Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

पतंग उड़ती भी है, कटती भी है | Some Hindi Poems on the Kites |

Janjwar Desk
6 Feb 2022 2:28 PM IST
पतंग उड़ती भी है, कटती भी है | Some Hindi Poems on the Kites |
x

पतंग उड़ती भी है, कटती भी है | Some Hindi Poems on the Kites |

Some Hindi Poems on the Kites | आसमान में उड़ते पंछियों को देखकर किसी ने पतंग का आविष्कार किया होगा| पतंग के आविष्कारक को भी पहली बार उड़ती पतंग को देखकर उतनी की खुशी हुई होगी, जितनी राईट बंधुओं को अपने पहले उड़ाते वायुयान को देखकर हुई होगी|

महेंद्र पाण्डेय की कविता

Some Hindi Poems on the Kites | आसमान में उड़ते पंछियों को देखकर किसी ने पतंग का आविष्कार किया होगा| पतंग के आविष्कारक को भी पहली बार उड़ती पतंग को देखकर उतनी की खुशी हुई होगी, जितनी राईट बंधुओं को अपने पहले उड़ाते वायुयान को देखकर हुई होगी| पतंग कितनी भी ऊंची उड़ ले, कितनी भी हवा में लहरा ले – पर उसकी बागडोर उड़ाने वाले हाथों में ही रहती है| यही आज का पूंजीवाद है, श्रमिकों को जब आजादी का अहसास होता है ठीक तभी उसकी सुविधाओं को काटकर धराशाई कर दिया जाता है, और उसे लूट लिया जाता है| पतंग एक मनोवैज्ञानिक विषय भी है, जिसने समाज को दो वर्गों में बांटा है|

चन्द लोग हवा में लहराती और अठखेलियाँ करती पतंग को देर तक देखकर खुश होते है, जब कोई और पतंग उसका पीछा करती है तो दर जाते हैं| समाज का एक बड़ा वर्ग पतंगों के उड़ने पर खुश नहीं होता बल्कि उनके कटने पर खुश होता है, कटी पतंग के पीछे दौड़ते हुजूम को देखकर अधिक खुश होता है और पतंग लूटने के चक्कर में जब भीड़ पतंग के चीथड़े कर देता है तब सबसे अधिक खुश होता है| आप गौर कीजिये, क्या हमारा समाज ऐसा नहीं है – केवल पतंग के सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि सभी मामलों में समाज किसी को लूटने और चीथड़े करने पर ही सबसे अधिक खुश रहता है| मनोज श्रीवास्तव की कविता पतंग पर्व में पतंग उड़ाने का सजीव चित्रण है और यह कविता शुद्ध तौर पर पतंग के लिए ही लिखी गयी है|

पतंग पर्व/मनोज श्रीवास्तव

पतंग जूझती हैं

हवाई थपेड़ों से,

हमारी खुशियों की

गठरी लादे हुए

अपनी धागाई पीठ पर

पतंग बतियाती है

पंछियों से,

किसी गुप्त भाषा में

और हमारी दीवानगी की

खूब उड़ाती है खिल्लियां,

गुरूर-गुमान से

घुमाती हुई अपना सिर

इधर से उधर

देखती है

असीम आसमान

बहुत पास से,

बादलों की ओट में

लुकती-छिपती

फीके चांद पर

सिर रख

शेखी बघारती है

गहरी नींद में

सो जाने की

और हमें

अपनी ओझलता से

तरसाने की

लुभाती-ललचाती है,

चिढ़ाती-चिलबिलाती है

मचल-मचल,

छपाक-छपाक उछल

सुदूर नभीय झील में

कि आओ!

अथक उड़ो

और छा जाओ,

छू लो हमें स्वच्छन्द

कलाबाजियां मारते हुए

दिशाहीन दिशाओं में,

छूट जाओ

धराजन्य बन्धनों से

क्षितिजीय सीमाओं से

हम आंखें फोड़ लेते हैं

उन्हें एकटक

देखते-देखते

और तब, वे टरटराती है

जैसे सावनी ताल-तलैयों के

दादुरी झुण्ड,

जैसे जम्हाती संध्या में

झींगुरों की झन-झन

खिलन्दड़ी पतंग

नहीं उतरती है खरी

हमारी डुबडुबाती

भावनाओं पर,

खूब लड़ती-झगड़ती है

अपनी दुश्मन पतंगों से,

छल-युद्ध करके

कभी मैदान छोड़

भागने का बहाना बना करके

फिर, वापस टूट पड़ती है

अपने प्रतिद्वन्द्वी पर।

उद्भ्रांत ने अपनी कविता, पतंग, में बचपन के पतंग उड़ाने की यादों को ताजा करते हुए बड़ी शालीनता से भारत, पाकिस्तान और अमेरिका के आपसी संबंधों का खूलासा किया है|

पतंग/उद्भ्रान्त

आधे से अधिक जीवन

कानपुर में बिताते हुए

पतंगबाजी

ख़ूब मैंने देखी थी

नवाबों के शहर

लखनऊ में भी

बचपन में

स्वयं भी

दादी से पैसे ले

बाज़ार से पतंगें

रंग-बिरंगी ख़रीदता

चरखी, डोरी, मंझा ले

घर की छत पर पहुँचकर

लेता आनंद

पतंगबाजी का!

ऊँची उड़ती पतंग तो

मन भी ऊँचा उड़ता

पेंच लड़ाने में

नहीं माहिर था,

ज़्यादातर मेरी ही पतंग

काट दी जाती

और मैं

रुआँसा हो जाता

कभी-कभी

ऐसा भी सुखद पल आता

जब धोखे से या

विपक्षी की गलती से या

मंझे के पैनेपन से

पतंग दूसरे की कट जाती

तो दिल मेरा ख़ुशी से भर

उछल जाता बल्लियों

पतंग लूटने का नहीं

मुझे शौक था लेकिन

कभी-कभी दूसरी पतंगें

कटकर आ जाती थीं

छत पर

और मैं आनन्दित हो

उन्हें भी उड़ाता था!

इन दिनों

मैं देखता हूँ

भारत और पाकिस्तान

अपनी-अपनी पतंगें उड़ाते हैं

दोनों की ही

कोशिश होती यह --

दूसरे की

राजनीति की पतंग

कट जाए

मिल जाए उन्हें

आसमान काश्मीर का

समूचा ही!

गोकि

इस समय

सबसे ऊँची उड़ती पतंग

अमरीका की

और ये दोनों भाई

इस प्रयास में रहते --

अमरीका

अपनी पतंग से उनकी

काट दे पतंग

ताकि परोक्ष में ही सही

उनकी तरफ़ झुके

शक्ति का समीकरण

और दूसरा भाई

उससे ईर्ष्या करे!

प्रकट है

जिस भाई की कटेगी पतंग

वही अपने आपको

समझने लगेगा बड़े गर्व से भर

अमरीकी सल्तनत का

वजीरे-आज़म!

इस तरह

पतंगबाजी को

मिलेगी प्रतिष्ठा

अन्तरराष्ट्रीय स्तर की!

पतंग और माँझे के कवि मुकेश निर्विकार हैं| पतंग पर बहुत कुछ लिखा गया है पर पतंग की डोर, यानि मांझा हमेशा उपेक्षित ही रहता है, पर इस कविता के अंत की पंक्तियाँ माँझे को ही समर्पित हैं|

पतंग और माँझे/मुकेश निर्विकार

ऊपर

आसमान में

ऊँचे

और ऊँचे

उड़ाने को बेताब हैं

पतंगे

नीचे धरती पर

पीछे

और पीछे

खिंच रहे हैं

माँझे

फड़फड़ाकर

आ ही गिरेंगी

देर-सवेर

धरती पर

तमाम पतंगे

आसमान की

खुद में चुपचाप

सिमट जाएगे मांझे

कतई बेअसर.....

बिलकुल अंजान......

एकदम खामोश

एक बार फिर से

छुप जाएँगे सारे अपराध

खामोशियों में!

मृदुल कीर्ति की कविता, कटी पतंग, पढ़कर सहसा कटी हुई पतंग को देखने के बाद उसकी तुलना नारी से करने को बाध्य हना ही पड़ता है|

कटी पतंग/मृदुल कीर्ति

एक पतंग नीले आकाश में उड़ती हुई

मेरे कमरे के ठीक सामने

खिड़की से दिखता एक पेड़

अचानक एक पतंग कट कर

अटक गयी।

नीचे कितने ही लूटने वाले आ गए

क्योंकि

पतंग की किस्मत है

कभी कट जाना

कभी लुट जाना

कभी उलझ जाना

कभी नुच जाना

कभी बच जाना

कभी छिन जाना

कभी सूखी टहनियों

पर लटक जाना।

टूट कर गिरी तो झपट कर

तार-तार कर देना।

हर हाल में लालची निगाहें

मेरा पीछा करती है।

कहीं मैं नारी तो नहीं?

इस लेख के लेखक की कविता, मौत से पहले की उड़ान, में हवा में कटी पतंग जो इठलाती और लहराती लगभग नृत्य करती नीचे जमीन पर गिरती है और फिर जिसे लूटने की होड़ मचती है – उसकी तुलना महिलाओं की तथाकथित आजादी से की गयी है|

मौत से पहले की उड़ान/महेंद्र पाण्डेय

कहीं पढ़ा था

पतंग हवा में उड़ती, लहराती

आजादी का प्रतीक है

पर, डोर से बंधी

उड़ाने वाले के इशारे पर नाचती

ये कैसी आजादी?

यही परंपरा है, मर्यादा है

स्त्री डोर से बंधी, इशारों पर नाचती

पतंग भी तो स्त्री है

पतंग कटती है, लूटी जाती है

पक्षी डोर से नहीं बंधते, उड़ते हैं आजाद

अपने पंखों के बल पर

पक्षी पुरुष जो हैं

पतंग कटने के बाद, धागे से छूटती है

और जमीन पर गिरने से पहले

हवा में इतराती है, बल खाती है

दूर तक जाती है

मानो, जी लेना चाहती है हर पल

उसे मालूम है, गिरना है लूटने वाले कई हाथों में

Janjwar Desk

Janjwar Desk

    Next Story

    विविध