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Ground Report : केला और क्राइम के लिए 'फेमस' नवगछिया में क्या है किसानों का हाल?
नवगछिया रेलवे स्टेशन।
नवगछिया से राहुल सिंह की रिपोर्ट
नवगछिया के पकरा के रहने वाले रिसर्च स्काॅलर पंकज कुमार जब अपने इलाके के सुदूर गांव में बाइक पर साथ ले जाते हैं तो रास्ते में वे बातचीत के दौरान जातीय गोलबंदी, अपराध और किसानों की दुर्दशा पर चिंता जताते हैं। वे बिहार के 30 साल के लालू-नीतीश युग से संतुष्ट नहीं हैं और यह उम्मीद जताते हैं कि बिहार में राजनीति की अब नई बयार बहनी चाहिए, लेकिन विकल्प कम होने की बात वह खुद कह कर उसकी सीमा का भी अहसास करा देते हैं।
पंकज ने गांधी विचार में एमए किया है और जैविक खेती में पीएचडी कर रहे हैं तो जाहिर हैं कि उनके अध्ययन का असर उनके सोचने के तरीके पर भी होना ही है। पंकज बातचीत के दौरान कहते हैं: नवगछिया दो चीजों के लिए फेमस है केला और क्राइम। वे कहते हैं कि यहां 10-15 दिन में एकाध हत्या तो हो ही जानी है। बिहार में जिस कानून व्यवस्था को नीतीश अपनी यूएसपी की तरह पेश करते हैं, उसके दायरे से नवगछिया बाहर है या यह मानिए कि कानून व्यवस्था के उस 'बहुप्रचारित समुद्र' में नवगछिया एक टापू की तरह है। इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि आचार संहिता लगे होने पर चुनावी दिनों में यह इलाका पुलिस के हाथों मारे गए इंजीनियर आशुतोष पाठक हत्याकांड को लेकर उबाल पर है, जिसकी जांच का आदेश चुनाव आयोग ने भागलपुर की कमिश्नर को दे दिया है। आशुतोष की हत्या का आरोपी दारोगा फरार है और पुलिस उसकी तलाश कर रही है। कई दूसरे पुलिस कर्मी इस मामले में नप गए हैं। यह अब यहां चुनावी मुद्दा भी है।
चलिए क्राइम के बाद अब बात केला व किसान की करते हैं।
लाॅकडाउन से नुकसान, 80 प्रतिशत किसान लीज की भूमि पर निर्भर
नवगछिया के बिहपुर के रहने वाले रवींद्र कुमार सिंह एक केला किसान हैं। वे पांच बीघा जमीन लीज पर लेकर केले की खेती करते हैं। पर, इस बार उनकी केले की किसानी घाटे में तबदील हो गई है। इसकी वजह है कोरोना महामारी और लंबा लाॅकडाउन और फिर चुनावी गहमागहमी।
रवींद्र बताते हैं कि इस बार केले की कीमत 50 से 60 रुपये खानी तक गिर गई है, जबकि एक पौध को तैयार करने में 100 रुपये खर्च आता है।
रवींद्र बताते हैं कि गंगा व कोसी के बीच के 80 प्रतिशत केला किसान जमींदारों व भूमिपतियों से लीज पर जमीन लेकर ही केले की खेती करते हैं और एक बीघा जमीन का किराया साल का 25 हजार रुपये के करीब देना होता है। उस पर अगर किसी तरह की प्राकृतिक आपदा आयी तो उससे होने वाली फसल क्षति का सरकारी लाभ जमीन के मूल रैयत को मिलता है न कि किराये पर उस पर खेती कर रहे किसानों को।
केले की बड़े पैमाने पर खेती करने वाले कठेला गांव के चंदन कुमार कहते हैं कि राजनीतिक नेतृत्व ने हम केला किसानों के साथ हमेशा छल किया है। वे कहते हैं कि हर चुनवा में केला की बात होती है, उसके प्रसंस्करण संयंत्र व मार्केटिंग किए जाने की बात होती है, लेकिन चुनाव के बाद इसकी चर्चा भी नहीं होती।
चंदन कहते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान जिन मुद्दों पर चर्चा होती है वो वोटिंग का दिन आते-आते गौण हो जाता है और लोग जातीय खांचे में सेट हो जाते हैं और उसी पर वोट कर देते हैं।
चंदन को इस बात का भी अफसोस है कि केला या उससे जुड़े दूसरे कार्याें को लेकर जो एनजीओ इस क्षेत्र में आए उनका भी एजेंडा अपना धंधा चमकाने तक सीमित था और वे फिर यहां से गायब हो गए। शायद उनकी नजर इस कार्य के लिए आवंटित होने वाले पैसों पर रही हो।
कैसे होती है केले की खेती?
एक एकड़ भूमि में केले के करीब एक हजार पौधे लगाये जाते हैं। एक पौधे को तैयार करने पर किसान का 75 से 125 रुपये तक खर्च आता है। चंदन कहते हैं कि यह खर्च कृषि में अपनाए जाने वाले तरीकों पर निर्भर करता है। फसल की बोआई अगस्त-सितंबर में होती है और जून से वह तैयार होने लगता है। यानी केले का एक पौध तैयार होने में नौ महीने लगता है।
किसान किसी हाल में एक पौधे में एक खानी से अधिक केला नहीं रहने देते हैं, क्योंकि अधिक खानी होने से पोषक तत्वों का वितरण होने से उसकी फसल खराब होने का खतरा रहता है, जिसकी अच्छी कीमत नहीं मिल सकती।
केले के एक पौधे से तीन साल तक किसान फसल लेते हैं और फिर उसकी सफाई कर दूसरे नए पैदा होने वाले पौधे को पनपने देते हैं। एक जगह किसान एक ही पेड़ तैयार होने देते हैं और अतिरिक्ति पनपने वाले पौधे को काट कर हटा देते हैं। यानी केले की खेती में एक ही पौधा तैयार करना और उससे एक ही खानी केला तैयार करना महत्वपूर्ण होता है।
केले के एक खानी में 12 से 15 चूर होते हैं और एक चूर में डेढ दर्जन केला होता है। किसान बताते हैं कि जब पौधा तैयार होता है तो पहले साल उसमें अधिक चूर लगते हैं और फिर अगले साल वे कम होते जाते हैं और वह 12-13 और फिर उससे भी कम हो जाता है। संख्या के साथ फल की गुणवत्ता भी निम्न होती जाती है। इसलिए भी नए पौधे तैयार करना आवश्यक होता है।
नवगछिया इलाके में किसान रोबेस्टा केले की खेती प्रमुखता से करते हैं और चिनिया केले को कम मुनाफे वाली खेती मानते हैं।
यहां से पूर्वाेत्तर के राज्यों, उत्तरप्रदेश, झारखंड आदि जगहों पर केले की फसल भेजी जाती है।
केला की फसल के बाइप्रोडक्ट का नहीं होता कोई उपयोग
बिहार में केला प्रसंस्करण उद्योग का तो अभाव है ही, साथ ही इसके बाइ प्रोडक्ट के उपयोग की भी कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसे में वह खेता में ही सड़ता है या उसे किसान निकाल कर फेंक देते हैं।
केले के पत्ता का बास्केट, चटाई, पैकेजिंग डब्बे सहित कई चीजों को बनाने में उपयोग किया जाता है और उसे पर्यावरण अनुकूल भी माना जाता है। इसी तरह केले के थंब से बनाना सिल्क व बनाना काॅटन दोनों तरह के कपड़े बनते हैं पर बिहार में इस तरह से इसका उपयोग किये जाने की व्यवस्था नहीं है। ये कपड़े अधिक आरामदेह व पर्यावरण अनुकूल होते हैं।
सोशलिस्ट आंदोलन से जुड़े व बिहपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट इंडिया पार्टी से चुनाव लड़ रहे युवा गौतम कुमार प्रीतम कहते हैं कि केले के थंब का उपयोग पुल आदि के लिए बनाए जाने वाले फाइबर के निर्माण भी किया जाता है, लेकिन हमारे इलाके में फल को छोड़ कर इसका किसी तरह का उपयोग नहीं हो पाता है।
किसानों की स्थिति भयावह, एमएसपी से आधी कीमत पर बिक रही फसल
चंदन कुमार कहते हैं कि किसानों की स्थिति भयावह है। अगर केले की फसल बहुत अच्छी भी होगी तो उसे प्रति एकड़ खर्च काट कर 10 हजार रुपये की कमाई होगी। अगर पांच बीघा में वह खेती करेगा तो नौ महीने की मेहनत से उसे 50 हजार रुपये आएगा।
इस इलाके में किसान बड़ी संख्या में केले के अलावा आम, लीची और मक्का की खेती भी करते हैं। केले की तरह आम व लीची पूर्ण रूप से व्यावसायिक फसल है और मक्का भी एक प्रकार से व्यवसायिक फसल ही है, क्योंकि सीधे तौर पर भोजन में इसका उस तरह उपयोग नहीं होता है।
मक्का की एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य इस साल सरकार ने 1850 रुपये क्विंटल घोषित किया है। पिछले साल यह 1760 रुपये था।
इस साल मक्का एमएसपी से आधी कीमत पर बिक रहा है। औसत 1000 रुपये क्विंटल मूल्य किसानों को मिल रहा है। रवींद्र कुमार सिंह तो यह भी कहते हैं कि उन्होंने 10 रुपये किलो से कम के भाव में भी मक्का बेच चुके हैं।
पंकज कहते हैं कि एमएसपी के दावे बेकार हैं। वे कहते हैं कि एमएसपी का लाभ छह प्रतिशत किसानों को मिलता है और उसमें भी उसका लाभ प्रमुख रूप से पंजाब-हरियाणा किसानों को मिलता है। फिर इसको लेकर दावे की बेवजह हैं। वे बताते हैं कि यहां के किसानों का कोई संगठन भी नहीं है कि वे अपनी बात उठा सकें।
चंदन कहते हैं कि किसानों के लिए जिस पैक्स की स्थापना की गई थी वह काम नहीं करता, उसके भवन पर लोगों का कब्जा रहता है और उससे संचालित होने वाले काॅपरेटिव बैंक मृतप्राय हैं। सरकार के जो स्कीम हैं वे किसानों के लिए फायदेमंद नहीं हैं। सीमांत किसान अधिक हैं तो वे ट्रैक्टर लेकर क्या करेंगे?
नवगछिया का भौगोलिक व प्रशासनिक ढांचा
नवगछिया फिलहाल अनुमंडल है जो भागलपुर जिले में पड़ता है। अपराध के कारण यह इलाका चर्चित रहा है और इस कारण यह सालों से पुलिस जिला हैं, जहां एसपी बैठते हैं, हालांकि उसके बावजूद आए दिन हत्याएं आम हैं। नवगछिया को सालों से जिला घोषित करने की मांग होती रही है और दो दिन पहले नीतीश कुमार भी यहां जनसभा को संबोधित करते हुए इस बार सरकार बनने पर इसे जिला बनाने का ऐलान करके गए हैं। नवगछिया में सात प्रखंड हैं: गोपालपुर, रगड़ा, नवगछिया, बिहपुर, नारायणपुर, इस्माइलपुर, खरीक। जब भागलपुर में गंगा पर विक्रमशीला सेतु नहीं बना था नवगछिया जलमार्ग के लिए भी प्रसिद्ध था। यह इलाका गंगा व कोसी नदी के बीच में पड़ता है।
बदलाव की चाह, सवाल बदलना जरूरी है
नवगछिया की नई पीढी अब बदलाव की उम्मीद करती है। तिलैया के प्रसिद्ध सैनिक स्कूल से पढे व यूपीएससी की तैयारी कर रहे अलोक रंजन कहते हैं स्कूल में शिक्षक नहीं हैं और उसके बाद सरकार नए स्कूल खोल देती है। उनका कहना है सरकार का ध्यान क्वाइलिटी नहीं क्वांटिटी पर है और जाति आधारित राजनीति बहुत नुकसान पहुंचाती है।
वे कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवा का बुरा हाल है, शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है और कानून व्यवस्था को लेकर भय है। वे कहते हैं : बदलाव के लिए लोगों का सवाल बदलना जरूरी है। सरकार ऐसे उपाय करे जिससे बिहार के युवाओं को बिहार के अंदर रोजगार मिले।
पेशे से वकील सुधाकर पांडेय कहते हैं कि नीतीश सरकार के समय शिक्षा के लिए कुछ नहीं हुआ। उद्योग बंद हैं।
बिहार के युवाओं से बातचीत में यह लगता है कि वे अब उनकी अपेक्षाएं सड़क, बिजली व कानून व्यवस्था के दायरे से अधिक विस्तारित हो गईं हैं और इसको किसी भी नई बनने वाली सरकार से उम्मीद करते हैं।