Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने के लिए ग़रीब आबादी पर निर्भरता रहेगी हमेशा, मुफ़्त अनाज और चुनावी रेवड़ियाँ जनता का मुँह बंद करने के लिए !

Janjwar Desk
13 Nov 2023 9:29 AM GMT
Hindu nationalism: हिन्दू राष्ट्र का मतलब है 20 प्रतिशत सवर्णों-ताकतवरों की सेवा-गुलामी में 80 फीसदी को झोंक देना?
x

Hindu nationalism: हिन्दू राष्ट्र का मतलब है 20 प्रतिशत सवर्णों-ताकतवरों की सेवा-गुलामी में 80 फीसदी को झोंक देना?

सत्तारूढ़ दल जानता है कि सक्षम और अमीर लोग तो भारत देश की नागरिकता त्याग कर अन्य मुल्कों में बसने जा सकते हैं, पर जिस ग़रीब आबादी को सरकार उसकी ज़रूरत का अनाज स्वयं ख़रीद पाने में सक्षम नहीं बना पाई उसे तो यहीं रहना पड़ेगा। वैसे भी 142 करोड़ से ज़्यादा की आबादी वाले देश में पासपोर्ट धारकों की संख्या दस करोड़ से भी कम है। अतः भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने के लिए ग़रीब आबादी पर निर्भरता हमेशा क़ायम रहने वाली है....

वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी

देश के अस्सी करोड़ ग़रीब अगर चाहें तो इस चुनाव-पूर्व घोषणा को प्रधानमंत्री की तरफ़ से दीपावली के तोहफ़े के तौर पर भी स्वीकार कर सकते हैं कि आने वाले पाँच और सालों तक उन्हें मुफ़्त के अनाज की सुविधा प्राप्त होती रहेगी। सरकार को इस वक्त चिंता सिर्फ़ दो ही बातों की सबसे ज़्यादा है! पहली ग़रीबों की और दूसरी हिंदुत्व की। चिंता को यूँ भी समझा जा सकता है कि हिंदुत्व की रक्षा के लिए ग़रीबों को बचाए रखना ज़रूरी है!

सत्तारूढ़ दल जानता है कि सक्षम और अमीर लोग तो भारत देश की नागरिकता त्याग कर अन्य मुल्कों में बसने जा सकते हैं, पर जिस ग़रीब आबादी को सरकार उसकी ज़रूरत का अनाज स्वयं ख़रीद पाने में सक्षम नहीं बना पाई उसे तो यहीं रहना पड़ेगा। वैसे भी 142 करोड़ से ज़्यादा की आबादी वाले देश में पासपोर्ट धारकों की संख्या दस करोड़ से भी कम है। अतः भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने के लिए ग़रीब आबादी पर निर्भरता हमेशा क़ायम रहने वाली है।

ग़रीबी को बनाए रखना सत्ताओं के लिए चुनावी कारणों से भी ज़रूरी हो जाता है। (‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा 52 साल पहले 1971 के लोकसभा चुनावों के दौरान इंदिरा गांधी ने पहली बार दिया था और 1984 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब इसी नारे का उपयोग पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में किया गया)। अपने चुनावी वायदे के मुताबिक़ मोदी सरकार अगर हर वर्ष दो करोड़ नए रोज़गार उपलब्ध करवाती रहती तो पिछले नौ सालों के दौरान अठारह करोड़ लोग अपने पैरों पर खड़े हो जाते और वे सोच-समझकर वोट देने की क्षमता प्राप्त कर लेते। राजनीतिक रूप से समझदार सत्ताएँ नागरिकों का इस तरह से समझदार हो जाना क़तई पसंद नहीं करतीं।

साल 2011 में हुई आख़िरी जनगणना के अनुसार देश की आबादी 121 करोड़ थी। इतनी आबादी के 81.35 करोड़ लोगों को ज़रूरतमंद मानते हुए जुलाई 2013 से मुफ़्त अनाज वितरित किया जा रहा है। योजना जब चालू की गई तब मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में थी। भाजपा ने तब इस योजना का विरोध किया था। योजना के प्रारंभ होने के तत्काल बाद ही मई 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आ गई। किसी ने सवाल नहीं किया कि यूपीए सरकार की जिस योजना का विरोध भाजपा ने किया था उसे क्यों चालू रखा जा रहा है? इतना ही नहीं, 2011 से 2023 की अवधि के बीच जो ग़रीब देश में बढ़ गए होंगे वे अपने अनाज का इंतज़ाम किस तरह कर रहे होंगे?

ग़रीबों को मुफ़्त अनाज देने की योजना की अवधि लोकसभा चुनावों के पहले दिसंबर में समाप्त होना थी। चूँकि ग़रीबों के हितों को लेकर सरकार लगातार चिंतित रहती है और संयोग से पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव भी इसी बीच हो रहे हैं, पीएम ने छत्तीसगढ़ की एक चुनावी सभा में योजना को पाँच और सालों के लिए बढ़ाने की घोषणा नवम्बर के पहले सप्ताह में ही कर दी। पीएम की घोषणा पर लाभार्थियों ने इसलिए ज़्यादा तालियाँ नहीं बजाई होंगी कि न तो वर्तमान हुकूमत और न ही आगे कभी सत्ता में आने वाली कोई सरकार ही योजना को बंद करने की हिम्मत दिखा पाएगी।

मुफ़्त अनाज वितरण की योजना पाँच साल के लिए आगे बढ़ाने की घोषणा करते हुए पीएम ने छत्तीसगढ़ की चुनावी सभा में कहा, ‘ग़रीबी से निकला हुआ मोदी जो ग़रीबी को जीकर आया है ग़रीबों को ऐसे ही असहाय नहीं छोड़ सकता। कितने भी संकट आ जाएँ, ग़रीबों के बच्चों को भूखा नहीं सोने दूँगा। ग़रीब का चूल्हा नहीं बुझने दूँगा।’

मुफ़्त अनाज बाँटने की योजना पर हर साल 4,00,00,00,00,000 (चालीस हज़ार करोड़ रुपए) या पाँच साल में दो लाख करोड़ (20,00,00,00,00,000) रुपए खर्च होंगे। चुनावों के दौरान की रेवड़ियों के खर्च अलग से है। साठ हज़ार करोड़ रुपये के वार्षिक खर्च का बजट प्रावधान ‘मनरेगा’ के लिए है। मुफ़्त अनाज वितरण की योजना का लाभ लेने वाले अग्रणी राज्यों में यूपी, असम, गुजरात, एमपी, महाराष्ट्र (सभी भाजपा शासित) के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, राजस्थान, कर्नाटक और झारखंड आदि हैं। विकास के रोल मॉडल के रूप में प्रचारित गुजरात में 74.64 प्रतिशत ग्रामीण और 48.25 प्रतिशत शहरी आबादी इस योजना का लाभ ले रही है।

125 देशों के लिए जारी किए गए वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2023(Global Hunger Index-2023) में भारत 111 वें स्थान पर है। सूची के अनुसार श्रीलंका 60वें, नेपाल 69वें, बांग्लादेश 81वें और पाकिस्तान 102वें स्थानों पर हैं। कल्पना ही की जा सकती है कि मुफ़्त में अनाज वितरण की योजना अगर बंद कर दी जाए या उसमें कोई कटौती कर दी जाए तो परिणाम क्या होंगे? ग़रीब जनता शायद घरों के दरवाज़ों पर थाली-कटोरियाँ बजाना बंद करके सड़कों पर अपने ख़ाली पेट बजाना प्रारंभ कर देगी।

पिछले साल आईआईएम कलकत्ता के दीक्षा समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज के प्रमुख आशीष कुमार चौहान ने कथित तौर पर सुझाव दिया था कि कोविड के दौरान मुफ़्त भोजन कार्यक्रम के विस्तार में भूमिका के लिए पीएम को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

कांग्रेस सहित किसी भी विपक्षी दल में सवाल करने की हिम्मत नहीं कि बजाय रोज़गार के नए अवसरों का निर्माण करने के ग़रीबों की सुरक्षा के नाम पर मुफ़्त की सुविधाओं का विस्तार कहीं नागरिकों को अकर्मण्य बनाने, उनके मुँह बंद करने, प्रतिरोध की आवाज़ को दबाने और सरकार की ख़ुद की राजनीतिक सुरक्षा के लिए तो नहीं किया जा रहा है?

बिहार की जाति जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण के आँकड़ों ने ग्यारह करोड़ की आबादी वाले राज्य में पचहत्तर सालों में हुए विकास की खाल उधेड़ कर रख दी है। बिहार की एक तिहाई आबादी आज़ादी के इतने सालों के बाद भी आज सिर्फ़ दो सौ रुपए रोज़ की आय पर ज़िंदगी बसर कर रही है और इसमें सामान्य वर्ग भी शामिल है। जिस दिन पूरे देश की जाति जनगणना के साथ आर्थिक असमानता के आँकड़े भी उजागर हो जाएँगे हो सकता है दस-बीस करोड़ सक्षम लोगों की सीमित संख्या को छोड़ पूरे देश को मुफ़्त की सुविधाओं का लाभ प्रदान करने की ज़रूरत पड़ जाए।

Next Story

विविध