तालिबान के खिलाफ डटे जूनियर मसूद अपने पिता की विरासत से क्या सीख सकते हैं?
(पंजशीर घाटी काबुल से उत्तर-पूर्व दिशा में करीब 150 किलोमीटर दूर है।)
वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी का विश्लेषण
जनज्वार। अगस्त 2005 के आखिरी हफ्ते में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अफगानिस्तान का दौरा किया। तब अमेरिका और सहयोगी देशों द्वारा तालिबान को खदेड़ दिये जाने के बाद अफग़ानिस्तान का पुनर्निर्माण ज़ोरों पर था और भारत की उसमें सक्रिय भूमिका थी। प्रधानमंत्री की यात्रा के करीब 3 हफ्ते के भीतर ही वहां चुनाव होने जा रहे थे और भारतीय चुनाव आयोग के अधिकारी अफगानी अधिकारियों को ट्रेनिंग के लिये कई महीनों से वहां डटे थे। युद्ध से तहस-नहस अफग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में नये संसद भवन की नींव पूर्व राजा ज़ाहिर शाह ने डॉ मनमोहन सिंह की मौजूदगी में ही रखी। सिंह के सामने ही काबुल के एक हबीबिया स्कूल (जो बमबारी में तबाह हो गया था) का पुनर्निर्माण कर भारत ने उसे अफग़ानी अधिकारियों के हवाले किया। हर ओर लोकतंत्र की बयार और राहत भरा माहौल था।
पंजशीर घाटी का रुख
अफगानिस्तान पर अमेरिकी सेनाओं के हमले के वक्त 2001 में पंजशीर घाटी का नाम और उसकी सामरिक अहमियत को एक पूरी पीढ़ी ने टीवी स्क्रीन पर तस्वीरों और जानकारों के बयानों से ही समझा। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुये आतंकी हमले के कुछ ही दिन पहले 'पंजशीर का शेर' कहे जाने वाले ताजिक कमांडर अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी गई। मसूद ने दशकों से जिस पंजशीर घाटी से जंग जारी रखी और जिस वादी को अब तक कोई जीत न सका वह एक बार फिर चर्चा में है। फर्क इतना ही है इस बार इस घाटी को बचाने की ज़िम्मेदारी अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद के हाथों में है।
करीब 16 साल पहले तब मनमोहन सिंहअपने दो दिन के दौरे के बाद वापस दिल्ली लौट आये लेकिन हमारी टीम काबुल में रुकी रही। हमारी योजना वहां चुनाव की तैयारियां कवर करने की थी। हमारे पास एक अफगानी दुभाषिया था जो अच्छी अंग्रेज़ी बोलता था और एक स्थानीय ड्राइवर भी जो दुभाषिये से कम उम्र का लेकिन बहुत वाचाल और मज़ाकिया। वह स्थानीय भाषा (दरी) में दुभाषिये के साथ लगा रहता। अफगानिस्तान में अलग-अलग कबीले सत्ता के लिये लड़ते रहे हैं। ताजिक समुदाय के अहमद शाह मसूद हमेशा पश्तून तालिबानों की आंखों की किरकिरी बना रहा।
मसूद, जैसे आपका गांधी
तालिबान की हार के बाद तक क़ाबुल में अहमद शाह मसूद के बड़े पोट्रेट और पोस्टर टंगे दिखे। काबुल एयरपोर्ट का नाम मसूद के नाम पर किया गया जिसे बाद में हामिद करज़ई ने दल दिया। जब दुभाषिये से मैंने पूछा की अफग़ानिस्तान में मसूद की क्या अहमियत है तो कुछ सोचकर उसने कहा –एज यू हैव गांधी इन योअर कंट्री। मुझे पता नहीं कि उसे गांधी के बारे में कितना पता था और यह उपमा कितनी ठीक रही होगी लेकिन इससे कमांडर अहमद शाह मसूद के मयार का अंदाज़ा हुआ। अगले दिन जब पंजशीर घाटी का रुख किया तो साथी अमिताभ रेवी और नरेंद्र गोडावली अलग कार में थे और मुझे कुछ ताजिक नेताओं के साथ दूसरी गाड़ी में बैठना पड़ा।
पंजशीर घाटी काबुल से उत्तर-पूर्व दिशा में करीब 150 किलोमीटर दूर है। अपदस्त उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह यहीं शरण लिये हुये हैं। वह ट्विटर पर यह पैगाम डाल चुके हैं कि 'वह अपने हीरो, कमांडर और गाइड अहमद शाह मसूद की आत्मा और विरासत को दगा नहीं देंगे और तालिबानी आतंकियों के आगे नहीं झुकेंगे।' सालेह के अलावा अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने भी यही इरादा जताया है। इससे स्पष्ट है कि देश के बड़े हिस्से पर तालिबान का क़ब्ज़ा हो जाने के बाद भी अफग़ानिस्तान लम्बे गृहयुद्ध की राह पर है।
पंजशीर का दुर्गम भूगोल
पूरे रास्ते वह ताजिक नेता स्थानीय भाषा में बतियाते रहे और मैं अकेला (मेरे साथी दुभाषिये के साथ दूसरी कार में थे) चुपचाप उस एक्सप्रेस हाइवे जैसी सड़क को महसूस कर रहा था जो तबाही के बाद बनी थी। कुछ देर में यह हाइवे अचानक दोनों ओर पहाड़ियों से घिर गया और साथ में नदी बहती दिखी। ये अद्भुत् खूबसूरती और भव्यता थी जिसे एक क्षण में आत्मसात करना मुश्किल था। मेरे चेहरे के भाव देखकर उन अफगानियों में से एक बुज़ुर्ग मेरी ओर देख कर बोला, दरे पंजशीर! यानी पंजशीर घाटी।
मैंने पहली बार हिन्दुकुश की पहाड़ियों को देखा। सड़क पंजशीर घाटी में तो प्रवेश कराती थी लेकिन वहां के दुर्गम पहाड़ों और यहां के गांवों तक पहुंचना किसी के लिये आसान न था। इस भूगोल को देखकर समझ आता है कि पंजशीर का अजेय होना केवल मसूद जैसे कमांडरों के कारण नहीं है बल्कि इसका भूगोल इसकी सबसे बड़ी ताकत है। यहां डटे गुरिल्लाओं के लिये ऊंचे पहाड़ों से दुश्मन पर नज़र रखना और उस पर हमला करना जितना आसान है दुश्मन के लिये फतह करना उतना ही कठिन।
पंजशीर का भूगोल इस घाटी का प्रवेश द्वार की हिफाज़त को आसान बनाता है। सालेह ने ट्वीट कर कहा है कि पड़ोसी की अंदराब घाटी पर गुरिल्ला हमले झेलने के बाद तालिबान अब पंजशीर के प्रवेश द्वार पर जमा हो रहे हैं। तालिबान का प्रतिरोध कर रहे लड़ाकों ने हाइवे को बन्द कर दिया है। सालेह ने ये भी कहा है कि तालिबान रसद और ज़रूरी सामग्री को आने से रोक रहे हैं जिससे एक मानवीय संकट खड़ा हो रहा है।
कमांडर बने लुटेरे
जिस अहमद शाह मसूद को दुभाषिये ने अफगानिस्तान का गांधी बताया वह असल में एक बेहतरीन गुरिल्ला कमांडर था। उसके पास 20,000 लड़ाके थे और उसने 1980 के दशक में आधा दर्जन से अधिक सोवियत हमलों को विफल किया और सोवियत कमांडरों ने इसे 'अजेय और छापामार युद्ध में बेहद निपुण' कहा था।तालिबान नाम से लिखी अहमद राशिद की किताब में इसका बेहतरीन वर्णन है। राशिद बताते हैं कि 1970 के दशक में सोवियत घुसपैठ के खिलाफ जिहाद में साथी रहे गुलबुद्दीन हिकमतियार से मसूद के रिश्ते बिगड़ गये। पाकिस्तान के खिलाफ मसूद की कड़वाहट पीछे हिकमतियार और तालिबान के दी जाने वाली मदद बड़ा कारण थी।
1990 के दशक में मसूद ने चार साल काबुल पर राज किया लेकिन उसके कमांडर दम्भी और अत्याचारी हो गये। दुकानों से चोरी करने लगे और नागरिकों को सताने लगे। इसीलिये जब तालिबान काबुल में घुसे तो अफगानी जनता ने पहले पहल उनका स्वागत किया। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले से ठीक पहले मसूद की हत्या (तब मसूद की उम्र सिर्फ 48 साल थी) अल कायदा की साजिश बतायी जाती है जिसके प्रमुख ओसामा बिन लादेन को उस वक्त तालिबान ने अफग़ानिस्तान में शरण दी हुई थी। तो क्या अमेरिका पर हमले से पहले मसूद की हत्या उस बड़े योजना का हिस्सा थी?
जूनियर मसूद के लिये सबक
मसूद के घोर समर्थकों और रिश्तेदारों (उनमें से एक ने दावा किया कि वह मसूद का ससुर है) के साथ एक दिन बिताना उन्हें (मसूद को) समझने के लिये काफी न था। फिर भी हिन्दुकुश पहाड़ियों के हर कोने से वाकिफ इस कमांडर के बारे में जो पढ़ा था तकरीबन वही तस्वीर इन लोगों के बयानों में झलकी। कई घंटों तक लगातार काम में जुटे रहना, छापामार लड़ाकों की तैनाती और हथियार खरीदने से लेकर अकाउंट का हिसाब जैसे हर मामले की बारीकियों पर मसूद की नज़र रहती लेकिन एक मामले में मसूद की असफलता उस पर और अफगानिस्तान की तकदीर पर भारी पड़ी।
मसूद दूसरे समुदायों और कबीलों के कमांडरों से गठजोड़ न कर सका। राशिद लिखते हैं कि वह एक बहुत अकुशल राजनेता था जो अफगानिस्तान के उन दूसरे पश्तून लड़ाकों को हिकमतियार के खिलाफ लामबंद न कर सका जो उससे नफरत करते थे। अफगानिस्तान में शांति लाने के लिये एक ताजिक-पश्तून गठजोड़ बेहद ज़रूरी था। आज तालिबान के खिलाफ दम भर रहे जूनियर मसूद और उनके साथियों को समझते होंगे कि अहमद शाह मसूद नेकहां गलती की।
असल में ताजिक क़ाबुल पर कभी – 1929 के असफल विद्रोह को छोड़कर – शासन नहीं कर पाये हैं और पश्तून उन पर भरोसा नहीं करते। अफगानिस्तान एक बार फिर से लम्बे गृहयुद्ध की राह पर है। अहमद मसूद और सालेह ने साफ किया है कि तालिबान काबुल पर राज कर सकता है लेकिन बाकी कबीलों को भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहिये। अब पंजशीर को तालिबान से मुक्त रखने के लिये चाहे अमरुल्लाह सालेह हों या अहमद मसूद और उनके साथी,सभी ज़रूर सीनियर मसूद की ताकत और कमज़ोरियों से सबक लेंगे।