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ग्राउंड जीरो : बिहार चुनाव में भागलपुर के लौगांय गांव में क्या हैं मुद्दे, जहां 89 के दंगों में 115 ग्रामीणों को कर दिया था दफन
भागलपुर से राहुल सिंह की रिपोर्ट
भागलपुर के लौगांय गांव (Bhagalpur Riots Logain Village) में पहुंचने के लिए हमें उम्मीद से अधिक दूरी तय करनी पड़ी। भागलपुर शहर से लोदीपुर की ओर निकलने पर कई मोड़ और चौक-चौराहों पर लोगों से यह पूछना पड़ा कि लौगांय है किधर? एकाध लोगों ने भ्रमित करने वाला जवाब दिया, लेकिन अधिकतर लोगों ने सटीक जानकारी दी। यह गांव शहर से करीब 14-15 किमी दूर स्थित है। दरअसल, जब आप इस सोच के साथ किसी नई जगह पर जाते हैं कि वह पास में ही है तो थोड़ी लंबी दूरी भी अधिक लगने लगती है।
लौगांय 24 अक्टूबर 1989 से पहले एक साधारण-सा गांव हुआ करता था, जिसकी अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं थी और वह देश के छह लाख गांवों की तरह ही का एक गांव था, जहां मिश्रित आबादी थी। लेकिन, 1989 के भागलपुर दंगों में सामूहिक नरसंहार (Bhagalpur Riots & Logain Massacre) का यह गांव सबसे बड़ा प्रतीक बन गया, जहां एक समुदाय के 115 लोगों का कत्लेआम हुआ था और दंगाइयों ने उन्हें खेत में दफना दिया था और उस पर गोभी की खेती कर दी थी। 1989 के भागलपुर दंगे (1989 Bhagalpur Riots) में किसी एक जगह हुआ यह सबसे बड़ा कत्लेआम था। इस नरसंहार के 22 दिन बाद सूचना के आधार पर घटनास्थल से खुदाई कर 105 शवों को निकाला गया था।
1989 के भागलपुर दंगे ने लौगांय (Logain Village) की पहचान ही बदल दी। गांव से मुसलिमों का पलायन हो गया, वे दूसरी जगह जाकर बस गए। हालांकि इसमें एक परिवार अपवाद रह गया। गांव के किसी व्यक्ति से यह पूछने पर कि गांव में किस-किस जाति के लोग रहते हैं ग्रामीण कोयरी, हरिजन, कहार, बढई का उल्लेख करते हुए यह भी जोड़ते हैं कि एक मुसलिम परिवार भी है। यह परिवार है मोहम्मद नजीम का।
55 साल के नजीम गांव के तालाब के किनारे पत्नी रवीना खातून व बच्चों के साथ रहते हैं। नजीम के सात बच्चे हैं, चार बेटे और तीन बेटी। नजीम ने हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा 'नीड़ का पुनः निर्माण' की तर्ज पर फिर से अपनी दुनिया दंगों के कुछ समय बाद बसा ली। 1989 के भागलपुर दंगे में उनकी पहली पत्नी व दो छोटे बच्चे मारे गए थे। नजीम को भागलपुर दंगा पीड़ित के रूप में चिह्नित किया गया है और बिहार सरकार की ओर से उन्हें इसके लिए पांच हजार रुपये हर महीने पेंशन मिलती है।
नजीम याद करते हैं, गांव में मुसलिमों (Muslims) के करीब 35 घर थे। इसमें सात उनके गोतिया लोगों के व मौलवी के तीन घर थे। वे कहते हैं, दंगे के बाद सभी लोग गांव छोड़ कर चले गए, लेकिन वे यहां रह गए और आज कोई हमें यहां परेशान नहीं करता तो किसी की शिकायत क्यों करें?
गांव में आज न नफरत और न ही धार्मिक विद्वेष नजर आता है, जिसने 31 साल पहले इस गांव को जला दिया था। जब यह संवाददाता नजीम और उनके परिवार के सदस्यों से उनके आंगन में बैठ कर बात करता है तो वहां सहज भाव से गांव के कुछ हिंदू युवा भी आ जाते हैं और मो नजीम की पत्नी रवीना खातून से घर-.परिवार के सदस्यों की तरह सहज बात करते हैं। ये वे लोग हैं जिनका जन्म दंगों के आसपास के समय में या उसके बाद हुआ। हालांकि रवीना इस संवाददाता से बात करने के दौरान सतर्कता भरा व्यवहार करती हैं और यह जानना चाहती हैं कि इनके यहां आने का उद्देश्य क्या है? नजीम व रवीना की बेटी गुड़िया परवीन इंटर कर चुकी हैं और अब वह ग्रेजुएशन में नामांकन लेंगी। उनका फूस, खपड़े का घर उनकी साधारण हैसियत को बताता है।
ड्राइवर व राजमिस्त्री का काम करके गुजारा करने वाला गांव का रंजीत रवीना खातून से बतियाते हुए बीच में ही कहते हैं, जिस साल दंगा हुआ उसी साला मेरा जन्म हुआ और हमें पता भी नहीं है कि क्या और कैसे हुआ?
भागलपुर (Bhagalpur) के मरवाड़ी काॅलेज में बीए अर्थशास्त्र फाइनल इयर में पढने वाला गौरीशंकर 21-22 साल का एक शांत स्वभाव का लड़का है जो लाॅकडाउन में काॅलेज बंद होने की वजह से अपने गांव लौगांय में रह रहा है। उसका सरोकार शिक्षा रोजगार से है। वह इन दिनों गांव में पढाई के अलावा अपने भाई की किराना दुकान में कुछ घंटे का समय देता है।
गौरीशंकर बातचीत में रोजगार के संकट पर चर्चा छेड़ देता है। कहता है : चार साल में कोई वेकैंसी नहीं आयी है, पहले जो फार्म भरे गए हैं उसके एग्जाम का डेट नहीं आया है।
दलित महिला रीना कुमारी की पीड़ा
लौगांय गांव इस बात की भी तसदीक करता है कि धार्मिक विद्वेष, सांप्रदायिक आवेश राजनीति के स्थायी मुद्दे नहीं हो सकते हैं। लोगों का असली सरोकार रोजी, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा व सुरक्षा से ही है।
गांव की दलित महिला रीना कुमारी के लिए परिवार का गुजर-बसर करना सबसे बड़ी चुनौती है। उनके पति की 5-6 साल पहले बीमारी से मौत हो गई और उसके बाद परिवार व बच्चों की जिम्मेदारी उन पर आ गई। बेटी करिश्मा कुमारी आठवीं में पढती हैं। रीना की कमाई का कुछ पक्का जरिया नहीं है। जमीन है नहीं। वे बताती हैं कि सरकार 400 रुपये विधवा पेंशन देती है।
जनवितरण प्रणाली से 160 रुपये में 20 किलो चावल और 13 किलो गेहूं मिलता है। उसमें भी डीलर दो किलो कमीशन काट लेता है।
इसके अलावा उन्हें सरकार से कोई ऐसी मदद नहीं मिलती जिसका वे उल्लेख कर सकें। रीना देवी से सटे एक परिवार के युवा विकास कुमार ने कहा, सरकार बहाली नहीं निकालती है। विकास भी दलित परिवार से आते हैं और रोजगार उनकी चिंता के केंद्र में है।
वहीं, लौगांय की नीरा देवी के लिए आवास एक बड़ा मुद्दा है। वे कहती हैं कि सरकार की ओर से मिलने वाले आवास के लिए कुछ साल पहले उनसे कमीशन भी ले लिया और वह मिला भी नहीं।
लौगांय की दलित महिला रीना कुमार जिनके पति का निधन हो चुका है और उनके लिए बुनियादी जरूरतें ही अहम हैं।
किसान की चिंता, सिंचाई-खेती और फसल का उचित मूल्य
लौगांय गांव घुसने के साथ हमारी पहली मुलाकात दो किसान से हुई। इनके लिए सिंचाई, खेती और विकास ही मुद्दे हैं, जैसा कि वे कहते हैं।
किसान जोगिंदर सिंह कहते हैं: गांव में विकास का काम हुआ है, सड़क और नाला बना है। लेकिन, उनकी चिंता है कि सिंचाई वाली बिजली की आपूर्ति नहीं शुरू की गई है और ऐसे में वे डीजल इंजन से सिंचाई करते हैं। उस पर जोगिंदर सिंह की पीड़ा यह है कि मकई की फसल 1000 रुपये क्विंटल के भाव बेचना पड़ा, जो फायदे का सौदा नहीं है। यानी लागत से डेढ गुना कीमत का दावा यहां फेल हो गया।
उनके बगल में बैठे इंद्रदेव मंडल सवाल करने पर कहते हैं कि हम विकास के नाम पर ही वोटिंग करते हैं। सब्जी, धान, गेहूं, मक्का की खेती हम करते हैं। लेकिन, खेती-किसानी की चिंता व फसलों का उचित दर न मिलने का दुःख उन्हें भी है। लौगांय गांव भागलपुर जिले के गोराडीह ब्लाॅक व कहलगांव विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है, जहां पहले चरण में 28 अक्टूबर को को चुनाव होना है।
दंगों के बाद औने-पौने भाव में बिकी थी मुसलिमों की जमीन
भागलपुर के वरिष्ठ पत्रकार व रंगकर्मी चंद्रेश याद करते हैं कि दंगों के बाद लौगांय में औने-पौने भाव में मुसलिमों की जमीन बिकी और दूसरे लोगों ने उसे खरीद लिया। सामूहिक नरसंहार को लेकर उन्होंने 'लौगांय की गोभी' नामक कविता लिखी थी। यह कविता उस खेत पर केंद्रित थी जिसके नीचे लोगों को दफनाने के बाद उस पर गोभी की खेती कर दी गई।
चंद्रेश पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि अगर भागलपुर दंगों को नियंत्रित करने के लिए आर्मी नहीं आती तो हो सकता है कि 10 हजार लोग मारे जाते, 21 प्रखंडों में दंगा फैल गया था और पुलिस-नागरिक मिल कर निर्णय लेने लगे थे। 24 अक्टूबर 1989 को दंगा भड़कने के अगले ही दिन यानी 25 अक्टूबर 1989 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी भागलपुर दौरे पर आए और उसके बाद 26 अक्टूबर को प्रभावित इलाकों में सेना तैनात कर दी गई।
चंद्रेश के पास सुनाने के लिए भागलपुर दंगों के अनेकों प्रसंग है जो उस दौर को एक व्यापक संदर्भ दे जाता है और वह यह बताते हैं कि किस तरह उस समय पुलिस और नागरिकों की गोलबंदी हो गई थी। तत्कालीन एसपी का बयान, उनका निलंबन और लोगों द्वारा सीधे प्रधानमंत्री का वाहन रोक कर उसका विरोध जताने पर निलंबन रद्द करने जैसे मुद्दों पर वे बात करते हैं।
चंदेरी की मल्लिका बेगम जो दंगों की भयावहता की सबसे बड़ी प्रतीक बनीं, का क्या है दर्द
भागलपुर दंगे में लौगांय के बाद चंदेरी (Bhagalpur Riots & Chanderi Massacre) की गिनती दंगे से सबसे अधिक प्रभावित चार-पांच गांवों में होती है। दंगा यूं तो 250 गांवों तक फैल गया था, लेकिन इसके सबसे ज्यादा शिकार लौगांय, भाटोरिया, चंदेरी, सीलमपुर.-अमनपुर, रसालपुर, पडगढी जैसे गांव व इलाके हुए थे। इनमें चंदेरी गांव उसी इलाके में स्थित है जहां लोगांय है। हां, शहर से जाने पर यह थोड़ा पहले पड़ता है। इस गांव में 70 लोगों का कत्लेआम दंगों में हुआ था। भागलपुर दंगों में लगभग 1000 लोगों की हत्या हुई थी, जिनमें मोटे तौर पर आधी संख्या में इन्हीं आधा दर्जन गांवों-इलाकों में हत्याएं हुई थी।
चंदेरी गांव (Chanderi Bhagalpur) की मल्लिका बेगम (Mallika Begam Bhagalpur Riots) के माता-पिता की भी हत्या दंगाइयों ने कर दी थी। मल्लिका बेगम (Mallika Begam Bhagalpur) उस समय 14 साल की किशोर उम्र लड़की थीं और वे जान बचाने के लिए किसी तरह छिप गईं थीं लेकिन दंगाइयों की नजर उन पर पड़ गई और फिर उन्हें वहां से निकाल कर उनका दायां पैर काट कर उन्हें उसी तालाब में फेंक दिया गया, जिसमें अन्य लोगों को फेंका गया था। इस घटना के नौ घंटे बाद सीआरपीएफ जवान ताज मोहम्मद ने उन्हें अचेत अवस्था में रेस्क्यू किया। कत्लेआम के दिन उनके गांव को चारों ओर से उपद्रवी भीड़ ने घेर लिया था।
लेकिन, पैर काटे जाने के बाद भी मल्लिका बच गईं। आज वे एक असली और एक कृत्रिम पैर से किसी तरह चलती हैं। मल्लिका बेगम भागलपुर दंगों की क्रूरता व अमानवीयता की सबसे बड़ी प्रतीक बन गईं और देश-दुनिया के अखबारों ने उनकी कहानी व तसवीर छापी। लेकिन, दंगा पीड़ितों की इस सबसे बड़ी प्रतीक ने इस संवाददाता को फोन पर बताया कि सरकार उन्हें पेंशन नहीं देती है। दरअसल, समय अभाव के कारण चंदेरी गांव जाना नहीं हो सका और मल्लिका से फोन पर पूरे मामले पर बात हुई।
मल्लिका (Mallika Begam) बातचीत के दौरान कहती हैं : पेंशन उन्हें मिल रही है, जिनके पति-पत्नी या बेटा-बेटी मारे गए थे, जिनके मां-बाप मारे गए थे उन्हें पेंशन नहीं मिल रही है। उन्होंने कहा, दंगों का एक लाख और साढे तीन लाख, कुल साढे चार लाख मुआवजा मिला। वे कहती हैं, एक आदमी के जान की सरकार के लिए इतनी ही कीमत है - साढे चार लाख।
दंगों में क्या हुआ? कैसे हुआ? जैसे सवाल उन्हें असहज करते हैं और वे सिर्फ इतना कहती हैं कि यह लंबी कहानी है। उनके ऐसा कहने पर इस संबंध में दूसरा सवाल करना मुश्किल महसूस होता है।
मल्लिका बेगम (Mallika Begam Bhagalpur Riots) कहती हैं कि उन्होंने एक कश्मीरी फौजी से शादी की थी, जो शादी के चार-पांच साल बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए और दूसरी शादी कर ली और नौकरी भी छोड़ दी। पति से उन्हें कोई गुजारा भत्ता नहीं मिलता। वे अपने भाइयों के साथ रहती हैं और वही उनका सहारा हैं। मल्लिका बेगम से दंगे के कुछ समय बाद उसी सीआरपीएफ जवान ताज मोहम्मद ने शादी की थी, जिसने उन्हें तालाब से रेस्क्यू किया था। हालांकि बाद में दोनों के बीच दूरियां बढ गईं।
मल्लिका को दो बच्चे हैं, 25 साल की एक बेटी और 22 साल का एक बेटा। बेटी दिल्ली में रहती है और बेटा पूर्णिया में। दोनों का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका है।
मल्लिका कहती हैं : हर पांच साल में मीडिया वाले आते हैं, बात करते हैं और चले जाते हैं, लेकिन मेरी समस्या का कोई समाधान नहीं होता है, हम कैसे जिएंगे पता नहीं है।
इस विशेष रिपोर्ट को भी पढें :
https://janjwar.com/national/bihar/bhagalpuri-silk-industries-impact-of-bhagalpur-riots-and-gst-janjwar-ground-report-667479