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विमर्श

शायद कभी न भर पाए रघुवंश बाबू के जाने के बाद राजनीति का खालीपन

Janjwar Desk
13 Sep 2020 2:17 PM GMT
शायद कभी न भर पाए रघुवंश बाबू के जाने के बाद राजनीति का खालीपन
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रघुवंश प्रसाद सिंह (File photo)

उनकी विचारधारा अपनी शर्तों पर जीनेवाले और सिद्धांतों से समझौता न कर गरीब-गुरबों की आवाज उठाने वाली वह बिहारी विचारधारा थी, जिसमें सादगी थी, काम के प्रति जुनून था और गांव-देहात के लोगों के जीवन की मुश्किलों को आसान करने वाले समाचीन विकास की ललक थी....

राजेश पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का निधन हो गया है। वैसे तो यह बात एक पंक्ति में सिमट जा रही है, पर उनका निधन एक व्यक्ति का नहीं, वरन एक विचारधारा का अंत है। एक ऐसी विचारधारा का, जो न तो खांटी समाजवादी था, न खांटी राजनेता का।

यह विचारधारा अपनी शर्तों पर जीनेवाले और सिद्धांतों से समझौता न कर गरीब-गुरबों की आवाज उठाने वाली वह बिहारी विचारधारा थी, जिसमें सादगी थी, काम के प्रति जुनून था और गांव-देहात के लोगों के जीवन की मुश्किलों को आसान करने वाले समाचीन विकास की ललक थी।

यूं तो रघुवंश बाबू के बारे में लिखने को एक पुस्तक भी कम पड़ जाए। कहा जाता है कि उन्होंने जनसमस्याओं को लेकर जितनी चिट्ठियां समय-समय पर लिखीं हैं, उन्हें ही संग्रहित कर दिया जाय, तो कई पुस्तकें तैयार हो सकती हैं। उनकी चिट्ठियों को भावी राजनीतिक पीढ़ियों के लिए राजनीतिक ग्रन्थ ही कहा जा सकता है।

उनकी सादगी, बड़े पदों पर रहने के बावजूद आत्मीय व्यवहार, बिना पूर्व परिचय के भी ऐसे मिलना, जैसे काफी पुराना परिचय हो, किसी को भी मुरीद बना सकता था। आंकड़े उन्हें जुबानी याद रहते थे। क्षेत्र की समझ अतुल्य थी। खासकर गांव-देहात की समस्याओं की उन जैसी समझ अन्य राजनेताओं में विरले ही देखने को मिलती है।कहा जाता है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री रहने के दौरान उनके पास एक-एक गांव के विकास योजनाओं का ताना-बाना रहता था।

छपरा के सर्किट हाउस में एक बार उनका इंटरव्यू करने का मौका मिला था। एक दशक से ज्यादा पुरानी बात है। उस वक्त मोबाइल फोन का उतना ज्यादा प्रचलन नहीं था। वे पार्टी के किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आए थे। बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व अप्वायमेंट के बावजूद उन्होंने तुरंत उस कमरे में बुलवा लिया, जिसमें वे ठहरे हुए थे।

ठेठ बिहारी अंदाज वाला चावल-दाल, चोखा और भुजिया उनके सामने रख था। वे भोजन कर रहे थे और उसी बीच बुलवा लिया था। उन्होंने मुझे भी भोजन का आमंत्रण दिया और खिलाया। फिर लगभग डेढ़ घँटे हर विषय पर बातें की। बाहर छोटे-बड़े कार्यकर्ता-नेताओं का जमघट लगा था, जो इस लंबी बातचीत से थोड़े खिन्न भी हो रब थे, पर वे बातों में इतने मशगूल हो गए थे कि संभवतः उन्हें इस बात का आभास भी नहीं हो रहा था। कोई-कोई नेता कमरे के दरवाजे का पर्दा हटाकर यह सिग्नल भी दे रहा था कि ज्यादा देर हो रही है।

रघुवंश सिंह पहली बार साल 1977 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बनकर सदन में पहुंचे थे। उस वक्त वे बेलसंड विधानसभा क्षेत्र से जीते थे।

उसके बाद वे बिहार सरकार में मंत्री भी बने। साल 1977 से 1979 तक तत्कालीन सरकार में वे विद्युत मंत्रालय के मंत्री रहे। उसके बाद 1995 में तत्कालीन लालू प्रसाद की सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे। इस बीच वे साल 1990 में विधान परिषद के सदस्य बने और बिहार विधान परिषद के डिप्टी स्पीकर रहे।

साल 1996 में वे पहली बार लोकसभा सांसद बने थे और उसके बाद वे 5 दफा सांसद रहे। केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकारों में वे एक बार राज्यमंत्री और एक बार कैबिनेट मंत्री रहे। साल 1996 में वे केंद्रीय पशुपालन राज्यमंत्री और 1997 में वे खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के कैबिनेट मंत्री बने थे।

रघुवंश बाबू इस पीढ़ी के उन गिने-चुने नेताओं में थे जिन्हें सामाजिक सरोकारों की समझ थी। वे आम कार्यकर्ता से भी उसी गर्मजोशी से मिलते थे, जैसे बड़े नेताओं से मिला करते थे।

उनके निधन से राजनीति में जो खालीपन हुआ है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। क्या यह खालीपन भरेगा? या राजनीति के इस दौर में उनकी छोड़ी जगह यूं ही रिक्त रह जाएगी?


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