तेल की कीमतों ने आम आदमी का निकाला तेल, मगर अडानी समूह समेत तमाम व्यापारियों की पौ बारह
डॉ. अंजुलिका जोशी और शक्ति बनर्जी की टिप्पणी
जनज्वार। कोरोना संकट से अभी भारत उबरा भी नहीं था कि पेट्रोल और डीज़ल के साथ-साथ खाद्य तेल तथा अन्य सामग्रियों के दामों में आयी अथाह तेजी ने लोगों का बजट बुरी तरह प्रभावित किया है। आम आदमी जिसकी क्रयशक्ति एक ओर आधे से भी कम हो गयी है, वहीं दूसरी ओर महंगाई में कई गुना वृद्धि ने उसकी रीढ़ ही तोड़ खाद्य तेल इतना महंगा क्यों?
उपभोक्ता मामलों के विभाग की वेबसाइटों के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले एक साल में खाद्य तेलों, मूंगफली, सरसों, वनस्पति, सोया, सूरजमुखी और ताड़ आदि की कीमतें अखिल भारतीय स्तर पर 30-70 प्रतिशत के बीच बढ़ी है। सरसों के तेल का खुदरा मूल्य जो पिछले साल 117 रुपये था, जून 2021 तक 44 प्रतिशत बढ़कर 200 रूपये को भी पार कर गया है। सोया और सूरजमुखी के तेल की कीमतें भी पिछले साल से 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ गयी है। वास्तव में सभी छह खाद्य तेलों की मासिक औसत खुदरा कीमतें मई 2021 में 11 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। खाना पकाने के तेल की कीमतों में तेज वृद्धि ऐसे समय में हुई है, जब कोविड-19 के कारण घरेलू आय पहले ही प्रभावित हो चुकी है।
इस साल हुई बंपर फसल के बाद भी तेल के दामों में लगातार वृद्धि होती जा रही है। अगर इसका विश्लेषण किया जाये तो तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी के चार प्रमुख कारण हो सकते हैं।
सरसों के तेल में अन्य खाद्य तेलों के मिश्रण पर प्रतिबंध
अब तक हम जो सरसों का तेल अपनी रसोई में इस्तेमाल करते थे, कीमत कम करने के लिए उसमें अन्य कम कीमत वाले खाद्य तेल मिलाये जाते थे, किन्तु अब मानव स्वास्थ्य को मद्देनजर रखते हुए भारतीय खाद्यान्न संरक्षा एवं मानव प्राधिकरण ने सरसों के तेल में कोई भी दूसरा खाद्य तेल मिलाने पर रोक लगा दी है। फलतः सरसों के शुद्ध तेल के दामों में वृद्धि स्वाभाविक है।
उपभोग स्वरूप
दूसरा प्रमुख कारण है इसके उपयोग का स्वरूप। सरसों के तेल की खपत ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में होती है, वहीं रिफाइंड तेल, सूरजमुखी तेल और सोयाबीन तेल की हिस्सेदारी शहरी इलाकों में ज्यादा है। किन्तु लॉकडाउन के बाद की अवधि के दौरान भोजन की खपत के पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। घर में लगातार रहने के कारण बाहर भोजन करना कम हो गया और लोगों ने घर पर ही नए व्यंजन बनाने शुरू कर दिये। कोविड महामारी ने भी लोगों को अपने स्वास्थ्य के लिए सचेत किया और इस दौरान लोगों की इस धारणा को काफी बढ़ावा मिला कि सरसों का तेल प्रतिरक्षा के लिए अच्छा है, जिससे इसकी खपत में अच्छा खासा इजाफा हुआ है।
इस प्रकार खाने की बदलती आदतों के फलस्वरूप खाद्य तेलों की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ गयी और घरेलू खाद्य तेल जैसे सोया तेल, सूरजमुखी तेल और सरसों के तेल की मांग में वृद्धि, आपूर्ति से ज्यादा होने लगी जो इसके महंगे होने का कारण बना। नियोजित फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड के वरिष्ठ विश्लेषक विनोद टीपी ने भी इस बात की पुष्टि, बिजनेसलाइन को दिये अपने एक साक्षात्कार में की है।
कृषि मंत्रालय के अनुसार, 2015-16 और 2019-20 के बीच वनस्पति तेलों की मांग 23।48-25।92 मिलियन टन थी, जबकि प्राथमिक स्त्रोतों (तिलहन जैसे सरसों, मूंगफली आदि) और द्वितीयक स्त्रोतों (जैसे नारियल, ताड़ का तेल, चावल की भूसी का तेल, कपास के बीज) को मिलकर घरेलू आपूर्ति मात्र 8.63-10.64 मिलियन टन ही रही। इस प्रकार मांग तो थी 24 मिलियन टन लेकिन उपलब्धता मात्र मिलियन 10.64 टन। मतलब सीधे-सीधे 13 मिलियन टन से अधिक का अंतर।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ी कीमतें
भारत अपनी मांग को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर है। इन आयातों के प्रमुख स्रोत अंतरराष्ट्रीय बाजार ही हैं। एक ओर जहां सोयाबीन तेल के लिए भारत अर्जेंटीना और ब्राजील पर निर्भर है, वहीं दूसरी ओर पाम तेल इंडोनेशिया और मलेशिया से और सूरजमुखी तेल यूक्रेन और अर्जेंटीना से आयात किया जाता है। इन सभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। पिछले 13 सालों में अंतरराष्ट्रीय खाद्य तेल बाजार अपने सबसे ऊँचे स्तर पर है। आज ऑयल सीड से मिलने वाले खाद्य तेलों के दाम पहले के मुकाबले दोगुने से भी ज़्यादा हो गए हैं, जिससे इसका सीधा असर भारत में तेल के आयात पर पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त चीन में तेल की लगातार बढ़ती हुई मांग ने भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों को आसमान छूने पर मजबूर किया है।
राजनीतिक कारण
तेल के दामों में वृद्धि का एक और कारण मलेशिया से राजनीतिक मनमुटाव भी है। कश्मीर के मुद्दे पर मलेशिया द्वारा टिप्पणी किये जाने पर भारत सरकार ने पाम तेल के आयत को फ्री लिस्ट से हटाकर रेस्टिक्टेड लिस्ट में डाल दिया, जिससे उसका आयात लगभग शून्य हो गया और इसका सीधा असर भारत के खाद्य तेल बाजार पर पड़ा और उसके मूल्य में अभूतपूर्व वृद्धि हो गयी।
तेल के बढ़े हुए इन दामों ने हालांकि आम आदमी का ही तेल निकाल दिया है, किन्तु दूसरी और तेल के व्यापारियों को भारी फायदा पहुँचाया है। भारत में सरसों के तेल का सबसे बड़ा व्यापारी अडानी समूह है, जो फॉर्च्यून नाम से बाजार में उपलब्ध है।
एक दशक में सबसे ज्यादा
भारत में सरसों के तेल का घरेलू बाजार तकरीबन 40 हज़ार करोड़ रुपये का है, जबकि 75 हज़ार करोड़ रुपये का तेल आयात किया जाता है। बढ़ती मांग और कम आपूर्ति के चलते तेल के दामों में वृद्धि स्वाभाविक है। हालांकि इस साल सरसों का कीर्तिमान उत्पादन हुआ है। रबी की फसल के दौरान 89 लाख टन सरसों का उत्पादन हुआ है, जो पिछले साल के मुकाबले 19 फीसदी अधिक है। 2019-20 में 75 लाख टन सरसों का उत्पादन हुआ था, लेकिन फिर भी यह भारत में लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में नाकामयाब रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार एक सामान्य भारतीय परिवार में खाद्य तेल की खपत औसतन 20 से 25 लीटर प्रतिवर्ष होती है जिसमें हर साल 2-3 प्रतिशत की वृद्धि है।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि तेल के दामों हर 7-8 साल बाद एक उछाल आता ही है। इसके पहले यह उछाल 2008 में आया था, जो 2009-10 के आते आते कम हो गया था। अभी तेल के दाम अब तक के ऐतिहासिक सर्वोच्च स्तर पर हैं। फिलहाल सरकार, बाजार और उपभोक्ता सभी चैतन्य हैं, किन्तु देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह कहना बहुत ही मुश्किल है कि देश की जनता को निकट भविष्य में इन बढ़ी हुई कीमतों से कब तक निजात मिल सकेगी।
(डॉ. अंजुलिका जोशी मूलत: बायोकैमिस्ट हैं और उन्होंने NCERT के 11वीं-12वीं के बायोटैक्नोलॉजी विषय पाठ्यक्रम को सुनिश्चित करने में अपना योगदान दिया है।)