकार हो गए और उन्हें हिंदी सिनेमा में टिके रहने का अपने आप पर भरोसा हो गया तब उन्होंने अपने मन का एक काम करने की ठानी - उनको शुरू से अपनी तरह से एक फिल्म बनाने की इच्छा थी जिसमें किसी भी तरह का बाहरी दखल और दबाव न हो। जब ऐसा मौका आया और उन्हें 1960 के आसपास रेणु जी की कहानी "मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम" पढ़ने को मिली तो उनका दिल इस कहानी पर आ गया हालाँकि राज कपूर के मित्र से फिल्म निर्माण का खतरा मोल लेने से मना करने की बात बार बार कही जाती है।

यदि शैलेन्द्र का खानदानी इतिहास देखें तो आज से 100 साल से भी ज्यादा हो गए जब उनके दादा बिहार के अपने पुश्तैनी गांव से उखड़ कर बाहर चले गए थे। उनका जन्म भी रावलपिंडी में हुआ, मुरी की सैनिक छावनी में बचपन बीता (अब यह दोनों पाकिस्तान में हैं) और फिर मथुरा उसके बाद मुम्बई..... देखा जाए तो शैलेंद्र का बिहार से उस तरह का कोई भौतिक या जैविक संपर्क नहीं रहा था लेकिन पुश्तैनी भूमि से भावनात्मक जुड़ाव ऐसा था कि पहली फिल्म बनाने के लिए कहानी भी बिहारी परिवेश की ही चुनी - हजारों समकालीन कहानियों में से रेणु की कहानी का चुनाव ही इसकी गवाही देता है ।

मैंने बार बार जानकारों से सुना कि लगभग अनुपस्थित रहते हुए भी तकनीकी तौर पर फिल्म के निर्देशन का क्रेडिट बासु भट्टाचार्य के खाते में गया और राष्ट्रपति का सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी उन्हें ही मिला पर मेरे मन में यह जिज्ञासा बनी रही कि तब फ़िल्म का निर्देशन आखिर किया किसने।इस सिलसिले में जब मैंने अमला जी से बात की तो उनका कहना था कि वास्तव में इस फिल्म का निर्देशन शैलेंद्र, रेणु,नबेंदु घोष(पटकथाकार) ,सुब्रत मित्र(सिनेमेटोग्राफर) और राज कपूर ने मिलकर किया ...और अंत होते होते फिल्म पूरा करने का सारा बोझ शैलेन्द्र पर आन पड़ा था।

इन सब में फिल्म से सबसे ज्यादा गहन रूप से जुड़े हुए शैलेन्द्र, रेणु और राज कपूर लगभग हमउम्र थे। दो-तीन साल का फर्क एक दूसरे में था इसलिए इनकी सोच एक पीढ़ी की सोच थी, आजादी के बाद देखे स्वप्न और धीरे-धीरे उनका टूटना लगभग एक समान था। नबेन्दु घोष इनमें सबसे बड़े थे, शैलेंद्र से छह-सात साल बड़े और सत्यजित राय की विश्व प्रसिद्ध फिल्मों के छायाकार सुब्रत सबसे छोटे थे, शैलेंद्र से करीब 7 साल छोटे। इन लोगों की टीम ने सामूहिक रूप में जिस तरह इस कहानी को विकसित किया वह अपने आप में भारत के सांस्कृतिक इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।ख़ास बात है कि बिहारी गाँव की महक, बोली, संगीत, परिवेश, लोक आख्यान, वेशभूषा,नदी, झोंपड़ी और बैलगाड़ी इत्यादि की जो छवियाँ "तीसरी कसम" में देखने में आती हैं वैसी हिंदी सिनेमा में बिरले उदाहरण हैं।

शैलेन्द्र जीते जी जिस पुश्तैनी इलाके को नहीं भुला पाए और बच्चों के लिए डायरी में अपना पता ठिकाना छोड़ गए, दुर्भाग्य से उस बिहार ने अपने इस चमकते हीरे को सम्मान देकर आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बना कर नहीं रखा।

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