भारतीय राजनीति में नेहरू को किसान आन्दोलन ने स्थापित किया !
(यह कांग्रेसियों की बुनियादी नीति थी। कांग्रेसी सदा जन आंदोलन को स्वराज के रास्ते की बाधा बताते थे और अपनी गुप्त नीति के कारण ही वे जन आंदोलनों से भयभीत रहते थे)
वरिष्ठ लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा का विश्लेषण
जनज्वार। अवध किसान विद्रोह, स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की पहली गंवई पाठशाला थी जिसने उन्हें भूख, गरीबी, बदहाली से साक्षात्कार कराया था। उन्हें भारत को समझने और समझाने का अवसर प्रदान किया। जवाहरलाल नेहरू ने जितना अवध किसान आंदोलन को दिया नहीं, उससे कहीं ज्यादा, अपने लिए ग्रहण किया।
अपनी राजनैतिक पकड़ को मजबूत बनाया और स्वयं को एक वैचारिक रूप से प्रतिस्थापित प्रधानमंत्री के पद तक ले जाने में सफल हुए। आज भी उसी साक्षात्कार के बल पर रायबरेली लोकसभा क्षेत्र, नेहरू खानदान से जुड़ा हुआ है।
जून 1920 के बाद नेहरू ने कई बार इन क्षेत्रों का दौरा किया और इलाहाबाद से निकलने वाले कांग्रेसी अखबार 'इंडिपेंडेंट' में किसान समस्याओं पर लेख लिखे।
इसी बीच कौंसिल चुनाव में शामिल होने या बहिष्कार करने के प्रश्न पर कांग्रेस में फूट पड़ गई। मालवीय जी गुट चुनाव के पक्ष में था वहीं नेहरू गुट उसके बहिष्कार के। इसी कारण नेहरू गुट ने प्रतापगढ़ और रायबरेली जिले में झिंगुरी सिंह और बाद में बाबा रामचन्द्र द्वारा शुरू किए रूरे किसान सभा आंदोलन को जल्द से जल्द अपने पाले में लाने की कोशिश शुरू की थी।
किसानों के बीच पैठ बनाने के पीछे मोतीलाल नेहरू की मंशा यह थी कि अपने बेटे, जवाहरलाल नेहरू को आने वाले चुनाव में प्रभावशाली बनायें यद्यपि बाद में उनके गुट द्वारा चुनाव बॉयकाट का निर्णय लिया गया।
विभिन्न गांवों में गठित किसान सभाओं को संगठित कर गौरी शंकर मिश्र, नेहरू, माताबदल पांडेय और रामचन्द्र ने 17 अक्टूबर 1920 को रूरे किसान सभा का नाम 'अवध किसान सभा' कर दिया। इसमें किसान सभा वाले पांच गांवों के पांच पंचों ने भाग लिया। इस एकता के गवाह प्रतापगढ़ के डिप्टी कमिश्नर मेहता भी थे। इस प्रकार अवध किसान सभा का गठन, मदन मोहन मालवीय के संयुक्त प्रांत किसान सभा के विरोध में किया गया था।
मदन मोहन मालवीय असहयोग आंदोलन का विरोध कर रहे थे, इसलिए मोतीलाल नेहरू, मालवीय को पछाड़ने के लिए सक्रिय थे। वास्तव में असहयोग आंदोलनकारी अक्टूबर 1920 से कोशिश कर रहे थे कि संयुक्त प्रांत किसान सभा, असहयोग आंदोलन की एक इकाई के रूप में कार्य करे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। असहयोग आंदोलन के प्रश्न पर उपजा आपसी विरोध ही संयुक्त प्रांत किसान सभा से अलग अवध किसान सभा गठन का कारण बना।
संयुक्त प्रांत किसान सभा की एक मीटिंग 7 फरवरी, 1921 को इलाहाबाद में तय थी। यू.पी. कांग्रेस कमेटी चाहती थी कि इस सभा के किसान उनकी राय मानें। जब किसानों ने उनकी राय नहीं मानी तो असहयोग आंदोलनकारियों ने सेवा समिति परिसर में आयोजित संयुक्त प्रांत किसान सभा बैठक में व्यवधान डाला।
3 फरवरी 1921 को बाबा रामचन्द्र की गिरफ्तारी गांधी जी की उपस्थिति में काशी विद्यापीठ के उद््घाटन के मौके पर हो गई थी। पुरूषोत्मदास टंडन और नेहरू ने बाबा की गिरफ्तारी के बाद बाराबंकी को अशांत होता देख, वहां तुरंत पहुंच कर किसानों को समझाया और शांति बहाल रखने को कहा था।
अप्रैल, 1921 के अंत में मोतीलाल नेहरू ने 'किसानों को संदेशा' नामक पर्चा बंटवाया। यह पर्चा असहयोग आंदोलन और गांधीवादी तरीके से आंदोलन करने का पाठ पढ़ा रहा था। 6 छात्रों को पर्चा बांटने के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया गया मगर पर्चे के लेखक मोतीलाल नेहरू को एवं जवाहरलाल नेहरू को जो कचहरी और बाजार में पर्चे बंट रहे थे, इस लिए गिरफ्तार नहीं किया गया कि किसानों का असहयोग आंदोलन के बाहर रहना सरकार के लिए ज्यादा घातक था।
नेहरू और टंडन शुरू से चाहते थे कि किसान, अलग से आंदोलन न करें। वे असहयोग आंदोलन में शामिल हों और स्वराज के लिए लड़ें। किसान समस्या स्वराज्य मिलते ही हल हो जायेगी। कांग्रेस के साथ किसानों की नजदीकी को कांग्रेस के दोनों धड़ों में खींचतान जारी था।
असहयोग आंदोलन की अनगूंजों के बावजूद किसान विद्रोह उनसे अलग था। वह मुख्य रूप से आर्थिक समस्याओं से टकरा रहा था। स्वयं नेहरू ने इसे स्वीकार करते हुए लिखा है- 'असहयोग तथा किसान आंदोलन, दोनों अलग-अलग थे यद्यपि दोनों ने एक-दूसरे पर बड़ा प्रभाव डाला था।'
बाबा रामचन्द्र के गिरफ्तारी के बाद वाद की पैरवी के लिए जवाहर लाल नेहरू और गौरी शंकर मिश्र का प्रतापगढ़ आना शुरू हुआ। 29 अगस्त 1921 को जवाहर लाल नेहरू और गौरी शंकर मिश्र इलाहाबाद से आये और पट्टी तहसील के कुछ गांवों में सभा की। किसान आक्रोशित थे। वे मांग कर रहे थे कि बाबा रामचन्द्र सहित दोनों नेताओं को दिखाया जाए अन्यथा हमें भी जेल में डाल दिया जाए। नेहरू और गौरी शंकर ने किसानों से कहा कि रामचन्द्र और अन्य के जेल जाने से वे हतोत्साहित न हों। अगली सुनवाई 4 सितम्बर को होनी थी।
7 जनवरी 1921 को एक बार मुंशीगंज और रायबरेली शहर मार्ग के बीच लगभग 7,000 किसानों की भीड़ इकट्ठा हो गई। उस दिन डिप्टी कमिश्नर को बताया गया कि जवाहरलाल नेहरू ने कुछ लोगों को रायबरेली शहर भेजा है और वह खुद दो बजे अपराह्न की मेल ट्रेन से इलाहाबाद से चलकर पहुंचने वाले हैं।
शीरेफ को जैसे ही पता चला कि नेहरू आ गये हैं, उसने एक पेंसिल नोट नेहरू के पास लिखकर भेजा। जिसमें लिखा था-'पं. जवाहर लाल नेहरू, आप को सूचित किया जाता है कि आपकी इस जिले में उपस्थिति वांछित नहीं है। आपको निर्देशित किया जाता है कि आप अगली ट्रेन से जिला छोड़ दें।' (Pt. Jawahar Lal Nehru, You are hereby informed that your presence in this district is not desired- you are directed to leave by the next train)
नेहरू ने शीरेफ के नोट के पीछे लिख कर उत्तर भेजा कि-मैं जानना चाहूंगा कि यह औपचारिक आदेश है या मात्र एक अनुरोध। अगर यह पहले वाला है तो एक औपचारिक तरीके से धाराओं आदि का उल्लेख करते हुए तैयार किया जाना चाहिए।
जब तक ऐसा आदेश मुझे नहीं दे दिया जाता, मैं यहीं बना रहूंगा। (I should like to know if this is a formal order or a mere request. If it is the former then it should be drawn up in a formal manner mentioning the Section etc. Until such an order is served on me I Propose to remain here)
नेहरू ने रायबरेली के कुछ कांग्रेसियों को साथ लिया और पैदल ही मुंशीगंज पुल की ओर चल दिए। नेहरू को, जहां से सेना गोली चला रही थी, उसके निकट जाने से रोक दिया गया। नेहरू ने वहां 3000 से 4000 किसानों को संबोधित किया और कोशिश की कि भीड़ शांति बनाये रखे। उन्होंने पहले की तरह किसानों से स्वराज के लिए संघर्ष करने के लिए असहयोग आंदोलन के साथ आने को कहा।
उन्होंने कहा कि स्वराज मिलते ही उनकी सभी समस्याओं का निराकरण हो सकता है। जब डिप्टी कमिश्नर वापस पुल पर आये तो सूचना मिली कि पं. जवाहरलाल पुल से शहर की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक सभा को संबोधित कर रहे हैं। शीरेफ ने सरदार बीरपाल सिंह की मोटर गाड़ी से पुल पार किया और पाया कि लगभग 1,000 लोग नेहरू का भाषण सुन रहे हैं। ये वही किसान थे जिन्हें उन्होंने और पुलिस अधीक्षक ने 11 बजे तितर-बितर किया था परन्तु वे पूरे दिन जेल के आसपास मंड़राते रहे।
शीरेफ सभा से लगभग 50 गज की दूरी पर खड़े हो गये और नेहरू को कहलाया कि वह बात करना चाहते हैं। नेहरू उनकी गाड़ी के पास आये। डिप्टी कमिश्नर ने सभा करने पर रोक होने की बात बताई और कहा कि उनके आदेश का हर हाल में पालन होना चाहिए। इस पर नेहरू मान गए और वापस जाने के बाद लगभग 15 मिनट में सभा समाप्त कर लोगों को चले जाने को कहा।
उसके बाद वह स्वयं शीरेफ के साथ गाड़ी में बैठकर उनके बंगले पर चले गये। डिप्टी कमिश्नर द्वारा जवाहर लाल नेहरू को अपने बंगले में ले जाने का अर्थ भीड़ ने यह निकाला कि शायद नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह सोच एक बार फिर भीड़ डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर जमा होने लगी लेकिन नेहरू ने भीड़ को समझा-बुझा कर वापस कर दिया।
जनवरी 14 1921 को मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू आदि 2 बजे की मेल ट्रेन से पधारे और मुंशीगंज पुल पर गये जहां किसानों का खून बहाया गया था। वहां बड़े-बड़े चार गड्डे देखे गये जिनमें किसानों की लाशें गाड़ी गई थीं। जमीन पर तड़प-तड़प कर मरने के निशान मौजूद थे। सूखे खून के धब्बे, उनकी लाशों के निशान, फटे कपड़े और पुआल देखे गये। 84 जगहों पर खून के धब्बे पाये गये। नेहरू स्थल मुआयना के बाद मार्तण्ड वैद्य के घर बेलीगंज में ठहरे।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने मुंशीगंज गोली कांड को जालियांवाला बाग कांड बताते हुए समाचार छापा था जिससे उनके अखबार 'प्रताप' के विरूद्ध मुकदमा चला। इस मुकदमे में 24 जून को जवाहरलाल नेहरू का बयान हुआ।
उनके बयान का सार यह है कि वह नागपुर कांग्रेस से लौटे थे कि कुछ किसान 5 जनवरी को रायबरेली से इलाहाबाद बुलाने आ गये। 6 जनवरी को मार्तण्ड वैद्य का पत्र मिला कि हालात खराब हैं, फौरन आइये। नेहरू ने कहा, 'मेंने सूचना दी कि 7 जनवरी को आ रहा हूं। दो-तीन दर्जन आदमी स्टेशन पर मिलने चाहिए। 7 जनवरी को आकर मैंने देखा कि किसानों पर वीरपाल गोली चला रहा था।'
फैजाबाद के किसान भी तब तक आन्दोलित हो चुके थे। यह देखकर 22 जनवरी को नेहरू फैजाबाद पहुंचे। उन्होंने किसान विद्रोह से संबंधित इलाकों में दौरा किया और हमेशा कि तरह किसानों को धैर्य बनाये रखने और असहयोग आंदोलन में सहयोग देने को कहा। किसानों द्वारा की गई हिंसक घटनाओं की उन्होंने निंदा की।
जनवरी 27, 1921 को गौहन्ना गांव में 30,000 से लेकर 40,000 तक किसानों की उपस्थिति में सभा हुई। यह गांव अकबरपुर थाने के अन्तर्गत पड़ता था। सभा में आये किसान यह जानना चाहते थे कि बसखारी मामले में जांच कमेटी का क्या निर्णय आया? लेकिन दुर्भाग्य यह था कि यह सभा कांग्रेसियों के नियंत्रण में हुई।
पांच दिनों से नेहरू ने फैजाबाद के अशान्त गांवों का दौरा भी इसी उद्देश्य से किया था। गौहन्ना सभा की अध्यक्षता नेहरू ने ही किया। इस सभा में किसानों द्वारा जमींदारों के यहां की गई लूट-पाट की घटना की निंदा की गई। किसानों से कहा गया कि वे असहयोग आंदोलन में भाग लें। इससे स्वराज आयेगा। स्वराज आयेगा तो किसानों की सारी समस्याओं का, उनके दुखों का निदान हो जायेगा।
मार्च 13, 1922 को मोतीलाल नेहरू हरदोई जिले में पधारे और अवध किसान कान्फ्रेंस की अध्यक्षता की जिसमें लगभग 2500 लोग उपस्थित थे। उन्होंने हरदोई के किसानों पर नाराजगी दिखाई और एका आंदोलन की निंदा की। स्वराज प्राप्ति के लिए सभी गतिविधियों को रोकने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि जमींदारों और किसानों की एकता से स्वराज मिलेगा। स्वराज आने पर ही किसानों की समस्याएं दूर होंगी। उन्होंने आगामी मुंसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड चुनाव में कांग्रेस और खिलाफत को वोट देने को कहा। सभी वक्तओं ने एका आंदोलन की निंदा की।
यह कांग्रेसियों की बुनियादी नीति थी। कांग्रेसी सदा जन आंदोलन को स्वराज के रास्ते की बाधा बताते थे और अपनी गुप्त नीति के कारण ही वे जन आंदोलनों से भयभीत रहते थे। एक बार फिर शहरी कांग्रेसियों ने किसान आंदोलन को शांत करने में सारी ताकत झोंक दी। मार्च 15, 1922 को जवाहर लाल नेहरू ने हरदोई में लगभग 2000 की भीड़ को संबोधित किया। दोनों ने गांधी की गिरफ्तारी और जेल में डालने की निंदा की (उन्हें 10 मार्च, 1922 को अहमदाबाद में गिरफ्तार किया गया था) और हड़ताल करने की अपील की। विरोध में मार्च 18, 1922 को पूरे जिले में हड़ताल रखा गया।
इस प्रकार 1920 से 1922 तक पूरे अवध क्षेत्र में भड़के किसान विद्रोह के बीच जवाहर लाल नेहरू की सक्रियता, कांग्रेसी नीति-रीति के अनुसार बनी रही। वह वहीं से गांधीजी के साथ राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में दिखाई देने लगे।
(प्रस्तुत आलेख, इतिहास की पुस्तक-अवध का किसान विद्रोह, लेखक-सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, के आधार पर तैयार किया गया है।)